जागरण संपादकीय: नेता भी रिटायर होना सीखें, राष्ट्र और समाज के हित के लिए युवाओं को करें प्रेरित
कई मामले यही दर्शाते हैं कि राजनीति अब नेताओं की जीवनशैली का हिस्सा बन गई है। नेता अतीत की सद्भावनाओं के सहारे ही नैया पार लगाने के प्रयास में लगे रहते हैं। इसमें भी अक्सर अतिरेक हो जाता है। पद और कुर्सी के प्रति मोह सुर्खियों में बने रहने की आदत और सुख-सुविधाएं ऐसे नेताओं को समझौते करने पर मजबूर करती हैं।
जीएन वाजपेयी। अपने देश में नेता कभी रिटायर नहीं होना चाहते। भले ही उनकी कितनी ही उम्र क्यों न हो जाए या फिर सेहत और शरीर भी उनका साथ छोड़ने लगे, लेकिन उन्हें राजनीति से किनारा करना कभी रास नहीं आता। कुछ नेता समय के साथ अप्रासंगिक हो जाते हैं तो कुछ तमाम अंतिम सांस तक सक्रिय रहते हैं। इस कड़ी में जयप्रकाश नारायण यानी जेपी और नानाजी देशमुख जैसे इक्का-दुक्का अपवाद ही नजर आते हैं, जो अपनी इच्छा के अनुरूप राजनीति से विदाई लेते हैं।
कुछ समय पहले कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने पूर्व गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की आत्मकथा के विमोचन के अवसर पर कहा था, 'मुझे नहीं लगता कि किसी को भी राजनीति से रिटायर होना चाहिए। जो किसी विचारधारा में विश्वास रखते हैं, जो राष्ट्र की सेवा, अपने समाज की सेवा करना चाहते हैं, उन्हें अंत तक ऐसा करना चाहिए।'
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनेता राष्ट्र के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। उनके निर्णय और योगदान करोड़ों लोगों की नियति पर असर डालता है। ऐसे में उनसे यही अपेक्षा होती है कि वे समझदारी भरे विकल्प अपनाएं और विवेकसम्मत निर्णय करें। एक कनाडाई दार्शनिक-लेखक मात्सोना धालीवायो ने यथार्थ ही कहा है, ‘एक अच्छा चरवाहा वही होता है, जो पहले अपनी भेड़ों का पेट भरे, भले ही वह खुद कितना ही भूखा क्यों न हो।’ यह बात नेतृत्वकर्ताओं पर भी लागू होती है।
जेपी ने राजनीति से संन्यास ले लिया था, लेकिन देश में संवैधानिक व्यवस्था वाले लोकतांत्रिक ढांचे की बहाली के लिए संन्यास तोड़कर आंदोलन का नेतृत्व किया। राजनीतिक जीवन के दौरान का अनुभव और विशेषज्ञता उसमें बड़े मददगार रहे और संभवतः यह भी एक कारण रहा कि वह आंदोलन को नेतृत्व प्रदान कर सके। हालांकि एक ऐसे गतिशील समाज में जहां सामाजिक-आर्थिक ढांचा बड़ी तेज गति से बदल रहा हो, वहां केवल अनुभव ही पर्याप्त नहीं।
विशेषज्ञता विशेष माहौल एवं परिस्थितियों में ही कहीं अधिक प्रासंगिक होती है। नोबेल पुरस्कार विजेता डेनियल काह्नमैन ने लिखा है, ‘कुछ ऐसे क्षेत्र होते हैं, जिनमें विशेषज्ञता संभव ही नहीं। शेयरों का चयन इसका एक अच्छा उदाहरण है। दीर्घकालिक राजनीतिक-रणनीतिक अनुमानों के मामले में भी विशेषज्ञ किसी पासा फेंकने वाले बंदर से बेहतर नहीं।’
नेपोलियन बोनापार्ट का कथन है, ‘ए लीडर इज ए डीलर इन होप’ यानी नेता उम्मीदें परवान चढ़ाने वाला व्यापारी ही होता है। इस समय दुनिया भर में कई पीढ़ियों का संगम दिखता है। इनमें 1925 से 1945 के बीच पैदा हुई साइलेंट जेनरेशन, 1946-64 के बीच के बेबी बूमर्स, 1965-79 के जेन एक्स, 1980-94 के मिलेनियल्स, 1997-2012 के जेन जेड और 2012 के बाद की अल्फा जेनरेशन प्रमुख हैं। ये सभी अपने-अपने जीवन की अनिश्चितताओं से दो-चार हैं। उनकी आशाएं, आकांक्षाएं, प्राथमिकताएं और यहीं तक कि पसंद भी हमेशा एकसमान नहीं दिखेगी। नेताओं की अधिकांश नीतियां विभिन्न पीढ़ियों की आशाओं एवं आकांक्षाओं पर खरी नहीं उतरतीं।
भारतीय राजनीति पर फिलहाल बेबी बूमर्स वाली पीढ़ी का वर्चस्व है। नेताओं के लिए मतदाताओं की अपेक्षाओं को समझना ही उनके साथ जुड़ाव की कुंजी होती है और उनमें अपनी पीढ़ी से इतर का तबका भी होता है। आज अधिकांश नेता शारीरिक रूप से इतने चुस्त-दुरुस्त नहीं कि वे उन लोगों से नियमित संवाद कर सकें, जिनके वोट से चुनाव जीतना चाहते हैं। चुनाव हारने के बाद या हार की आशंका को देखते हुए वे राज्यसभा या विधान परिषद के जरिये पिछले दरवाजे से प्रवेश पा जाते हैं।
कई मामले यही दर्शाते हैं कि राजनीति अब नेताओं की जीवनशैली का हिस्सा बन गई है। नेता अतीत की सद्भावनाओं के सहारे ही नैया पार लगाने के प्रयास में लगे रहते हैं। इसमें भी अक्सर अतिरेक हो जाता है। पद और कुर्सी के प्रति मोह, सुर्खियों में बने रहने की आदत और सुख-सुविधाएं ऐसे नेताओं को समझौते करने पर मजबूर करती हैं। विचारधारा जैसे पहलू इसमें गौण हो जा रहे हैं, क्योंकि पाला बदलते ही विचारधारा का कोई मूल्य-महत्व नहीं रह जाता।
पद और कुर्सी से चिपके रहने का मोह इतना बढ़ गया है कि उसके चलते वंशवादी राजनीति को बढ़ावा दिया जाने लगा है। अक्सर ऐसे उत्तराधिकारियों को अपने पिता या दादा की तरह जमीनी स्तर पर कोई पकड़ या अनुभव नहीं होता और इस लिहाज से वे उस पद के योग्य ही नहीं होते। उनकी राजनीति अपेक्षित रूप से परिणामोन्मुखी नहीं होती और समाज लोकतांत्रिक ढांचे के फायदों से वंचित रह जाता है।
अमेरिकी राजनीतिक कार्यकर्ता राल्फ नादर ने कहा है, ‘नेतृत्व का काम और अधिक नेता विकसित करना होता है, अनुयायी नहीं।’ वंशवादी राजनीति में तो सिर्फ बंदरबांट ही चलती है। वंशवादी नेता पहचान की राजनीति करते हैं, भले ही इसके लिए राष्ट्रीय हितों को ही क्यों न तिलांजलि देनी पड़े।
सहमति के स्वर संकीर्ण हितों के कोलाहल में दम तोड़ देते हैं। यह सिलसिला टूटना चाहिए। बदलाव की राजनीति को प्रश्रय एवं प्रोत्साहन मिलना चाहिए। राष्ट्रीय हितों के लिए निहित स्वार्थों को अनदेखा किया जाना चाहिए। राजनीति में युवाओं को बढ़ावा दिया जाए, जो स्वयं से ज्यादा राष्ट्र-समाज के हित का सोचें।
हमारे स्वतंत्रता सेनानी और स्वतंत्रता के बाद के राजनीतिक परिदृश्य पर नेताओं की जो पहली पीढ़ी चमकी, वह ऐसे ही आदर्शवाद से ओतप्रोत व्यक्तियों की ही रही। वे राष्ट्र-समाज की सेवा करना चाहते थे और केवल इसी पहलू के चलते उन्हें अपना पद एवं कुर्सी प्यारी थी।
अफसोस की बात है कि वह पीढ़ी तेजी से विलुप्त हो रही है और इधर करोड़ों वंचित भारतीय राजनीति की दिशा में बुनियादी बदलाव की ओर टकटकी लगाए हुए हैं, ताकि उनकी दशा सुधरे। बदलते समय के साथ यह बदलाव अपेक्षित हो चुका है।
(लेखक सेबी और एलआइसी के चेयरमैन रहे हैं)
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