[ मृणालिनी झा और अमित बसोले ]: आज देश कोरोना की दूसरी लहर के कारण युद्ध स्तरीय संकट के दौर से गुजर रहा है। इस स्थिति में डूबती सांसों के बीच प्राणों को बचाना ही हमारा एकमात्र ध्येय होना चाहिए, लेकिन इसके पश्चात बचा ली गई और बड़ी संख्या में उजड़ गई जिंदगियों को वापस पटरी पर लाने की अहमियत से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। हालांकि कोरोना के आने के पहले भी हमारे हालात कुछ अच्छे नहीं थे। भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले कई दशकों की अपनी सबसे लंबी मंदी के दौर से गुजर रही थी। और फिर विरासती समस्याएं तो थी हीं, मसलन रोजगार सृजन की धीमी दर और कामगार तथा कार्यस्थलों की स्थिति में सुधार के प्रति राजनीतिक प्रतिबद्धता का अभाव। सच कहें तो बगैर किसी सामाजिक सुरक्षा के कामकाजी वर्ग का एक बड़ा तबका किसी आकस्मिक संकट का सामना करने की स्थिति में नहीं था। इन सबके बावजूद धीमी रफ्तार से ही सही, देश का आर्थिक विकास तो हो ही रहा था। अर्थशास्त्रियों के आकलन के हिसाब से एक साल में करीब पांच करोड़ लोग न्यूनतम मजदूरी आय सीमा (375 रुपये प्रति दिन) के ऊपर आ जाते, लेकिन इस महामारी ने न केवल ऐसा नहीं होने दिया, बल्कि इस आय सीमा से ऊपर के करोड़ों लोगों को नीचे भी धकेल दिया।

देश के बदतर होते हालात

आज जब देश की 98 फीसद आबादी फिर से किसी न किसी प्रकार की तालाबंदी के साए में आ चुकी है तो सरकार का पहला और सबसे बड़ा दायित्व पिछले साल की त्रासदी की पुनरावृत्ति को रोकना होना चाहिए। हालांकि आय में गिरावट चौतरफा हुई, फिर भी महामारी की मार गरीब घरों पर ज्यादा पड़ी है। सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार गत वर्ष अप्रैल और मई के महीनों में सबसे ज्यादा गरीब 20 फीसद परिवारों ने कुछ भी नहीं कमाया था। जबकि समृद्ध परिवारों की आमदनी में गिरावट महामारी पूर्व की तुलना में एक चौथाई से भी कम हुई थी। साथ ही मार्च-अक्टूबर के दौरान सबसे गरीब 10 फीसद परिवारों को 15,700 रुपये प्रति परिवार के हिसाब से नुकसान हुआ। यह रकम उनकी दो महीनों की आय से कुछ ज्यादा ही है। जहां नौकरियां बची रहीं या फिर वापस मिल गईं, वहां भी आमदनी पहले जैसी नहीं रही। बदतर होते हालात का एक अहम पहलू था लोगों की आय में आई भारी गिरावट। परिवारों ने कम खाना खाकर, उधार लेकर और परिसंपत्तियों को बेचकर इस संकट से जूझने की कोशिश की।

मनरेगा ने ग्रामीण क्षेत्रों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई 

सरकारी राहत से संकट के सबसे भयानक रूपों से बचाव तो हुआ, लेकिन सहायता के उपायों की पहुंच अधूरी रही और कुछ सबसे कमजोर वर्ग उनसे वंचित रहे। जाहिर है कि देश में अतिरिक्त सरकारी सहायता की अभी दो कारणों से तत्काल आवश्यकता है। पिछले वर्ष के दौरान हुए नुकसान की भरपाई और दूसरी लहर के आशंकित प्रभाव से बचाव के लिए। इस संबंध में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत सभी लाभार्थियों को भारत सरकार लगातार अन्न और दालें उपलब्ध कराने का बेहद जरूरी काम कर रही है। इस कार्यक्रम को कम से कम इस साल के अंत तक जारी रखने की जरूरत है। जून 2021 के बाद इसे बंद कर देने से हालात संभल नहीं पाएंगे और किए-कराए पर काफी हद तक पानी फिर जाने करने की आशंका रहेगी। यथासंभव अधिक से अधिक खस्ताहाल परिवारों को तीन महीने के लिए 5,000 रुपये नकद दिए जाने चाहिए। देखा जाए तो मनरेगा ने ग्रामीण क्षेत्रों में सुरक्षा कवच के रूप में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

मनरेगा में 150 दिनों का विस्तार हो और मजदूरी न्यूनतम मजदूरी स्तर पर लाई जाए

आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार नवंबर 2020 तक 252 करोड़ से अधिक व्यक्ति-दिवस के कार्य संपन्न हुए, जो पिछले वर्ष की तुलना में 43 फीसद अधिक हैं। मनरेगा में पिछले वर्ष की तुलना में एक करोड़ अधिक परिवारों ने काम किया, लेकिन कई लोगों को काम चाहते हुए भी नहीं मिला। पिछले साल अप्रैल के बाद से उन ग्रामीणों में से केवल 55 प्रतिशत को ही काम दिया जा सका था, जो काम की मांग कर रहे थे। इसके अलावा जिन्हेंं काम मिला वे और अधिक दिन काम करना चाहते थे। ऐसे में जरूरी है कि मनरेगा की पात्रता में 150 दिनों का विस्तार हो और इसकी मजदूरी बढ़ाकर राज्य की न्यूनतम मजदूरी स्तर पर लाई जाए। इसके लिए इसके बजट को बढ़ाकर कम से कम 1.75 लाख करोड़ रुपये तक करना होगा। साथ ही सर्वाधिक प्रभावित जिलों में महिला श्रमिकों पर केंद्रित एक शहरी रोजगार कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए। इसके अलावा वृद्धावस्था पेंशन में केंद्रीय योगदान में कम से कम 500 रुपये की बढ़ोतरी होनी चाहिए।

आंगनबाड़ी और आशा के 25 लाख कार्यकर्ताओं को कोविड कठिनाई भत्ता मुहैया कराया जाए

आंगनबाड़ी और आशा के 25 लाख कार्यकर्ताओं को छह महीने के लिए 30,000 रुपये (5,000 रुपये प्रति माह) का कोविड कठिनाई भत्ता मुहैया कराया जाना चाहिए। इन उपायों पर लगभग 5.5 लाख करोड़ रुपये का अतिरिक्त खर्च आएगा, जिससे कोविड राहत पर कुल राजकोषीय परिव्यय दो वर्षों में सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 4.5 प्रतिशत हो जाएगा। संकट की भयावहता को देखते हुए इतना बड़ा वित्तीय प्रोत्साहन बिल्कुल उचित है।

तहस-नहस होती अर्थव्यवस्था और बर्बादी के कगार पर खड़े लोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

यह समझा जाना चाहिए कि तहस-नहस होती अर्थव्यवस्था और बर्बादी के कगार पर खड़े लोग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक को दूसरे से अलग करके देखा नहीं जा सकता। अगर हमारी नीतियां लोगों की सिमटती आमदनी और जाते रोजगार को वापस पूर्वस्थिति पर बहाल करने में कामयाब रहती हैं तो नि:संदेह अर्थव्यवस्था भी पटरी पर आती नजर आएगी।

  

( लेखक अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं )