[यतीन्द्र मिश्र] ‘चलता फिरता प्रेत’ अभिनेता और रचनाकार मानव कौल की कहानियों का संग्रह है। यह दिलचस्प है कि अपने अकेलेपन और उदासी को लेखक एक स्वगत संवाद की लड़ियों की तरह इन कहानियों में रखते हैं। दूर तक चुपचाप बिना किसी से कुछ बोले, अकेले ही चलते चले जाने की प्रक्रिया, जिसमें अवसाद कुछ गाढ़ा अवसाद बन जाए। मौन और कुछ बोल देने के बीच फैली हुई जगह में अपनी छूटी हुई ढेरों चीजों को इकट्ठा करने की कोशिश... एक कोई फ्रेम इस तरह से पकड़ना कि दूसरे का सिरा भी हाथ में रह जाने का भ्रम पैदा करे। ‘ब्लू रेनकोट’ कहानी में इस स्थिति को एक जगह देखा जा सकता है- ‘मैं उपन्यास लिखना चाह रहा था, पर वह नहीं हुआ और फिर...’ मैं चुप हो गया। ‘लिखना नाखून हैं, अंगळ्लियां हैं या किसी-किसी के लिए पूरे हाथ हैं। बस! जीना पूरा शरीर है, उसे मत भूलना, पर मुझे लगता है कि मैं जो जी रहा हूं, वह जी नहीं रहा उसे लिख रहा हूं।’ जाहिर है इन कहानियों को कहीं पहुंचने की जल्दी नहीं है। यहां तक कि अपने अंत तक आकर उसका परिणाम जानने में भी दिलचस्पी नहीं। कोई अज्ञात सा भय है या जिज्ञासा... कह नहीं सकते, मगर कहानीकार का अंतर्मन उसके अगल-बगल जैसे मकड़ी के जाले सा कोई उधेड़बुन करता है। मृत्यु के पास बैठकर शांति से अपने पिछले सारे दौर को उदासी से देखने का विस्मय से भरा मनोभाव। हर कहानी का इशारा किसी तरह अंत को तिरोहित करने में सुकून पाता है। फिर वह ‘घोड़ा’ हो, ‘पिता या पुत्र’, हर जगह भाषा में बनती ये अर्थछवियां देखी जा सकती हैं। इस स्थिति को ‘पिता और पुत्र’ कहानी में पकड़ना चाहिए- ‘भीतर नींद नहीं आती है, सो बाहर आ जाता हूं और बाहर आते ही लगता है कि यहां क्यों आ गया? जो भीतर है, वही बाहर है। कोई अंतर नहीं है। वहां वक्त का रेंगना सुनाई देता है और यहां वक्त फैला पड़ा है और दिखाई देता है। भीतर दीवारें ताकता हूं और यहां जमीन पर पड़े रोशनी के टुकड़ों को।’

‘भूमिका’ में मानव कौल इसी बात को थोड़ा काव्यात्मक होते हुए लिखते हैं- ‘सारी कहानियों का अंत तुम्हारे इंतजार की शुरुआत रहा है, कहानियों में तुम पानी हो और जब भी तुमसे संवाद करने की सोचता हूं तो गला सूख जाता है।’ रिश्तों का भावनाओं से एक तरह का उपसंहार बनाते हुए वह समाज के घुटन की एक ऐसी छायाप्रति रचते हैं, जो बाहर की दुनिया में नहीं, बल्कि भीतर के संसार में घटती है। वो मौन का स्थानापन्न भी है और नजदीक आते हुए अंत का स्वागत करने का तरीका भी। हर एक कहानी के पात्र, जिनके संवाद बहुत कम हैं, जान पड़ता है लेखक के मानसिक करघे पर सूत की तरह काते जाते हैं। हर एक किरदार अपनी समग्रता को प्रश्न करता हुआ, खुद से निरपेक्ष और खुद से ही उत्साह में डूबा हुआ दिखाई देता है। एक विचित्र विरोधाभास में फंसा हुआ। मानव कौल इस रूप में थोड़े निर्मल वर्मा तो थोड़े कृष्ण बलदेव वैद बनते हैं। यह आश्चर्य की तरह समझ में आता है कि लेखक इन दोनों की कथा भाषा से प्रेरित है या उनका एक उदार प्रशंसक बनकर उसी भाषा परंपरा में अपने गद्य के लिए भाषा का एक नया विलयन तैयार कर रहा। ‘चलता फिरता प्रेत’ की कहानियां बहुत हद तक निर्मल वर्मा के संस्मरणों और वैद की डायरियों की चुप्पियों में बसती हैं। उन दोनों से ही लगाव बनातीं, मगर दोनों से ही तनी हुई रस्सी की तरह दूरी का अनुपात बरतती हुईं।

इन कहानियों का नैरेटिव अलग से आकर्षित करता है। एक हद तक कहा जा सकता है कि उसकी सबलता ही कहानियों की प्राण है, जिसकी जमीन कल्पना और भावनाओं को जादू के किसी खेल की तरह देखती है। संग्रह की सातों कहानियों में यह कौतुक मौजूद है। मानव कौल स्वीकारते हैं- ‘कई बार मैं पानी के भीतर एक पत्थर को पकड़े बैठा रहता, पर पानी के भीतर के संसार ने मुझे कभी बहुत देर तक स्वीकार नहीं किया... या यूं कहूं कि मैं मछली होने की भरसक कोशिश करता रहा, पर मछली नहीं हो पाया कभी। मेरे लिए लिखना बिलकुल ऐसा ही है एक गहरा गोता लगाना...’ संग्रह में कुछ सूत्रात्मक वाक्य सुभाषित की तरह चमकते हैं। लगता है इन वाक्य संरचनाओं से एक पूरी गद्य कविता आकार ले रही है। यह लेखक की खूबी है कि इस तरह की पंक्तियों से भी गद्य का एक रोचक स्वाद तैयार होता है, जिसे किसी युवा रचनाकार में अधीरता से अलग, इत्मीनान के संदर्भों में पढ़ा जाना चाहिए जैसे, ‘जीवन सरीखा सूरज उसके घर के चक्कर काटता रहा’, ‘मां दिखीं, अपने सपने को मुझे सौंपती हुईं’, ‘भाषा कितना छोटा करके रख देती हर स्वाद को...।’ ये संग्रह ऐसे ही बीहड़ ढंग से भाषा, कल्पना और उदासी को आपस में फेंटकर एक यथार्थ रचता है, जिसके एक छोर पर लेखक का अंतर्मन ठिठका हुआ है।

चलता फिरता प्रेत

मानव कौल

कहानियां

पहला संस्करण, 2020

हिंद युग्म, नोएडा

मूल्य: 200 रुपए