राजीव सचान। नौकरशाही के कार्य-व्यवहार को जानने के लिए चंद दिनों की कुछ चर्चित घटनाओं पर चर्चा करते हैं। कुछ दिनों पहले गुजरात में दो प्रमुख शहरों को जोड़ने वाला एक पुल गिर गया। महिसागर नदी पर बने गंभीरा पुल के दो हिस्सों में टूटने से उस पर चल रहे कई वाहन नदी में गिर गए। इस हादसे में मरने वालों की संख्या 20 तक पहुंच चुकी है।

इस हादसे के बाद शोक संवेदना, जांच, कार्रवाई के वैसे ही स्वर सुनाई दिए, जैसे सुनाई देते रहते हैं। पुल गिरने के लिए कुछ अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया। इन निलंबित अधिकारियों को देर-सबेर बहाल कर दिया जाए तो बड़ी बात नहीं। यह पुल 40 साल पुराना था, लेकिन इतना पुराना पुल बहुत पुराना नहीं होता। आमतौर पर पुल सौ साल तक चल जाते हैं। देश में अंग्रेजों के बने कई पुल कायम हैं, लेकिन भारतीयों के बनाए पुल बनने के पहले ही गिर जाते हैं।

गुजरात में पुल गिरने की घटना की विपक्षी दलों ने खूब निंदा-आलोचना की। उन्हें भाजपा, गुजरात सरकार और मोदी सरकार की आलोचना करने का अवसर मिला था। उन्होंने इसे अच्छे से भुनाया। ऐसा अवसर भाजपा को मिलता है तो वह भी उसे भुनाती। राजनीति में ऐसा होता ही है, लेकिन यदि नेताओं, नौकरशाहों, ठेकेदारों के भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लगी तो आगे भी पुल गिरते रहेंगे। सड़कें भी टूटती-धंसती और जल भराव का शिकार होती रहेंगी। ऐसा मुंबई, बेंगलुरु और यहां तक कि राजधानी दिल्ली में भी होगा।

होगा क्या, हो रहा है। थोड़ी सी बरसात में बड़े महानगरों की सड़कें भी जलमग्न हो जाती हैं। अब तो लोगों ने यह मान लिया है कि बरसात में सड़कों और यहां तक कि हाईवे में भी अतिरिक्त ट्रैफिक जाम का सामना करना उनकी नियति है। देश में न तो सड़कों और पुलों का घटिया निर्माण रुक रहा है और न ही सड़क दुर्घटनाओं में मरने एवं घायल होने वालों की संख्या में कमी आ रही है। इन दिनों जहां भी सामान्य से तनिक अधिक बारिश हो जा रही है, वहां वह मुसीबत बन जा रही है। पहाड़ों में तो ऐसा खास तौर पर हो रहा है।

जब कोई बड़ी घटना घटने के साथ जनहानि हो जाती है तो मुआवजे की भी घोषणा कर दी जाती है, लेकिन सरकारी निर्माण में भ्रष्टाचार पर रोक के प्रभावी उपाय देखने को नहीं मिल रहे हैं। ऐसे उपाय न तो केंद्र सरकार की निर्माण परियोजनाओं में देखने को मिल रहे हैं और न ही राज्य सरकारों की परियोजनाओं में। जहां निर्माण, वहां भ्रष्टाचार आज के भारत की एक कड़वी सच्चाई है। इस सच्चाई से मुंह मोड़ने का कोई मतलब नहीं।

ऐसा नहीं है कि सरकारी निर्माण में भ्रष्टाचार केवल कुछ राज्य सरकारों अथवा केंद्र सरकार तक सीमित है। यह एक राष्ट्रीय सरकारी बीमारी है। यह सही है कि देश में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे का निर्माण हो रहा है। बुनियादी ढांचे का सरकारी निर्माण होने के साथ निजी क्षेत्र में भी निर्माण हो रहा है, लेकिन निर्माण कार्यों के भ्रष्टाचार में सरकार और निजी क्षेत्र में कोई भेद नहीं दिखता। यदि नया बना कुछ टिकेगा ही नहीं, तो नया भारत कैसे बनेगा? देश में तेजी से बहुत कुछ बन रहा है तो वह गिर भी क्यों रहा है? इस निष्कर्ष पर भी नहीं पहुंच जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार केवल निर्माण कार्यों में ही है।

भ्रष्टाचार शासन-प्रशासन के अन्य अंगों में भी है और कहीं-कहीं तो इस हद तक है कि वह देश के लिए गंभीर खतरा बनता जा रहा है। इसका एक ताजा उदाहरण उत्तर प्रदेश के बलरामपुर जिले में मिला। यहां एक कथित फकीर जलालुद्दीन उर्फ छांगुर हिंदू युवतियों को छल-बल से इस्लाम में ला रहा था। इस पीर-फकीर को विदेश से भी पैसा मिल रहा था।

अपने देश में भारत के इस्लामीकरण की सनक से ग्रस्त और भी जलालुद्दीन होंगे और वे भी विदेश से पैसा पाते होंगे, लेकिन बलरामपुर के मामले में सबसे घातक बात यह है कि छांगुर को कुछ सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों का भी संरक्षण प्राप्त था। यह संरक्षण केवल गुनाह ही नहीं, एक तरह से देश से गद्दारी भी है।

इस मामले की जांच हो रही है और शायद उसकी तह तक भी पहुंचा जाए और सभी दोषी लोगों को समय रहते सजा भी मिल जाए। उत्तर प्रदेश के इस मामले में ऐसा होने की उम्मीद भी है, लेकिन अन्य राज्यों और विशेष रूप से सेक्युलर दलों की ओर से शासित राज्यों में तो ऐसा कुछ होने के बारे में सोचना भी कठिन है। यह हैरानी है कि अभी तक कथित सेक्युलर नेताओं और लिबरल लोगों ने यह नहीं कहा कि बेचारे छांगुर को बिना बात परेशान किया जा रहा है।

यदि कोई यह कहे कि केंद्र अथवा राज्यों के स्तर पर नौकरशाही के कामकाज में कहीं कोई सुधार नहीं हुआ और सब कुछ पहले की तरह है तो यह भी सही नहीं होगा। समय के साथ राज्यों से लेकर केंद्र की नौकरशाही के स्तर पर काफी कुछ उल्लेखनीय प्रशासनिक सुधार हुए हैं और लोगों को उनसे राहत भी मिली है, लेकिन यह समझा जाए तो बेहतर कि अभी नौकरशाही में बहुत सुधार की आवश्यकता है। नौकरशाही में बगैर जरूरी सुधार लाए देश को अपेक्षित गति से आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। जिन नेताओं और नौकरशाहों ने सरकारी तंत्र में सुधार लाने में योगदान दिया है और दे रहे हैं, उनकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, लेकिन जिन्होंने योगदान नहीं दिया, उनकी पहचान भी होनी चाहिए।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)