जागरण संपादकीय: खतरा बने गैर सरकारी संगठन, एनजीओ की भूमिका पर उठते सवाल
तमिलनाडु स्थित कुडनकुलम परमाणु परियोजना को भी एनजीओ के हस्तक्षेप की तपिश झेलनी पड़ी। फरवरी 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था ‘कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम मुश्किलों में घिर गया है क्योंकि अमेरिका स्थित कई एनजीओ हमारे देश के लिए ऊर्जा आपूर्ति वृद्धि की आवश्यकता की कद्र नहीं करते।’ रूस समर्थित इस परियोजना का एनजीओ लाबी द्वारा भारी विरोध हुआ था।
बलबीर पुंज। भारत को अस्थिर करने वाली आंतरिक-बाहरी शक्तियों के कई मुखौटे हैं। ऐसा ही एक भोला दिखने वाला नकाब एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) है। बीते दिनों आयकर विभाग ने आक्सफैम इंडिया सहित पांच बड़े एनजीओ के दफ्तरों पर छापा मारा। गहन जांच से सामने आया कि ये संगठन बाह्य-धनबल के दम पर देश की औद्योगिक परियोजनाओं के खिलाफ अभियान चला रहे थे।
इस संदर्भ में एक हालिया घटनाक्रम और भी चौंकाने वाला रहा और वह यह कि एनजीओ द्वारा समाज में मजहब के नाम पर वैमनस्य फैलाने वालों का बचाव किया जा रहा है। यह मामला 2018 में उत्तर प्रदेश के कासगंज में चंदन गुप्ता हत्याकांड से जुड़ा है। इस मामले में 28 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई है।
मुस्लिम बहुल इलाके में उन्मादी भीड़ ने गणतंत्र दिवस पर तिरंगा यात्रा निकाल रहे चंदन की हत्या कर दी थी। हाल में जब इस मामले में एनआइए की अदालत ने निर्णय सुनाया तो उसमें यह चिंता व्यक्त की गई कि कुछ एनजीओ दंगाइयों को हरसंभव कानूनी सहायता पहुंचा रहे थे।
इनमें सिटीजन आफ जस्टिस एंड पीस, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज, रिहाई मंच, यूनाइटेड अगेंस्ट हेट जैसे देसी और अलायंस फॉर जस्टिस एंड अकाउंटेबिलिटी, इंडियन अमेरिकन मुस्लिम काउंसिल और साउथ एशिया सालिडेरिटी ग्रुप जैसे विदेशी एनजीओ के नाम सामने आए।
जज विवेकानंद शरण त्रिपाठी ने इस पर कहा, ‘यह पता लगाने के लिए कि एनजीओ को धन कहां से मिल रहा है, उनका सामूहिक उद्देश्य क्या है और न्यायिक प्रक्रिया में उनके अवांछित हस्तक्षेप को रोकने का प्रभावी उपाय करने हेतु इस फैसले की एक प्रति बार काउंसिल आफ इंडिया और केंद्रीय गृह सचिव को भेजी जानी चाहिए, क्योंकि यह प्रवृत्ति बहुत खतरनाक और संकीर्ण सोच को बढ़ावा दे रही है।’
सिटीजन आफ जस्टिस एंड पीस की संस्थापक ट्रस्टी और सचिव तीस्ता सीतलवाड़ हैं, जिनके खिलाफ सर्वोच्च अदालत के निर्देश पर गुजरात दंगा मामले में झूठी कहानी गढ़ने और फर्जी गवाही दिलाने का मामला दर्ज है। किसी संदिग्ध किस्म के एनजीओ की पड़ताल पर कुछ तबकों के विरोध का सिलसिला बहुत पुराना है। इसके लिए लोकतंत्र पर आघात और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश जैसे आरोप भी लगाए जाते हैं।
हालांकि इस मुद्दे को लेकर स्वर मुखर भी होते रहे हैं। 2005 में माकपा के अधिवेशन में पार्टी नेता प्रकाश करात ने कहा था, ‘हमारी पार्टी ने लगातार चेतावनी दी है कि एनजीओ की कई गतिविधियों को वित्तपोषित करने हेतु बड़ी मात्रा में विदेशी धन आ रहा है। पश्चिमी एजेंसियों से मिलने वाले ऐसे धन का उद्देश्य लोगों का राजनीतिकरण करना होता है।’ ऐसी बातें निराधार नहीं हैं। भारतीय विकास गाथा में एनजीओ लाबी द्वारा गतिरोध पैदा करने के अंतहीन उदाहरण हैं।
एक अध्ययन के अनुसार 1985 में चीन और भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी लगभग 293 डालर थी। अभी चीन में यह 13,000 डालर से अधिक तो भारत में महज 2,700 डालर है। करीब 18.5 ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर की चीनी आर्थिकी भी भारत से करीब पांच गुना विशाल है। विकास की इस दौड़ में भारत के पिछड़ने को एक परियोजना के उदाहरण से ही समझा जा सकता है।
विश्व के सबसे बड़े बांधों में से एक थ्री गोर्जेस डैम, जो चीन में 10 वर्षों से कुछ अधिक में बनकर तैयार हो गया, जबकि उसकी तुलना में कहीं छोटे सरदार सरोवर बांध को पूरा करने में भारत को 56 साल लग गए। इसका एक बड़ा कारण देश में समझौतावादी खिचड़ी गठबंधन सरकारें भी रहीं। उनमें कुछ अपवादों को छोड़कर राष्ट्रहित गौण रहा और जोड़तोड़ की राजनीति हावी रही। इसका लाभ मानवाधिकार-पर्यावरण संरक्षण के नाम पर नर्मदा बचाओ आंदोलन यानी एनबीए जैसे संदिग्ध मंशा वाले संगठनों ने उठाया।
इस दौरान जहां देश का विकास अवरुद्ध रहा, वही एनबीए नेता मेधा पाटकर को दुनिया भर में प्रचार मिला। आज सरदार सरोवर बांध से गुजरात के साथ मप्र, महाराष्ट्र और राजस्थान के सीमावर्ती क्षेत्रों के करोड़ों लोगों को बिजली, सिंचाई हेतु पानी और स्वच्छ पेयजल मिल रहा है।
तमिलनाडु स्थित कुडनकुलम परमाणु परियोजना को भी एनजीओ के हस्तक्षेप की तपिश झेलनी पड़ी। फरवरी 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने कहा था, ‘कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम मुश्किलों में घिर गया है, क्योंकि अमेरिका स्थित कई एनजीओ हमारे देश के लिए ऊर्जा आपूर्ति वृद्धि की आवश्यकता की कद्र नहीं करते।’ रूस समर्थित इस परियोजना का एनजीओ लाबी द्वारा भारी विरोध हुआ था।
इससे उसके परिचालन में आठ साल की देरी हुई और परियोजना लागत दस हजार करोड़ रुपये से अधिक बढ़ गई। केरल में विझिंजम अंतरराष्ट्रीय बंदरगाह के निर्माण के समय भी यही देखने को मिला। तब चर्च के समर्थन से स्थानीय मछुआरों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए थे। इस पर केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन ने कहा था कि यह विरोध स्थानीय मछुआरों का न होकर संगठित प्रतीत हो रहा है।
कथित पर्यावरणीय चिंताओं के नाम पर योजनाबद्ध उग्र प्रदर्शन और चर्च प्रेरित विरोध के बाद तूतीकोरिन में वेदांता को स्टरलाइट तांबा स्मेलटर कारखाना 2018 में बंद करना पड़ा। इससे भारतीय तांबा उद्योग को इतनी क्षति पहुंची कि 2017-2018 तक जो भारत विश्व के शीर्ष पांच तांबा निर्यातकों में से एक था, वह तांबे का आयातक बन गया।
नि:संदेह कुछ एनजीओ समाज कल्याण कार्यों में संलग्न हैं, लेकिन यह भी सच है कि कई भारत विरोधी शक्तियां एनजीओ का रूप धारण करके देश और समाज को कमजोर करने के प्रयासों में शामिल हैं। इसे देखते हुए 2012 से 2024 तक गृह मंत्रालय कुल 20,721 एनजीओ का विदेशी अंशदान पंजीकरण रद कर चुका है।
फिर भी वित्त वर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच एनजीओ को लगभग 89 हजार करोड़ रुपये का विदेशी चंदा प्राप्त हुआ। आखिर विदेश से एनजीओ को मिल रहे अकूत धन का उद्देश्य क्या है? आधुनिक युद्ध सीमाओं की मोहताज नहीं, इसलिए देश के भीतर पल रहे दुश्मनों पर भी नकेल कसने की भी जरूरत है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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