आतंक की जड़ को मिटाना जरूरी, स्थायी हल चाहिए तो नियंत्रण रेखा को बदलने का बनाना होगा मन
अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद से लश्कर और जैश के आतंकियों ने पुंछ-राजौरी क्षेत्र में पीर पंजाल की पहाड़ियों पर फैले घने जंगलों में ठिकाने बना रखे हैं। यहां वे पहाड़ियों में बनी गुफाओं और जंगलों के बीच बसे गांवों में कुछ स्थानीय लोगों की सहायता से छुप जाते हैं और मौका मिलते ही हमला करते हैं। ये क्षेत्र हाजी पीर दर्रे से लगता है।
दिव्य कुमार सोती। गत 21 दिसंबर को पुंछ के घने जंगल में एक तीखे मोड़ पर भारतीय सेना के वाहनों पर आतंकियों द्वारा घात लगा कर हमला किया गया। इसमें सेना के चार जवानों ने वीरगति प्राप्त की। इस घटना में दो जवानों के शरीर भी क्षत-विक्षत करने की बात सामने आई। इससे कारगिल युद्ध के समय कैप्टन सौरभ कालिया और उनके साथी जवानों की निर्मम हत्या और उनके शवों को क्षत-विक्षत किए जाने की याद ताजा हो गई। पाकिस्तानी फौज की बार्डर एक्शन टीम द्वारा ऐसी घटनाओं को अक्सर अंजाम दिया जाता है, जिसका भारतीय सेना की ओर से लोकल कमांडर स्तर पर समुचित जवाब भी दिया जाता है, लेकिन पुंछ-राजौरी की घटना नियंत्रण रेखा के काफी भीतर की है। यहां काफी समय से ऐसी घटनाएं हो रही हैं।
गत 21 नवंबर को राजौरी के कालाकोट में इसी प्रकार घात लगाकर किए गए हमले में सेना के दो कैप्टन सहित चार सैनिक बलिदान हो गए थे। 5 मई, 2023 को भी एक आतंकी हमले में विशेष बल के पांच पैराकमांडो ने वीरगति प्राप्त की। 20 अप्रैल 2023 को पुंछ के भट्टा दूरियां में सेना के ट्रक पर हमले में आतंकियों ने पांच जवानों की जान ले ली थी। इस साल की शुरुआत ही जिहादी आतंकियों द्वारा राजौरी के डांगरी गांव में पांच हिंदुओं की हत्या से हुई थी। इस हमले के बाद क्षेत्र में सीआरपीएफ की तैनाती भी बढ़ाई गई, लेकिन हमले जारी ही रहे। इन अलग-अलग हमलों में हुई मौतों का आंकड़ा जोड़ा जाए तो वह उड़ी और पुलवामा आतंकी हमलों के आसपास ही पहुंचता है। एयर स्ट्राइक के बाद से पाकिस्तान समर्थित आतंकियों ने रणनीति बदली है। उड़ी या पुलवामा जैसे बड़े हमले के बाद भारत की जवाबी सैनिक कार्रवाई के खतरे को देखते हुए आतंकी छोटे-छोटे हमले कर रहे हैं।
अनुच्छेद-370 की समाप्ति के बाद से लश्कर और जैश के आतंकियों ने पुंछ-राजौरी क्षेत्र में पीर पंजाल की पहाड़ियों पर फैले घने जंगलों में ठिकाने बना रखे हैं। यहां वे पहाड़ियों में बनी गुफाओं और जंगलों के बीच बसे गांवों में कुछ स्थानीय लोगों की सहायता से छुप जाते हैं और मौका मिलते ही हमला करते हैं। ये क्षेत्र हाजी पीर दर्रे से लगता है, जो जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ के मुख्य मार्गों में से एक है। 1947 में पाकिस्तानी काबइलियों ने घुसपैठ के लिए इसी मार्ग का उपयोग किया था। उस समय कबाइली आतंकी पुंछ-राजौरी तक घुस आए थे और उनका साथ स्थानीय आतंकियों ने भी दिया था।
जिस दिन महाराजा हरि सिंह जम्मू-कश्मीर के भारत गणराज्य में विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर रहे थे, उसी दिन यानी 26 अक्टूबर 1947 को स्थानीय जिहादी नेता सरदार इब्राहीम खान पाकिस्तान के समर्थन से तथाकथित आजाद सरकार की स्थापना कर रहा था। इन जिहादियों ने पुंछ-राजौरी पर कब्जा कर स्थानीय हिंदुओं और सिखों पर भयंकर अत्याचार किए थे। तमाम महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म हुए थे। हम इस कड़वी सच्चाई से मुंह चुराते रहे हैं कि इन पाशविक अपराधों में द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश फौज में लड़कर लौटे हजारों स्थानीय फौजी भी शामिल थे। वे इब्राहीम खान के जिहादी रिसाले का हिस्सा बन गए और पाकिस्तानी कबीलाई लश्करों और पाकिस्तानी फौज के साथ मिलकर लड़ रहे थे। उनके वैचारिक वंशज आज भी इन इलाकों में सक्रिय हैं।
भारतीय सेना का मानना है कि हाल के हमलों को अंजाम देने वाले अधिकांश आतंकी अफगानिस्तान में जिहादी अभियानों से लौटने वाले हो सकते हैं। प्रश्न यह है कि भला विदेशी आतंकी घने जंगलों में बिना किसी स्थानीय सहायता के महीनों कैसे काट सकते हैं? 21 दिसंबर के हमले के बाद से सेना द्वारा चलाए गए सघन तलाशी अभियान के बावजूद आतंकियों का कोई अता-पता नहीं है। यह ध्यान रहे कि पीर-पंजाल के पहाड़ों पर फैले घने जंगलों में से होकर हाजी पीर दर्रे के जरिये न सिर्फ घुसपैठ अपेक्षाकृत सुगम है, बल्कि गुलाम कश्मीर वापस लौटना भी आसान है। इसके चलते दोनों ओर बसे जिहादी तत्वों के संपर्क दशकों से बने हुए हैं। घुसपैठ और निकासी के लिए अधिकतर स्थानीय घुमंतू बकरवाल जनजाति के चरवाहों का बतौर गाइड इस्तेमाल किया जाता है।
हालांकि इस जनजाति के लोग भारतीय सेना की भी खुफिया जानकारी इकट्ठा करने में मदद करते आए हैं, परंतु भारत द्वारा कभी भी आतंकवाद के वैचारिक मूल को समाप्त करने पर ध्यान न दिए जाने के चलते इस घुमंतू जनजाति का भी कट्टरपंथी मौलानाओं द्वारा जिहादीकरण किया जा रहा है। हालिया आतंकी हमले के बाद इसी जनजाति के कुछ लोगों पर आतंकियों के लिए मुखबिरी का शक जताते हुए पूछताछ के लिए बुलाया गया था, जिनमें से तीन के शव मिले। इस मामले में जांच जारी है। याद रहे कि तबलीगी जमात और अहले हदीस जैसे कट्टरपंथी संगठनों के बेलगाम मजहबी प्रचार के चलते इन जनजातियों के अनेक लोग कट्टरपंथी हो चुके हैं। अगर कट्टरपंथ को पैर पसारने से नहीं रोका गया तो ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं की पुनरावृत्ति होती रहेगी। सिर्फ राजनीतिक तरीकों से जिहादी आतंक को समाप्त नहीं किया जा सकता।
लगातार आतंकी हमलों के बाद सेना की दो और ब्रिगेड को पुंछ- राजौरी में भेजे जाने की चर्चा है। इससे 2002-03 में भारतीय सुरक्षा बलों द्वारा पीर पंजाल के पहाड़ों में बने आतंकी ठिकानों को ध्वस्त करने के लिए चलाए गए आपरेशन सर्पविनाश की यादें ताजा होती हैं। उस आपरेशन में स्थानीय जनजातीय नेता फजल दीन ताहिर की मिलीशिया ने भी भारतीय सेना का साथ दिया था, जिसमें 78 आतंकी मारे गए थे और उनके 73 ठिकाने नष्ट किए गए थे। उस समय करीब 200 आतंकी वापस गुलाम जम्मू-कश्मीर भागने में सफल रहे थे। इसका बड़ा कारण पाकिस्तान का हाजी पीर दर्रे पर नियंत्रण है।
1965 के युद्ध में पाकिस्तानी फौज द्वारा छंब पर हमले की स्थिति में भारतीय सेना ने आगे बढ़कर इस सामरिक दर्रे पर कब्जा कर लिया था, जिससे आतंकियों के जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ का सबसे बड़ा मार्ग हमेशा के लिए बंद होने वाला था। भारत ने लड़ाई में हासिल बढ़त को वार्ता की मेज पर गंवाते हुए ताशकंद समझौते के तहत इस दर्रे को पाकिस्तान को लौटा दिया। अगर हमें समस्या का स्थायी हल चाहिए तो नियंत्रण रेखा को बदलने का मन बनाना ही होगा, अन्यथा आतंकी हमारे लिए सिरदर्द बने ही रहेंगे।
(लेखक काउंसिल आफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)
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