गांधी जी में अपनी छवि देखता समाज, बापू के कामों में झलकती है दूसरों को अपना बनाने की कोशिश
अन्य को अपना अंश बनाने की कोशिश गांधी जी के काम में लगातार देखी जा सकती है। चरखा खादी कुटीर उद्योग और प्राकृतिक चिकित्सा जैसे उपाय अपनाने के पीछे गांधी जी का उद्देश्य इसी से जुड़ा था। मनुष्य की आंतरिक एकता की स्वीकृति के ही चलते विरोधियों से मिल कर उनका हृदय-परिवर्तन करना गांधी जी के कार्य का एक बड़ा हिस्सा था।
गिरीश्वर मिश्र: महात्मा गांधी अपने अनुभवों की मनोयात्रा में आवाजाही करते थे। यह बड़ा दिलचस्प है कि ऐसा करते हुए वह खुद अपनी परीक्षा भी करते रहते थे। उन्होंने अपनी गलतियों को स्वीकार करते हुए स्वयं को कई बार दंडित कर प्रायश्चित भी किया था। आत्म-विमर्श का उनकी निजी जीवनचर्या में एक जरूरी स्थान था। वह अपने में दोष-दर्शन भी बिना घबराए कर पाते थे। सतत आत्मालोचन की पैनी निगाह के साथ गांधी जी ने जो व्रत लिए उन पर एक तपस्वी की भांति डटे रहे। उपवास, मौन रहना, प्राकृतिक चिकित्सा, समाज-सेवा और शारीरिक श्रम को चुनना उनका निजी फैसला था। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के इतिहास के साथ इस अभ्यास का आरंभ हुआ था, जो हिंद स्वराज और सत्य के साथ प्रयोग के साथ आगे भी बढ़ता रहा। विभिन्न स्तरों पर रिश्तों को बनाना, बिगड़े हुए रिश्तों को सुधारना-सुलझाना और बन रहे रिश्तों को सुदृढ़ करना उनके निजी, राजनीतिक और सामाजिक जीवन का मुख्य उद्देश्य बना रहा। गांधी जी मानव संबंधों की ऊष्मा में ही रचनात्मकता का अवसर भी ढूंढ़ते रहे।
गांधी जी को दूसरों या ‘अन्य’ की बड़ी चिंता थी और उनके सुख-दुख से वह भी सुखी-दुखी होते थे और उसके अनुसार जरूरी कदम उठाते थे। वह अपने खान-पान, पहनावा, बातचीत, व्यवहार और नीति आदि सबमें बदलाव ले आए और लोक के साथ तादात्म्य स्थापित किया। उनकी अपार लोकस्वीकृति और लोकप्रियता का राज भी इसी में छिपा था। गांधी जी ने सर्वव्यापकता का महत्व पहचाना और उसी के अनुसार उनके सामाजिक कार्य की परिधि में समाज के सभी वर्ग शामिल होते गए थे। वस्तुतः वह समाज की बनावट में विद्यमान विविधता के विविध रूपों को जगह देने की लगातार कोशिश कर रहे थे। एक व्यापक दृष्टि के साथ अपने व्यवहार और संवाद द्वारा गांधी जी समाज में एक संक्रामक प्रभाव पैदा कर सके। वह विभिन्न धर्मावलंबी जनों समेत गरीब, दलित और ग्रामीण सभी के निकट पहुंचते रहे।
अपना सामाजिक दायरा विस्तृत करने के लिए उन्होंने अपने अहं का अतिक्रमण किया और उसके इर्द-गिर्द फैले आवरण को हटाया। भारत आने के बाद चंपारण में निलहे किसानों के प्रति अत्याचार के विरुद्ध जो पहला आंदोलन उनके द्वारा किया गया, वह ऐसा ही बताता है। स्वयं को पारदर्शी बनाते हुए गांधी जी ने अपनी खास जीवनशैली अपनाई। वह साधारण आदमी जैसा जीवन जीने की राह पर चल पड़े और लगभग उसी रूप में आगे के जीवन में भी दिखते रहे। इसके लिए उन्होंने संयम की एक आत्म-संस्कृति को चुना, जो उनके अपने अनुभव और प्रयोग के आधार पर आकार पाई। इस बदलाव का दोहरा असर था। वह खुद भी बदले और समाज की नब्ज टटोलने का अवसर पा सके, परंतु इसका दूरगामी और चमत्कारी परिणाम यह हुआ कि व्यापक भारतीय समाज गांधी जी में अपनी छवि देखने लगा।
गांधी जी समाज से जुड़ने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। गांधी जी जीवन में कभी एक स्थान पर स्थिर होकर टिके नहीं रहे। वह जीवन भर यात्रा करते रहे और उसके जरिये देश, काल और पात्र तीनों से रूबरू होते रहे। भरसक लोक में ही रमते हुए वह जीवन जिए। हालांकि यह राह आसान न थी। उनकी आत्मकथा से पता चलता है कि न केवल उनके निजी जीवन में मुश्किलों की भरमार लगी रही, बल्कि सामाजिक जीवन में भी चुनौतियां मिलती रहीं। इन सबके बीच वह बिना कोई अवसर गंवाए अपनी ओर से पहल कर के समाज से संपर्क साधते थे। इसी उद्देश्य के लिए वह जहां भी रहे उन्होंने अखबार निकाला। इंडियन ओपिनियन, नवजीवन और हरिजन का प्रकाशन यही बताता है।
वस्तुतः अन्य को अपना अंश बनाने की कोशिश गांधी जी के काम में लगातार देखी जा सकती है। चरखा, खादी, कुटीर उद्योग और प्राकृतिक चिकित्सा जैसे उपाय अपनाने के पीछे गांधी जी का उद्देश्य इसी से जुड़ा था। मनुष्य की आंतरिक एकता की स्वीकृति के ही चलते विरोधियों से मिल कर उनका हृदय-परिवर्तन करना गांधी जी के कार्य का एक बड़ा हिस्सा था। तब भारतीय समाज में जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ग आदि के आधार पर सामाजिक भेद बुरी तरह से व्याप्त थे। तब इस तरह के भेद की खाई को पाटना कठिन था, लेकिन सबको ईश्वर की संतान समझ आत्म और अन्य या अपने-पराये के बीच के फासले को वह भरसक मिटाते रहे। गांधी जी भारत को समग्रता में देख पा रहे थे। अपने को देश में और देश को अपने में देख पा रहे थे। तभी वह देश और समाज के साथ एकाकार हो पा रहे थे।
आज के समय में अपने को दूसरों से भिन्न मानने का चलन बढ़ रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से दूसरों को अपने अधीन बनाने और अपने से कमतर आंक कर अपने लिए उपयोग करने से लोग बाज नहीं आते, चाहे वह शोषण ही क्यों न हो। मूल्यों में आई गिरावट, बढ़ती प्रतिस्पर्धा और अंतहीन लोभ के जाल में फंस कर मानव बोध घट रहा है। हम यह भूल जाते हैं कि जीवन जीने की न्यूनतम जरूरतों का तो पता है, परंतु अधिकतम सीमा निश्चित नहीं की जा सकती। वह मनुष्य के उद्यम, सृजनात्मकता और अवसर की उपलब्धता के अनुसार निरंतर बदलती रही है। भ्रमवश हम उस उच्च स्तर को आवश्यक की श्रेणी में ले आते हैं।
गांधी जी सादगी में विश्वास करते थे, मितव्ययी थे और साधारण के सौंदर्य का उदारता से उपयोग करते थे। आज जब धरती की धारण-क्षमता जवाब दे रही है और उस पर भार बढ़ता जा रहा है तो हमें सोचना होगा कि अपने-पराए का भेद कैसे मिट सकता है और किस तरह अनावश्यक आत्माभिमान के बोझ को कम किया जा सकता है। मैं और तुम का हीनतावादी अंतर मिटाना ही होगा। सहकार ही श्रेय का मार्ग साबित होगा।
(लेखक शिक्षाविद् एवं पूर्व कुलपति हैं)
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