विचार: घुसपैठ के कहर से बचाया जाए लोकतंत्र, मतदाता सूची में स्पष्टता जरूरी
निसंदेह देश के प्रत्येक नागरिक का नाम मतदाता सूची में होना चाहिए परंतु यदि विदेशी घुसपैठिये वोट डाल रहे हैं तो यह लोकतंत्र पर धब्बा है। विपक्ष के रुख से साफ है कि वह घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई पर आम सहमति नहीं बनने देगा। इसलिए केंद्र और चुनाव आयोग को दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ तमाम विरोध के बावजूद अपना दायित्व पूरा करना होगा।
विकास सारस्वत। भारत की पूर्वी सीमाओं से घुसपैठ एक बड़ी समस्या रही है और इसके कारण लंबे समय तक चलने वाले खूनी संघर्ष भी हुए हैं। देश का दुर्भाग्य है कि ऐसा गंभीर मुद्दा क्षुद्र राजनीति का मैदान बनता रहा है। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए और राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के विरोध के दौरान विपक्ष और कुछ बुद्धिजीवियों ने भारत सरकार के उन प्रयासों का विरोध किया था जिसमें घुसपैठियों को वास्तविक शरणार्थियों से अलग किया जा पाता।
अब फिर बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण का आक्रामक विरोध हो रहा है। कई रिपोर्टों के अनुसार बिहार के कई जिलों में लोगों की संख्या से अधिक तो आधार कार्ड बने हुए हैं। मुस्लिम बहुल सीमांचल के जिलों में यह दर काफी अधिक है। हालांकि हिंदू बहुल जिलों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं है। कुछ लोगों की दलील है कि चूंकि जनगणना के आंकड़े 14 वर्ष पुराने हैं, इसलिए कुछ स्थानों पर आधार की सौ प्रतिशत से ऊपर संतृप्ति दर संभव है।
चिंताजनक बात वहां है जहां यह अंतर 15-20 प्रतिशत से ऊपर है। ऐसे अधिकांश जिले मुस्लिम बहुल सीमांचल में हैं। ऐसे में, सवाल यह उठना चाहिए कि क्या इसी प्रकार के रुझान दिखाने वाले अन्य राज्य भी घुसपैठ के शिकार तो नहीं हैं? गत वर्ष टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंस की एक रिपोर्ट में यह सामने आया था कि मुंबई में चुनावों को प्रभावित करने के लिए कुछ एनजीओ बांग्लादेशियों और रोहिंग्याओं के वोट बनवाते हैं। इस वर्ष जनवरी में दिल्ली पुलिस ने कई बांग्लादेशी घुसपैठियों को पकड़ा था जिनके पास असली आधार और वोटर कार्ड मिले थे। अब बिहार की मतदाता पुनरीक्षण कवायद में लाखों लोगों का नदारद पाया जाना चुनाव आयोग की कार्रवाई के औचित्य को सही ठहराता है।
वैसे तो घुसपैठ कई समस्याओं को जन्म देती है, लेकिन चुनावी दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह देश की संप्रभुता को सीधी-सीधी चुनौती है। रक्तरंजित असम आंदोलन की शुरुआत भी ऐसे ही एक मुद्दे से हुई थी। वर्ष 1979 में असम के मंगलदोई लोकसभा उपचुनाव से पहले 26,000 बांग्लादेशी घुसपैठियों के नाम मतदाता सूची में पाए गए। 1975 से चुनाव आयोग लगातार विदेशियों के नाम सूची से हटाने के आदेश दे रहा था, परंतु केंद्र और राज्य सरकार के दबाव में आदेशों की अनदेखी होती रही।
1978 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एसएल शकधर ने तो यहां तक कहा कि एक राजनीतिक दल ने अपने राजनीतिक लाभ के लिए मतदाता सूची में विदेशियों के नाम जुड़वाए हैं। उनका इशारा कांग्रेस की तरफ था। उस वक्त असम में हुए चुनावों के नतीजे इन आरोपों की पुष्टि भी करते हैं। 1977 के लोकसभा चुनावों में जब पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया तब इन्हीं संदिग्ध मतदाताओं के सहारे पार्टी असम की 14 में से 10 सीटें जीत गई। बाद में जनता पार्टी शासन में हुए 1978 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 126 में से केवल नौ सीटों पर सफलता मिली।
इन नौ सफल उम्मीदवारों में से एक अनवरा तैमूर थीं, जिनकी दलगांव सीट पर जीत का अंतर 9,200 वोट का था। दलगांव सीट भी मंगलदोई लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र का हिस्सा है। कुछ माह के भीतर इस विधानसभा सीट पर 14,400 घुसपैठियों के नाम मतदाता सूची से हटाए गए, परंतु अनवरा विधायक बनी रहीं। 1980 में राजनीतिक उठापटक के चलते राज्य की जनता पार्टी सरकार अल्पमत में आई और कांग्रेस ने अनवरा तैमूर को असम का मुख्यमंत्री बनाया।
जिस मंगलदोई क्षेत्र में हुई धांधली के विरोध में आल असम स्टूडेंट यूनियन-आसू ने अपना आंदोलन छेड़ा, वहीं से निर्वाचित एक विधायक को मुख्यमंत्री बनाना जो स्वयं घुसपैठियों के बलबूते जीती हों, जले पर नमक छिड़कने के समान था। मुख्यमंत्री बनने के बाद अनवरा का पहला निर्णय मतदाता सूचियों में विदेशियों की पहचान रोकने का रहा। केंद्र के दबाव में आयोग बदले आदेश में कहा कि मतदाता सूची में किसी भी व्यक्ति को वोट डालने से न रोका जाए और मतदाता सत्यापन की कार्रवाई चुनाव बाद ही की जाए। इस प्रयास का लाभ कांग्रेस को मिला और आगामी 1983 विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को 91 सीट मिलीं। हालांकि तब तक असम पूरी तरह हिंसा और अलगाव की आग में झुलस चुका था।
असम के अलावा घुसपैठिये अन्य राज्यों के चुनावों को भी प्रभावित कर रहे हैं। लगभग 25 साल पुराने एक अध्ययन में ‘सेंटर फार द स्टेट एंड साउथईस्ट एशिया स्टडीज’ ने पाया कि बंगाल की 292 विधानसभा सीटों में से 52 सीटों पर घुसपैठिए निर्णायक भूमिका में आ गए हैं जबकि 100 अन्य सीटों पर वह नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं। जाहिर है दो दशक बाद आज स्थिति और खराब हुई होगी। 1993 में जनसांख्यिकीविद बलजीत राय ने अविभाजित बिहार में आप्रवासियों की संख्या बंगाल और असम से लगभग आधी बताई थी। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि बिहार और झारखंड के चुनावी परिदृश्य पर भी आप्रवासियों का कितना प्रभाव पड़ा होगा।
असम के चुनावी परिदृश्य पर पड़ने वाले प्रभाव पर तो 2008 में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘असम में बड़ी संख्या में बांग्लादेशी विधानसभा और संसद के लिए प्रतिनिधियों के चुनाव में और परिणाम स्वरूप राष्ट्रीय निर्णय लेने की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।’ बंगाल के मालदा से लवली खातून नाम की एक तृणमूल-कांग्रेस नेत्री को फरवरी में ग्राम प्रधान के पद से इसलिए हटाना पड़ा, क्योंकि वह बांग्लादेशी नागरिक थी। तृणमूल की बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति सहानुभूति तो जगजाहिर है। पार्टी नेता खोकन दास यह कहते सुने गए कि केवल उन्हीं बांग्लादेशी आप्रवासियों के नाम मतदाता सूची में जोड़े जाएं जो तृणमूल को वोट देंगे।
नि:संदेह देश के प्रत्येक नागरिक का नाम मतदाता सूची में होना चाहिए, परंतु यदि विदेशी घुसपैठिये वोट डाल रहे हैं तो यह लोकतंत्र पर धब्बा है। विपक्ष के रुख से साफ है कि वह घुसपैठियों के खिलाफ कार्रवाई पर आम सहमति नहीं बनने देगा। इसलिए केंद्र और चुनाव आयोग को दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ तमाम विरोध के बावजूद अपना दायित्व पूरा करना होगा। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि भ्रष्ट नौकरशाही अवैध आव्रजन पर कार्रवाई को असम एनआरसी की तरह विफल न कर दे।
(लेखक इंडिक अकादमी के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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