डा. अभिषेक श्रीवास्तव: पश्चिम एशिया के दो बड़े तेल उत्पादक देश और एक-दूसरे के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी रहे ईरान और सऊदी अरब ने चीन की मध्यस्थता के कारण पुनः कूटनीतिक संबंधों को बहाल करने और दूतावासों को फिर से खोलने पर सहमति व्यक्त की है। मालूम हो कि दोनों देशों के बीच तनाव वर्ष 2016 में तब आरंभ हुआ था, जब सऊदी अरब में शिया धर्मगुरु निम्र अल-निम्र के साथ 47 लोगों को आतंकवाद के आरोप में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। उस घटना के बाद ईरान में जबरदस्त विरोध हुआ तथा प्रदर्शनकारी सऊदी अरब के दूतावास में घुस गए। उसके बाद ईरान और सऊदी अरब के बीच व्यापार, निवेश और सांस्कृतिक संबंध खत्म हो गए। फिर दोनों देशों ने एक-दूसरे देशों में अपने दूतावासों को बंद कर दिया।

सऊदी अरब और ईरान, दोनों ही पश्चिम एशिया के ताकतवर देश हैं और क्षेत्रीय प्रभुत्व के लिए वर्षों से एक-दूसरे के खिलाफ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से लड़ रहे हैं। ऐतिहासिक रूप से सऊदी अरब स्वयं को मुस्लिम दुनिया का एकमात्र नेता मानता रहा है, लेकिन 1979 में ईरान में हुई इस्लामिक क्रांति ने उसके इस एकाधिकार को चुनौती दी। सऊदी अरब और ईरान के बीच विवाद की असली वजह दशकों पुराने धार्मिक मतभेद हैं। दोनों इस्लाम के अलग-अलग पंथ को मानते हैं।

ईरान में ज्यादातर शिया मुसलमान हैं, वहीं सऊदी अरब एक सुन्नी बहुल मुस्लिम देश है। यह धार्मिक विभाजन दूसरे पश्चिम एशियाई देशों में भी दिखता है, जहां सुन्नी और शिया मुसलामानों के अलग-अलग समूह हैं। धार्मिक समूहों में बंटे पश्चिम एशिया के कुछ देश समर्थन के लिए ईरान की तरफ देखते हैं और कुछ सऊदी अरब की तरफ। जाहिर है कि लंबे समय से चले आ रहे सऊदी अरब-ईरान के इस संघर्ष को पश्चिम एशिया की स्थिरता के लिए समाप्त करने की आवश्यकता थी, क्योंकि यह न सिर्फ दोनों देशों के लिए, बल्कि क्षेत्रीय शांति के लिए भी नुकसानदेह साबित हो रहा था।

पश्चिम एशियाई क्षेत्र में चीन की दिलचस्पी रातों-रात नहीं बढ़ी है। अपनी वैश्विक भूमिका में विस्तार के लिए चीन कई अंतराष्ट्रीय योजनाएं चला रहा है। वन बेल्ट वन रोड परियोजना के माध्यम से चीन एशियाई और अफ्रीकी देशों में अपनी उपस्थिति दर्ज करने के लिए पिछले दशक से प्रयासरत है।

चीन वन बेल्ट वन रोड पहल के तहत पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह से ईरान के चाबहार बंदरगाह तक ढांचागत निर्माण को बढ़ावा दे रहा है। इसके साथ ही नई सिल्क रोड के तहत चीन-पाकिस्तान इकोनमिक कारिडोर की तर्ज पर तेहरान को शिनजियांग से जोड़ने जा रहा है। इससे चीन मध्य एशियाई देशों (कजाकिस्तान, किर्गिस्तान, उज्बेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान) से होते हुए तुर्की के रास्ते यूरोप तक पहुंचने में सफल होगा।

पश्चिम एशिया में चीन की बढ़ती भूमिका ने अमेरिका और रूस के लिए खतरे कि घंटी बजा दी है। अमेरिका तथा यूरोपीय देशों के रूस-यूक्रेन युद्ध में व्यस्त होने का लाभ उठाते हुए चीन पश्चिमी एशिया में ज्यादा सक्रिय हुआ है। ईरान तथा सऊदी अरब के बीच शांति समझौता कराकर चीन ने वैश्विक जगत में अपनी विश्वनीयता बढ़ने का भी प्रयास किया है।

भारत के दृष्टिकोण से ईरान तथा सऊदी अरब समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। हाल के वर्षों में पश्चिम एशियाई देशों खासकर खाड़ी देशों के साथ भारत ने अपनी सांस्कृतिक एवं व्यापारिक साझेदारी का विस्तार किया है। इसमें संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के साथ व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौता भी शामिल है। ईरान का चाबहार बंदरगाह भारत के लिए महत्वपूर्ण है, जिसके द्वारा भारत की महत्वपूर्ण परियोजना नार्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कारिडोर संचालित होती है। वहीं सऊदी अरब भारत के लिए रणनीतिक तथा व्यापारिक रूप से महत्वपूर्ण है।

भारत ने इस समझौते का स्वागत किया है, लेकिन दोनों देशों के बीच संबंध बहाली नहीं, अपितु पश्चिम एशिया में चीन की उपस्थिति ने भारतीय नेतृत्व को सशंकित करने का भी काम किया है। भारत का पश्चिम एशियाई देशों से काफी खास रिश्ता रहा है। पश्चिम एशिया के देशों में बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीय रहते हैं, जो हर साल लगभग 35-40 अरब डालर भारत भेजते हैं, जबकि चीनी नागरिकों की उपस्थिति इस क्षेत्र में काफी कम है। भारत में बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय की आबादी है, जिस कारण भारत-पश्चिम एशिया के बीच नैसर्गिक साझेदारी संभव है।

वहीं चीन की उइगुर मुसलमानों के प्रति दमनकारी नीति तथा इस्लाम धर्म के प्रति असंतुलित व्यवहार उसको इस क्षेत्र का सहज साझेदार बनने में अड़चन पैदा कर सकता है। पाकिस्तान और श्रीलंका में चीनी हस्तक्षेप के बाद बिगड़ते आर्थिक हालात को देखते हुए सभी देश सशंकित हैं। ऐसे में ईरान में चीन की उपस्थिति भारतीय निवेश एवं सुरक्षा के लिए मुश्किलें पैदा कर सकती है। इसके साथ ही भारत की मध्य एशिया तक होने वाली पहुंच भी बाधित हो सकती है। इस क्षेत्र में चीन की तालिबान से वार्ता भी चल रही है। ऐसे में अफगानिस्तान में तालिबान का लंबे समय तक सत्ता में रहने के प्रबल आसार बन रहे हैं, जिससे भारतीय हित गंभीर रूप से प्रभावित हो सकते हैं।

चीन की इस क्षेत्र में उपस्थिति भारतीय कंपनियों को ईरान और अफगानिस्तान में रणनीतिक निवेश और व्यापारिक संभावनाओं को भी हतोत्साहित कर सकती है। यद्यपि ईरान- सऊदी अरब की संधि के जरिये रूस तथा अमेरिका को पीछे छोड़कर चीन ने अपनी वैश्विक भूमिका प्रदर्शित की है, जिसके द्वारा चीन वैश्विक समुदाय का भरोसा जीतने का प्रयास कर रहा है, परंतु अभी यह अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि इस संधि के बाद पश्चिम एशिया की भू-राजनीति में कितनी स्थिरता आएगी। जो भी हो, पश्चिम एशिया में चीन की दखलंदाजी ने अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक नए आयाम की शुरुआत की है।

(लेखक जेएनयू के अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)