उमेश चतुर्वेदी। बिहार की मतदाता सूची का विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) अभियान पर राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। विपक्षी दल इसके लिए चुनाव आयोग की मंशा और निष्पक्षता पर सवाल उठा रहे हैं। वे यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि चुनाव आयोग सत्तापक्ष के हाथों में खेल रहा है और इस अभियान के बहाने उनके समर्थक वोटरों के नाम मतदाता सूची से काटने की जुगत लगा रहा है। राजद, कांग्रेस और तृणमूल जैसे दलों ने अभियान का विरोध करते हुए इसे नागरिकता सत्यापन से जोड़ दिया है।

मोदी सरकार में शामिल टीडीपी ने भी मांग रखी है कि इस अभियान को लेकर यह स्पष्ट किया जाना चाहिए कि यह नागरिकता के सत्यापन का अभियान नहीं है। इस बीच ‘डेमोग्राफिक रिकंस्ट्रक्शन एंड इलेक्टोरल रोल इन्फ्लेशन: एस्टीमेटिंग द लेजिटिमेट वोटर बेस इन बिहार, इंडिया 2025’ शीर्षक से एक अध्ययन सामने आया है, जो बता रहा है कि बिहार की मतदाता सूची में करीब 77 लाख अवैध मतदाता हैं। अभी बिहार में 7.89 करोड़ मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में दर्ज हैं।

अध्ययन का निष्कर्ष है कि इनमें सिर्फ सात करोड़ 12 लाख मतदाताओं के नाम ही वैध हैं, जबकि बाकी 77 लाख मतदाता फर्जी हैं। बिहार में विधानसभा की 243 सीटें हैं। इस लिहाज से देखें तो करीब हर सीट पर लगभग तीस हजार अवैध मतदाता हैं। इस अध्ययन के अनुसार, बिहार के शहरी और ग्रामीण इलाकों की मतदाता सूची में दर्ज अवैध वोटरों की वजह अलग-अलग है। शहरी मतदाता सूची में फर्जी वोटरों के नाम प्रवासन की समस्या की वजह से हैं तो ग्रामीण इलाकों में इसकी वजह मृत्यु के आंकड़ों का रिकार्ड अपडेट न होना है। चुनाव आयोग की प्राथमिक रिपोर्ट भी इस अध्ययन के नतीजे को सही साबित करती है।

एसआइआर के चलते पता चला है कि बिहार में करीब 5.76 लाख मतदाताओं के नाम एक से ज्यादा जगहों की मतदाता सूची में शामिल हैं। वहीं 35 लाख से अधिक मतदाता अपने पते पर नहीं मिले हैं। चुनाव आयोग ने जो आंकड़े जारी किए हैं, उसके अनुसार करीब 12 लाख 55 हजार 620 मतदाताओं की मृत्यु हो चुकी है, जबकि उनके नाम अब भी मतदाता सूची में शामिल हैं। इसी तरह 17 लाख 37 हजार 336 मतदाताओं ने स्थायी रूप से उस जगह को छोड़ दिया है, जहां उनके नाम मतदाता सूची में शामिल हैं। ये आंकड़े प्रारंभिक हैं। फाइनल आंकड़ों में बिहार की डेमोग्राफी बदली नजर आ सकती है। जो स्थिति बिहार में देखने को मिल रही है, वह अन्य राज्यों में और खासकर बंगाल में भी होगी।

बिहार में आखिरी एसआइआर 2003 में हुआ था। तब राज्य में 4.96 करोड़ मतदाता थे। 2003 में 65 वर्ष और उससे अधिक आयु के वोटरों में से अधिकांश के जीवित रहने की संभावना कम है। इस लिहाज से 2003 की मतदाता सूची में शामिल 4.96 करोड़ लोगों में से, 2025 में केवल 3.41 करोड़ लोगों के जीवित रहने की संभावना है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार, राज्य की जन्म-मृत्यु दर के हिसाब से 2003 के बाद से अब तक इस सूची में 4.83 करोड़ नए वोटर जुड़ने चाहिए थे। आंकड़ों के लिहाज से 1985 से 2007 के बीच राज्य में इतने ही लोगों का जन्म होना चाहिए, जो अब तक वोटर हो सकते हैं।

बिहार से पलायन की जो स्थिति है, उसके लिहाज से इस राज्य से इस बीच करीब एक करोड़ 12 लाख मतदाता बिहार से पलायन कर चुके हैं। 2003 से 2011 के बीच बिहार से कुल 49 लाख 65 हजार वोटर बाहर रहने चले गए। इसी तरह 2012 से 2025 के बीच राज्य से 72 लाख लोगों ने प्रवासन किया। इनमें से करीब आठ लाख 80 हजार लोग लौटे। इस तरह राज्य से पलायन करने वाले वोटरों की संख्या एक करोड़ 12 लाख बैठती है। इस हिसाब से राज्य में वैध वोटरों की संख्या सात करोड़ 12 लाख ही बैठती है।

बिहार में सीमावर्ती इलाकों विशेषकर सीमांचल में घुसपैठ की बातें छिपी नहीं हैं। 2003 से ही राशन कार्ड और आधार कार्ड को मतदाता सूची में नाम शामिल करने के लिए सहयोगी दस्तावेज के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कई राज्यों ने अपनी जांच में अवैध राशन कार्ड पकड़े हैं। इसी तरह घुसपैठियों के आधार कार्ड हासिल करने की जानकारियां भी सामने आती रही हैं। यही वजह है कि चुनाव आयोग ने इन दस्तावेजों को वोटर लिस्ट में शामिल करने के लिए वैध नहीं माना है। विपक्षी दलों को डर है कि इस अभियान से उनके वोटरों की संख्या घट सकती है। अगर वोटर लिस्ट में फर्जी मतदाता हैं तो उनके नाम पर फर्जी वोटिंग की आशंका बनी रहेगी।

2020 के विधानसभा चुनावों में बिहार की करीब 20 प्रतिशत सीटों पर जीत-हार का फैसला महज ढाई प्रतिशत या उससे कम वोटों के अंतर से हुआ था। 17 सीटों पर तो जीत-हार का फैसला एक प्रतिशत से भी कम अंतर से हुआ था। साफ है कि 77 लाख फर्जी वोटरों का मामला राज्य के चुनाव नतीजों पर असर डाल सकता है। ऐसे में चुनाव आयोग के कदम पर सवाल उठाना बेमानी ही कहा जाएगा। स्वच्छ और निष्पक्ष मतदान लोकतंत्र की पहली शर्त है। ऐसे में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण की महत्ता बढ़ जाती है। बिहार ही क्यों, पूरे देश के लिए ऐसे अभियान की जरूरत बढ़ जाती है। मतदाता सूची में पारदर्शिता बढ़ाने के चुनाव आयोग के अभियान पर सवाल उठाने से बचा जाना चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)