जागरण संपादकीय: स्वच्छता अभियान में हो सभी की भागीदारी, सफाई को भी स्कूली काम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए
इस धारणा का अंत करना ही होगा कि शौचालय या सार्वजनिक स्थल पर साफ-सफाई करने से किसी व्यक्ति का सामाजिक रुतबा समाप्त हो जाता है। श्रेष्ठताबोध और हीनता की भावना से जुड़े इस रवैये को बदलना ही होगा। मोदी के अतिरिक्त किसी अन्य नेता में वह क्षमता नहीं जो इस परिवर्तन के अग्रदूत बन सकें। यदि वह ऐसा करने में सक्षम रहेंगे तो इतिहास में उनका अमिट स्थान बन जाएगा।
विवेक काटजू। गत दिवस राज्यसभा में यह जानकारी दी गई कि स्वच्छ भारत मिशन के तहत दशकों पुराने करीब 2,424 कूड़ा स्थलों में से 701 का कूड़ा हटाया जा चुका है, जबकि 1,179 कूड़े के टीलों को समतल करने का काम अभी प्रगति पर है। इससे यह पता चलता है कि स्वच्छ भारत मिशन को सफल बनाने के लिए अभी कितना काम किया जाना बाकी है।
स्वच्छता को कोई प्रक्रिया या परिणाम न कहकर संस्कार की संज्ञा देना उचित होगा। इसका ज्ञान मुझे अपने श्वसुर जी से मिला था। उन्होंने मुझे सिखाया था कि गंदा करना हमारा अधिकार है और साफ करना किसी और की जिम्मेदारी, जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक हमारा देश-समाज तरक्की नहीं कर पाएगा।
स्वच्छता के संस्कार से मेरा अगला साक्षात्कार मेरी विदेश में नियुक्ति के दौरान हुआ, जहां मैंने पाया कि सार्वजनिक स्थलों और यहां तक कि धनी एवं शक्तिशाली लोगों के यहां साफ-सफाई का जिम्मा किसी एक विशेष सामाजिक वर्ग का नहीं था। कई देशों में तो स्कूल और अभिभावक ही बच्चों को यह शिक्षा देते हैं कि पर्यावरण को स्वच्छ रखना उनकी जिम्मेदारी है।
मलेशिया में 1990 से 1993 के बीच नियुक्ति के दौरान मैं भारतीय मूल के एक वकील के संपर्क में आया। वह कुष्ठ निवारण अभियान के साथ भी तन्मयता से जुड़े हुए थे। उन्होंने मुझे एक रोचक वाकया सुनाया। वकालत से पूर्व वह मलेशिया के एक प्रतिष्ठित स्कूल में अध्यापक थे। उस स्कूल में कुलीन परिवारों, जिनमें शाही परिवारों के बच्चे भी शामिल थे, पढ़ते थे। स्कूल में एक व्यवस्था बनी हुई थी कि छात्रों का समूह शौचालयों की भी सफाई करेगा।
शिक्षकों का समूह इस गतिविधि की निगरानी करता था, जो खुद बारी-बारी से साफ-सफाई का काम करते थे। ऐसी ही एक स्वच्छता गतिविधि के दौरान उन्होंने देखा कि शाही परिवार से जुड़ा एक बच्चा शौचालय की सफाई नहीं कर रहा था, जबकि उसके समूह के अन्य छात्र स्वच्छता कार्य में जुटे थे। पड़ताल करने पर पता चला कि वह दूसरे छात्रों को पैसे देकर अपने हिस्से की सफाई से बच निकलता था। मेरे मित्र ने उस छात्र को तलब किया।
उन्होंने छात्रों को निर्देश दिया कि इस बार समूह का कोई अन्य छात्र सफाई नहीं करेगा और पूरे शौचालय उसी को साफ करने पड़ेंगे, जो अब तक इससे बचता आया था। चूंकि उस बच्चे के पिता एक देश के सुल्तान थे, जिनकी अनुशासनप्रियता प्रसिद्ध थी, इसलिए स्वाभाविक था कि उसने यह सुनिश्चित करना ही बेहतर समझा कि यह किस्सा उसके पिता तक न पहुंचे।
इस प्रकार उसने सफाई के निर्देश का पालन किया। इससे मुझे यही सीख मिली कि विश्व के प्रतिष्ठित स्कूलों में संपन्न लोगों के बच्चों से भी शौचालय साफ कराए जाते हैं और उन्हें सिखाया जाता है कि कोई भी काम गंदा या निचले स्तर का नहीं होता। यह भारतीय समाज से बहुत अलग रवैया था।
आप मानें या न मानें, लेकिन भारत में इससे जुड़े रवैये की जड़ें कहीं न कहीं हमारी जाति व्यवस्था से जुड़ी हैं। अच्छी बात है कि स्वतंत्रता के बाद जाति से जुड़े अस्पृश्यता के पहलू को आपराधिक कानून बना दिया गया, लेकिन व्यवहार में वह रवैया किसी न किसी रूप में कायम रहा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस स्थापित धारणा को अपने क्रियाकलापों से चुनौती देने की दिशा में कदम बढ़ाए, जब उन्होंने स्वच्छ भारत अभियान को आरंभ किया। भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के दृष्टिकोण से भी यह परिवर्तन आवश्यक है।
देश वास्तव में तभी स्वच्छ हो सकता है, जब प्रत्येक व्यक्ति यह समझे कि पर्यावरण को स्वच्छ रखना उसका भी दायित्व है, जो किसी वर्ग विशेष या समुदाय की बंधी हुई जिम्मेदारी नहीं। यह दारोमदार केवल घरों को साफ रखने तक ही सीमित नहीं होगा, बल्कि इसमें व्यापक पर्यावरण को स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी निहित होगी। ऐसी अनुभूति आरंभ से ही जगाई जा सकती है जिसके लिए स्कूलों से शुरुआत करना श्रेयस्कर होगा।
जापानी स्कूलों में बच्चे अपने क्लास रूम, स्कूल और यहां तक कि शौचालय भी साफ करते हैं। सिंगापुर में स्कूलों की साफ-सफाई छात्रों के जिम्मे है। जहां यह काम पेशेवर स्वच्छताकर्मी करते हों, वहां यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वे किसी विशेष सामाजिक वर्ग से ही न हों। भारत में भी समय आ गया है कि सरकारी और निजी स्कूलों में स्वच्छता की कमान छात्र ही संभालें। भारतीय समाज के स्वरूप को देखते हुए शौचालयों की सफाई को भी स्कूली काम का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।
एक निश्चित आयु वर्ग के बाद बच्चों को इस काम में लगाया जा सकता है। इस आयु सीमा का निर्धारण विशेषज्ञ कर सकते हैं। ऐसी कोई भी पहल भारत में सदियों से कायम सामाजिक विसंगतियों पर प्रहार करेगी। इस बीच यह भी ध्यान रहे कि बच्चों को ऐसे स्वच्छता कार्य में लगाने से पहले उन्हें रबर बूट्स, ग्लव्स, मास्क और हेड कवर जैसे पर्याप्त सामान भी उपलब्ध कराने होंगे ताकि उनके स्वास्थ्य को कोई क्षति न पहुंचे।
अपनी विराट लोकप्रियता के जरिये प्रधानमंत्री मोदी ऐसे किसी भी अभियान को गति देकर उसे सफल बना सकते हैं। गांव-गांव में घर-घर शौचालय का निर्माण स्वच्छता के प्रति उनके समर्पण एवं जनकल्याण को लेकर उनकी जिजीविषा का प्रतीक है। इसी क्रम को आगे बढ़ाते हुए उन्हें स्कूलों में बच्चों द्वारा शौचालय साफ करने के मुद्दे पर भी कोई सहमति बनाने के प्रयास करने चाहिए।
इसे लेकर संदेह है कि गांधीजी और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर स्वच्छता की जिस मुहिम को लेकर स्वयं सक्रिय एवं समर्पित रहे, उसका कोई राजनीतिक दल विरोध करने का जोखिम उठाएगा। हालांकि कुछ सामाजिक नेता और समूह जरूर इसके विरोध में आगे आएंगे, जिसकी जड़ में समाज का सदियों पुराना सोच होगा।
इस धारणा का अंत करना ही होगा कि शौचालय या सार्वजनिक स्थल पर साफ-सफाई करने से किसी व्यक्ति का सामाजिक रुतबा समाप्त हो जाता है। श्रेष्ठताबोध और हीनता की भावना से जुड़े इस रवैये को बदलना ही होगा। मोदी के अतिरिक्त किसी अन्य नेता में वह क्षमता नहीं, जो इस परिवर्तन के अग्रदूत बन सकें। यदि वह ऐसा करने में सक्षम रहेंगे तो इतिहास में उनका अमिट स्थान बन जाएगा।
(लेखक पूर्व राजनयिक हैं)
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