तरुण गुप्त। दिसंबर का अंत और जनवरी का आरंभ अमूमन वर्ष का वह दौर होता है, जब चिंतन और कल्पनाएं हावी रहती हैं। आप अतीत का पुनरावलोकन करने के साथ ही भविष्य की ओर दृष्टि डालने का भी प्रयास करते हैं। लोगों की एक मूलभूत आकांक्षा यही होती है कि भविष्य, अतीत और वर्तमान से बेहतर हो। आने वाले कल को लेकर हमारी अभिलाषा अक्सर हमारे बीते हुए कल या आज से जुड़ी होती है।

किसी समाज के संदर्भ में प्रगतिशील भविष्य का परिदृश्य वर्तमान कठिनाइयों के गहन मूल्यांकन से आकार लेता है। एक ऐसा मूल्यांकन, जिसमें संवेदनशीलता के भाव का समावेश होने के साथ ही उसके केंद्र में आम आदमी होना चाहिए। आखिरकार किसी भी प्रकार की वृहद एवं व्यापक योजनाएं तभी फलीभूत हो सकती हैं, जब उसके सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू भलीभांति सुसंगत हों।

यदि अपने देश की बात करें तो हमारे लिए स्वाभाविक रूप से सबसे आकर्षक लक्ष्य अपने जीवनकाल में ही भारत को विकसित देशों की श्रेणी में देखना होगा। इस उम्मीद को सहारा देने के लिए हमारे पास कई आधार हैं। हमारी अर्थव्यवस्था विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज गति से वृद्धि कर रही है। वृद्धि की इसी रफ्तार के आधार पर कुछ ही समय में वह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की पदवी प्राप्त कर लेगी।

अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार का सकारात्मक प्रभाव हर वर्ग को किसी न किसी प्रकार से लाभान्वित कर रहा है। व्यापक आर्थिक संकेतक मजबूत हैं। भविष्य की तस्वीर उम्मीदों से भरी नजर आती है। राजनीतिक स्थिरता एवं स्थायित्व, लोकतांत्रिक मूल्य, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव और सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों के प्रति मौजूदा सरकार की प्रतिबद्धता से कम से कम यह भरोसा तो होता ही है कि हम विकसित राष्ट्र बनने की सही दिशा में अग्रसर हैं।

एक बेहतर भविष्य के सपने के बीच हमें वर्तमान वास्तविकता एवं परिस्थितियों को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए। संप्रति, हम निम्न-मध्यम आय वाले देश हैं, जहां प्रमुख क्षेत्रों में विकास की भारी कमी दिखती है। किसी भी समाज में आय असमानता को दर्शाने वाले पैमाने यानी गिनी गुणांक के स्तर पर हमारे देश की स्थिति बहुत अच्छी नहीं। मानव विकास सूचकांक और प्रति व्यक्ति आय के स्तर पर भी हमारी स्थिति बहुत लचर है। यह हमारी अपेक्षाओं और वास्तविकता के अंतर को दर्शाता है। दुनिया में हमसे कई छोटे और अल्प संसाधनों वाले देश हैं, जो विभिन्न सामाजिक मानकों पर हमसे बेहतर स्थिति में हैं।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अनेक उपलब्धियों के बावजूद निराश करने वाले पहलुओं की भी कमी नहीं है। स्मरण रहे कि गड़बड़ियों को चिह्नित करना और उन्हें सुधारने के लिए प्रयासरत रहना ही किसी सभ्य समाज के लिए पहला आवश्यक कदम होता है। हमारी निराशा का सबसे बड़ा कारण तो इतनी बड़ी संख्या में होने वाली अप्राकृतिक एवं असामयिक मौतें हैं।

यूं तो मृत्यु मानव जीवन का अवश्यंभावी सत्य है, लेकिन हम अपने इर्दगिर्द तमाम ऐसे हादसे देखते हैं, जिनसे सतर्कता, सावधानी एवं व्यवस्था में सुधारकर आसानी से बचा जा सकता था। उदाहरण के लिए सड़क दुर्घटनाओं का हमारा रिकार्ड सबसे खराब है। वर्ष दर वर्ष सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाने और घायल होने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। हम उच्च श्रेणी के राजमार्ग तो बना रहे हैं, लेकिन उनके अनुरूप यातायात अनुशासन या प्रवर्तन सुनिश्चित करने में विफल रहे हैं। ऐसे में सड़क दुर्घटनाओं की बढ़ती संख्या पर कोई हैरानी नहीं होती। बिजली का करंट फैलने की घटनाएं बहुत आम हैं।

गत वर्ष राष्ट्रीय राजधानी के नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एक शिक्षिका की करंट लगने से मौत हो गई थी। हाईटेंशन तारों को भूमिगत करने की योजना पर अभी अपेक्षित प्रयास नहीं किए गए हैं। अशोधित पानी और अपशिष्ट सामग्री खुले नालों में बहती रहती है। इन खुले नालों में गिरकर हर साल तमाम लोग असामयिक मृत्य के शिकार हो जाते हैं। ये नाले प्रदूषण फैलाने के साथ ही भूमिगत जल को भी दूषित करते हैं। हर बरसात में जहां पर्वतीय इलाकों में भूस्खलन से तबाही मचती है, वहीं शहरों में होर्डिंग्स और बिजली के खंभे एवं तार यहां-वहां गिरने से मानव जीवन को क्षति पहुंचना एक आम घटना हो गई है।

पिछले कुछ समय से आवारा कुत्तों और बंदरों के आतंक की खबरें भी अक्सर आती रहती हैं। उनका आतंक इतना बढ़ गया है कि इंसानी जान मुश्किल में पड़ रही है। पड़ोसियों के खूंखार पालतू कुत्तों द्वारा लोगों को निशाना बनाए जाने जैसी घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। जंगल की सीमा से सटे गांवों में बाघ और तेंदुओं के हमलों की घटनाओं में बढ़ोतरी के अलावा शहरी इलाकों में जंगली जानवरों की बढ़ती दस्तक लाचार लोगों के समक्ष अस्तित्व के एक अकल्पनीय संकट का संकेत करती है। समय के साथ मानव-पशु संघर्ष निरंतर बढ़ता जा रहा है।

क्या किसी विकसित देश में इस प्रकार की दयनीय स्थितियों को अनदेखा या सहन किया जा सकता है? किसी भी संपन्न या सभ्य समाज में कोई भी अप्राकृतिक मौत अस्वीकार्य है। ऐसी मौतों को पूर्ण रूप से रोक पाना संभव न हो, तो भी हमें उनकी संख्या को घटाने के लिए हरसंभव प्रयास करने चाहिए। ऐसी हृदयविदारक त्रासदियों की रोकथाम सत्ताधीशों की शीर्ष प्राथमिकता होनी चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि विकसित राष्ट्र बनने के लिए समृद्ध होना आवश्यक है। फिलहाल हमारी प्रति व्यक्ति आय 2,500 डालर सालाना है। जबकि समृद्ध देशों के लिए यह स्तर लगभग 13,000 डालर है। स्पष्ट है कि इतना लंबा सफर तय करने के लिए हमें व्यापक स्तर पर अथक प्रयास करने होंगे।

मौजूदा सरकारें तमाम जटिल मुद्दों से भले ही घिरी हों, फिर भी उनके साथ कुछ मूलभूत विषयों पर ध्यान देना भी उतना ही आवश्यक है। अक्सर बड़ी उपलब्धियों की त्वरित प्राप्ति नहीं होती। उनके लिए निरंतर रूप से छोटे-छोटे प्रयास करने होते हैं। यदि हम साधारण पहलुओं पर ध्यान दें तो असाधारण उपलब्धियां स्वत: सिद्ध हो जाएंगी। हर वर्ष की तरह इस वर्ष से भी हमारी अनेक अपेक्षाएं हो सकती हैं, फिर भी हमें कम से कम अप्राकृतिक-अकारण मानव क्षति को रोकने में सक्षम बनने का प्रयास अनिवार्य रूप से करना चाहिए।