दुष्यंत सिंह। गत 26-27 जून की रात जम्मू एयरफोर्स स्टेशन पर दो धमाके सुनाई दिए। इन धमाकों से आसपास रहने वाले जम्मू शहर के लोग सहमे तो होंगे, पर यहां के लोगों ने बहुत आतंकी हमले ङोले हैं और इसलिए वे शायद ही अचंभित हुए हों। जम्मू का एयरपोर्ट वायु और थल सेना की छावनियों के बीच स्थित है। इस कारण भारतीय थल सेना के सुरक्षाकर्मी भी इसके चारों तरफ तैनात रहते हैं। इसी कारण जम्मू हवाईअड्डे में जमीनी घुसपैठ कर हमला करना बहुत मुश्किल है। शायद यही कारण था कि एयरफोर्स बेस को हवाई मार्ग से ड्रोन द्वारा निशाना बनाने की कोशिश की गई।

यह हमला एयरफोर्स स्टेशन के टेक्निकल एरिया में हुआ, जिसमें एक इमारत की छत को हानि पहुंची और वायु सेना के एक वारंट अफसर एवं एक वायु सैनिक को मामूली चोट लगी। इस हमले का निशाना शायद टेक्निकल एरिया में खड़े सेना के हेलीकाप्टर थे। ड्रोन से हमला बहुत ही सस्ता और सुरक्षित तरीका है। इसमें हमला करने वालों के लिए जोखिम न के बराबर होता है। अगर यह हमला सफल हो जाता तो हमारा अत्यधिक नुकसान होता, साथ ही देश की साख को भी धक्का लगता। यह हमला शायद छोटे ड्रोन से किया गया। इस तरह के ड्रोन आसानी से एक जगह से दूसरी जगह ले जाए जा सकते हैं और उनका रडार द्वारा पता लगाना बहुत ही मुश्किल होता है। इस हमले का अंजाम और भी भयानक हो सकता था, अगर ड्रोन उच्च क्षमता के विस्फोटकों से लैस होते। मेरा अनुमान है कि अगली बार विस्फोटक की मात्र और उसका प्रकार अलग होगा। अभी तो इस हमले में केवल दो ही ड्रोन इस्तेमाल किए गए। अगली बार शायद ज्यादा ड्रोन इस्तेमाल किए जाएं।

यह देखा गया है कि कई बार ड्रोन अपने विस्फोटक के साथ ही लक्ष्य से टकरा जाते हैं। इसे हम कामीकाजे ड्रोन हमला भी कहते हैं। दूसरे महायुद्ध में जापानी पायलट्स अपने हवाईजहाज को पानी के बड़े-बड़े जहाजों में जानबूझकर क्रैश करा देते थे, ताकि वे हर हाल में नष्ट हो जाएं। जम्मू एयरफोर्स स्टेशन पर हमले के बाद जिस तरह शहर में लगातार ड्रोन मंडराते दिख रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि अगली बार पाकिस्तानी सीमा से लगे हवाईअड्डे जैसे श्रीनगर, उधमपुर, पठानकोट और अमृतसर निशाने पर हो सकते हैं। ड्रोन से आतंकी अपने साजो-सामान को बहुत आसानी से भेज सकते हैं। यह हमारे लिए खतरे की एक बड़ी घंटी है। इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि अतीत में ड्रोन के जरिये हथियार और नशीले पदार्थ भेजने की कोशिश की गई है। हमें तभी सतर्क हो जाना चाहिए था।

दुनिया में काफी दिनों से ड्रोन हमले हो रहे हैं। ये हमले स्टेट और नॉन स्टेट एक्टर्स, दोनों ही कर रहे हैं, पर भारत में किसी सैन्य ठिकाने पर ड्रोन हमला पहली बार हुआ है। अमेरिका, रूस, इजरायल, चीन और तुर्की ड्रोन के इस्तेमाल और उसकी तकनीक में बहुत माहिर हैं। अमेरिका ने अफगानिस्तान और सीरिया में न जाने कितने आतंकियों को ड्रोन हमले के जरिये मारा है। इसी तरह तुर्की ने सीरिया के साथ-साथ अजरबैजान एवं आर्मेनिया की लड़ाई में इनका सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया है। ड्रोन हमलों को नाकाम करने के लिए सर्विलांस, इंटेलीजेंस, इंटीग्रेटेड एयर डिफेंस की अत्यधिक आवश्यकता है। हमारा इंटेलीजेंस तंत्र अभी उतना सक्षम नहीं, जितना होना चाहिए। हमें लो लेवल रडार और आधुनिक नाइट विजन यंत्रों की भी सख्त जरुरत है, खास तौर पर सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील ठिकानों पर। हमारे ऐसे ठिकानों पर अक्सर डिफेंस सíवस कोर के व्यक्तियों की तैनाती होती है। ये जवान बहुत ही कर्तव्यपरायण होते हैं, पर उनकी उम्र ज्यादा होती है। इसलिए सीमावर्ती क्षेत्रों के महत्वपूर्ण ठिकानों पर वायु सेना को एक बेहतर फोर्स खड़ी करनी पड़ेगी, ताकि इस तरह के हमलों की काट की जा सके।

इसके अलावा हमारे पास इसकी भी क्षमता होनी चाहिए कि यदि हम ड्रोन को देख लें तो फिर उन्हें मार गिराएं। ड्रोन हमलों को नाकाम करने के लिए हम जैमर्स सरीखे इलेक्ट्रानिक सिस्टम का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। दक्षिण कोरिया में एक आधुनिक जैमिंग सिस्टम का टेस्ट किया जा रहा है, जो छोटे ड्रोन हमले को नाकाम कर सकता है। इसी तरह ब्रिटेन के ब्राइटस्टार सर्विलांस सिस्टम ने पिछले साल सितंबर में एक नया रडार ए 800 3डी नाम से लांच किया है। यह छोटे ड्रोन को डिटेक्ट कर सकता है। विशेषज्ञों के मुताबिक इसे बॉर्डर मैनेजमेंट और मिलिट्री सिस्टम में आसानी से सम्मिलित कर सकते हैं। अमेरिका भी एक हाई एनर्जी लेजर सिस्टम पर काम कर रहा है, जिससे छोटे ड्रोन को नाकाम किया जा सकता है। इसी तरह जब ड्रोन एकदम नजदीक आ जाए, तब एक अन्य ड्रोन द्वारा ही उसे नष्ट करने के लिए इजरायल और अमेरिका ने मिलकर एक तकनीक विकसित की है। स्काईलार्ड नामक इस तकनीक में ड्रोन में एक जाल होता है, जो दुश्मन के ड्रोन को उसमें फंसाकर नाकाम कर देता है।

चूंकि इस तरह की उन्नत तकनीक को खरीदने या विकसित करने में समय लगेगा इसलिए हमें मशीनगन के जरिये ड्रोन को नष्ट करने की क्षमता विकसित करनी होगी। हालांकि यह इतना आसान नहीं है, पर अगर सही ट्रेनिंग दी जाए तो यह तरीका असरदार हो सकता है। जब तक ड्रोन नष्ट करने की तकनीक हासिल नहीं की जाती तब तक हमें पारंपरिक हवाई सुरक्षा के तरीकों को ही अमल में लाना होगा। ड्रोन हमलों की तुलना हम एक हवाई गुरिल्ला युद्ध से कर सकते हैं। इनकी काट भी एक गुरिल्ला युद्ध की तरह ही करनी होगी। यदि सीमा से लेकर संवेदनशील ठिकानों तक की हवाई और जमीनी सर्विलांस के साथ खुफिया तंत्र को मजबूत किया जा सके तो हमें ड्रोन हमलों से निपटने में काफी सफलता मिल सकती है।

(लेखक सेवानिवृत्त लेफ्टीनेंट जनरल हैं)