नई दिल्ली, राम माधव। यह पिछली सदी के आखिरी दशक की बात है जब असम में असम गण परिषद सरकार ने राज्य के छह समूहों को अनुसूचित जनजाति यानी एसटी का दर्जा देने की पहल की। इनमें ताई-अहोम, मोरान, मटक, कोच राजबोंगशी आदि जनजाति समूहों के नाम शामिल हैं। इस प्रस्ताव को संसद में खारिज कर दिया गया। कालांतर में किसी अन्य सरकार ने इसमें संशोधन का प्रयास नहीं किया। जब असम में सर्वानंद सोनोवाल के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने कमान संभाली तो इस प्रस्ताव में नई जान आई। राज्य सरकार के हस्तक्षेप के चलते केंद्र को भी इस मसले पर विचार करना पड़ा। इन छह समूहों को एसटी का दर्जा देने संबंधी प्रस्ताव हाल में संसद के समक्ष पेश किया गया। 1996 के उलट अबकी बार इस मुद्दे पर व्यापक सहमति रही जिससे उस सपने के पूरा होने की उम्मीद बंधी जिसका इन समूहों को काफी लंबे अर्से से इंतजार है, लेकिन असम में एसटी के दायरे में पहले से मौजूद जनजातियों के बीच यह दुष्प्रचार कर उन्हें भ्रमित करने की कोशिश की जा रही है कि इन छह समूहों के शामिल होने से उन्हें मिलने वाला लाभ सीमित हो जाएगा, क्योंकि उन्हें ये फायदे उनके साथ साझा करने होंगे। यह पूरी तरह निराधार है। असम में जनजातियों की दो श्रेणियां हैं एक मैदानी जनजाति और दूसरी पर्वतीय जनजाति। नई बनाई गई छह जनजातियों को इनमें से किसी भी समूह में शामिल नहीं किया जाएगा। इसके बजाय ‘नई जनजातियां’ या ‘अन्य जनजातियों’ के रूप में नई श्रेणियां बनाई जाएंगी। उनके लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी।

हालांकि विधेयक में इन मसलों पर स्पष्टता का अभाव है। समझा जा सकता है कि अतिरिक्त कोटा और इसका नामकरण राज्य सरकार का दायित्व है। इस पर मुख्यमंत्री पहले ही आश्वस्त कर चुके हैं कि जैसे ही यह विधेयक पारित होता है वैसे ही सरकार मौजूदा जनजातियों के हितों को सुरक्षित रखने और नई जनजातियों के लिए कोटे का प्रावधान करेगी। अफसोस की बात यही है कि ऐसी दुविधा और दुष्प्रचार असम और पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में इन दिनों बेहद आम हो गया है। न केवल कुछ विशेष राजनीतिक समूह, बल्कि मीडिया और बुद्धिजीवियों का एक तबका भी इस क्षेत्र में असंतोष को हवा देने वाले दुष्प्रचार अभियान में जुटा है।

असम की जनता की लंबे अर्से से चली आ रही नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस यानी एनआरसी की महत्वपूर्ण मांग को पूरा करने का श्रेय भी सोनोवाल सरकार को जाता है। इससे भारी तादाद में बसे अवैध घुसपैठियों की पहचान का दुष्कर काम आसान हुआ है। एनआरसी के अतिरिक्त सोनोवाल सरकार ने केंद्र सरकार को असम समझौते की काफी समय से लंबित धारा 6 को लागू करने के लिए भी राजी किया है। ऐतिहासिक असम समझौते पर हस्ताक्षर हुए तीन दशक से अधिक बीत चुके हैं, लेकिन जिस धारा में इस समझौते का मर्म निहित है उसे ही लागू करने में अभी तक किसी भी सरकार ने कोई खास गंभीरता नहीं दिखाई है। असम समझौते की धारा 6 यह कहती है, ‘असमी जनता की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और विरासत के संरक्षण, परिरक्षण एवं प्रोत्साहन के लिए जो भी संवैधानिक, विधायी एवं प्रशासनिक रक्षोपाय आवश्यक होंगे, वे किए जाएंगे।’

भाजपा और संघ परिवार असम आंदोलन के साथ गहराई से जुड़े रहे हैं। समझौते को लागू करने की अनिवार्यता को पूरा करने की दिशा में मोदी सरकार ने सही भावना के साथ धारा 6 पर अमल करने का फैसला किया है। केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने इसके लिए असम के प्रबुद्ध लोगों की एक समिति गठित करने का फैसला किया है जो इस धारा के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए ‘असमी लोगों’ के लिए विधायिका में आरक्षण सहित सभी मुद्दों पर अपने सुझाव देंगे। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि दुष्प्रचार के चलते समिति के कुछ सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। फिर भी इस राह पर आगे बढ़ने में सरकारी प्रतिबद्धता शिथिल नहीं पड़ी है और वह विभिन्न वर्गों से सुझाव आमंत्रित कर रही है।

नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ झूठ और अफवाहों का ऐसा ही अभियान चलाया जा रहा है। इस विधेयक का मकसद पाकिस्तान (बांग्लादेश) और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों को नागरिकता प्रदान करना है जिनमें हिंदू, बौद्ध, सिख और ईसाई भी शामिल हैं। ये वे लोग हैं जो अपने देश में किसी डर या खौफ के चलते भारत विस्थापित होने के लिए मजबूर हुए। भारत अभी भी धार्मिक आधार पर हुए विभाजन का दंश ङोल रहा है, क्योंकि इसके कारण पंजाब, राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों में सीमा पार से आने वालों का सिलसिला कायम है।

इस पर चिंता जता रहे कुछ लोग वास्तव में सही सूचनाओं और तथ्यों से अनभिज्ञ हैं तो कुछ लोग इस मौके पर राजनीतिक चौका लगाकर उसे अपने पक्ष में भुनाने की फिराक में हैं। अव्वल तो यह विधेयक समूचे देश के लिए है और किसी क्षेत्र विशेष या प्रदेश तक ही सीमित नहीं है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो भारत ने प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को शरण देने में कभी हिचक नहीं दिखाई और उनका सदा स्वागत किया। सीरियाई ईसाई, पारसी और यहूदी यहां आए और भारत ने भी उन्हें खुले दिल से अपनाया। यह विधेयक इसी परंपरा की निरंतरता को ही सुनिश्चित करता है।

विधेयक के दूसरे खास पहलू का अप्रत्यक्ष रूप से यही सार है कि भारत विदेशियों के लिए किसी धर्मशाला जैसा नहीं है कि कोई भी यहां आकर बस जाए। विधेयक की धाराओं के अनुसार नागरिकता केवल उन्हें मिल सकती है जो 31 दिसंबर 2014 के पूर्व से यहां बसे हों। यह पैमाना भी गारंटी नहीं है। आवेदन से पहले आवेदक का भारत में सात वर्षों का प्रवास भी एक शर्त है। इसका अर्थ है कि यदि कोई व्यक्ति 2014 में भारत आया तो नागरिकता के लिए उसे 2021 तक इंतजार करना पड़ेगा। ऐसे लोगों को भारत में कहीं भी बसाया जा सकता है। तीसरा पहलू यह है कि आवेदन की पहले जिला प्रशासन स्तर पर परख की जाएगी और उसकी अनुशंसा पर ही प्रस्ताव को संबंधित विभाग के पास आगे बढ़ाया जाएगा।

असम में इन दिनों यह अफवाह भी फैलाई जा रही है कि बांग्लादेश से करोड़ों अल्पसंख्यक असम में आकर बस जाएंगे। बांग्लादेश में फिलहाल 1.4 करोड़ हंिदूू और केवल 10 लाख बौद्ध हैं। भारत-बांग्लादेश सीमा सील होने के साथ ही सुरक्षित भी है। विधेयक में यह भी स्पष्ट है कि 2014 के बाद भारत आने वाले नागरिकता के पात्र नहीं होंगे। विधेयक को राज्यसभा से मुहर की दरकार होगी जहां विपक्ष बहुमत में है। चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस पार्टी अतीत से ही इस मुद्दे पर राजनीति करती आई है। 2015 में असम में विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस ने बांग्लादेश से असम में आकर बसे हिंदुओं और बौद्धों को नागरिकता देने की मांग की थी। वही पार्टी आज प्रताड़ित लोगों के लिए उठाए जा रहे सरकार के मानवीय कदम का क्षुद्र राजनीतिक हितों के चलते विरोध कर रही है।

(लेखक भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं)