विचार: अमेरिका की दबंग कूटनीति का दौर, भारत समेत पूरी दुनिया की इस पर है नजर
राजशाही के विरोधी वामपंथी मुजाहिदीन-ए-खल्क की छवि ईरान-इराक युद्ध में इराक के समर्थन के कारण खराब है और कुर्द और बलोच गुटों का जनाधार केवल सीमावर्ती प्रांतों तक सीमित है।
शिवकांत शर्मा। पश्चिम एशिया में धौंस की कूटनीति का एक खतरनाक दौर शुरू हुआ है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ईरान की मुल्लाशाही(मुल्लाओं यानी मजहबी नेताओं का शासन) को आर्थिक प्रतिबंधों में रियायत का प्रलोभन देकर परमाणु शक्ति और मिसाइल तकनीक की महत्वाकांक्षा को तिलांजलि देने के सौदे पर तैयार करने में लगे थे। तभी इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने यकायक नाटकीय तरीके से हमला करके ईरान की सेना और परमाणु शक्ति के शीर्ष नेतृत्व का सफाया कर दिया।
हमले पर ट्रंप की आरंभिक प्रतिक्रियाएं देखकर लगा कि अपने कूटनीतिक प्रयासों के बीच इजरायल का कूद पड़ना उन्हें अच्छा नहीं लगा, पर जैसे ही उन्हें इजरायली हमलों की नाटकीय कामयाबी का अहसास हुआ तो उन्होंने इजरायल को रोकने की जगह उसकी कामयाबी की बात करना और ईरान से समर्पण करने की मांग करना शुरू कर दिया।
एक तरफ वे ईरान को दो हफ्तों का समय देने की बात कर रहे थे और दूसरी तरफ दिएगो गार्सिया में अपने बी2 बमवर्षक विमानों को हमलों के लिए तैयार कर रहे थे। झांसा देकर वार करना ट्रंप की शैली है, जिसका वर्णन उन्होंने अपनी चर्चित पुस्तक ‘द आर्ट आफ द डील’ में किया है। ईरान को दो हफ्तों के झांसे में रखकर फोर्डो, नतांज और इस्फहान के परमाणु संयंत्रों पर बम बरसा दिए।
ट्रंप ने फोर्डो समेत ईरान के परमाणु केंद्रों को ध्वस्त करने का दावा करते हुए धमकी दी है कि यदि ईरान अब भी समझौते के लिए राजी नहीं हुआ तो और विनाशकारी हमले किए जाएंगे। ब्रिटिश प्रधानमंत्री स्टार्मर ने भी ट्रंप के सुर में सुर मिलाते हुए ईरान के परमाणु कार्यक्रम को विश्व के लिए गंभीर खतरा बताया। ईरान ने जवाब में इजरायली शहरों पर मिसाइलों की बरसात शुरू कर दी है, लेकिन इसके बावजूद वहां लोग जश्न मना रहे हैं।
प्रधानमंत्री नेतन्याहू के लिए तो यह उनके राजनीतिक करियर की सबसे कामयाब घड़ी है, पर अमेरिका के भीतर इस हमले को लेकर जनमत बुरी तरह बंटा हुआ है। दूसरे देश पर हमला करने के लिए राष्ट्रपति को अमेरिकी संसद का अनुमोदन लेना जरूरी होता है। इराक पर हमले से पहले दोनों बुश राष्ट्रपतियों ने कांग्रेस का अनुमोदन लिया था। इसलिए अमेरिकी सांसदों-सीनेटरों का एक वर्ग ट्रंप के लड़ाई में उतरने से नाराज है। ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी का ‘मागा’ धड़ा इससे नाराज है कि उन्होंने अमेरिका को युद्धों में न उलझाने के चुनावी वादे को तोड़कर इजरायल की लड़ाई में पांव फंसा लिए हैं।
अंतरराष्ट्रीय समुदाय से भी मिश्रित प्रतिक्रिया मिल रही है। यूरोप और पश्चिम एशिया के देश जहां ईरान के परमाणु कार्यक्रम का खतरा कम होने और समझौते की संभावना प्रबल होने का स्वागत करेंगे, वहीं अमेरिकी हमले की वैधता की निंदा होगी। रूस और चीन समेत दुनिया के दूसरे देश कूटनीति का रास्ता छोड़कर दूसरे देश की प्रभुसत्ता के उल्लंघन की निंदा करेंगे।
अमेरिका-इजरायल के साथ-साथ ईरान के साथ भी घनिष्ठ संबंध होने के कारण भारत के लिए यह हमला धर्मसंकट खड़ा करता है। भारत यह तो चाहेगा कि ईरान को परमाणु शक्ति बनने से रोका जाए, पर उसके लिए उसकी प्रभुसत्ता का अतिक्रमण करने की हिमायत कभी नहीं कर सकता। दिलचस्प यह भी है कि ईरान 1968 से ही परमाणु अप्रसार संधि या एनपीटी का सदस्य है। अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी उसकी परमाणु गतिविधियों पर नजर रख सकती है। जबकि इजरायल परमाणु शक्ति होते हुए भी एनपीटी का सदस्य नहीं है। यानी एक तरह से एक ‘चोर’ जज और सिपाही बना बैठा है।
इस संदर्भ में इजरायल का तर्क रहा है कि दशकों से परमाणु शक्ति होने के बावजूद उसने न कभी किसी दूसरे देश को मिटाने की धमकी दी और न ही परमाणु प्रसार किया है। जबकि ईरान की मुल्लाशाही अक्सर इजरायल के सर्वनाश की बात करती रहती है। हालांकि यह तर्क ईरान से अधिक तो पाकिस्तान पर लागू होता है, जिसके प्रसार की बदौलत आज ईरान परमाणु शक्ति बनने के कगार पर है। फिर भी अमेरिका ने वैसी तत्परता पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनने से रोकने में नहीं दिखाई जैसी वह ईरान को रोकने में दिखा रहा है।
अब भारत समेत पूरी दुनिया की नजर इस पर है कि ईरानी मुल्लाशाही अमेरिका के हमले का कब और क्या जवाब देती है। उसने इजरायल पर हमला बोल ही दिया। वैसे उनके पास तीन विकल्प हैं। इराक, यमन और लेबनान में फैले हमास और हाउती जैसे शिया मिलिशिया से अमेरिकी ठिकानों और जहाजों पर हमले कराए और होरमुज जलसंधि में बारूदी सुरंगे बिछाकर उसे बंद कर दे। वह खाड़ी देशों के तेल और गैस ठिकानों को भी निशाना बना सकता है, जिससे तेल और गैस की कीमतें आसमान छू सकती हैं।
हालांकि सऊदी और यूएई ने लाल सागर तटों तक तेल और गैस की पाइपलाइनें बिछा कर सप्लाई का वैकल्पिक रास्ता बना रखा है, लेकिन बाजार जोखिम और धारणा के आधार पर दाम तय करते हैं। 1979-80 में इस्लामी क्रांति होने भर से तेल के दाम तिगुने हो गए थे। यदि ऐसा हुआ तो भारत ही नहीं पूरे विश्व की आर्थिकी के लिए संकट खड़ा हो जाएगा। दूसरा विकल्प अमेरिका की शर्तें मानकर समझौता करने का है, जिसके लिए ईरानी लोग शायद सरकार को कभी माफ न करें, क्योंकि ईरान का परमाणु कार्यक्रम राजशाही के जमाने का है और उसे ईरान के अस्तित्व से जोड़कर देखा जाता है।
तीसरा विकल्प अमेरिका और इजरायल के वार झेलते हुए सद्दाम हुसैन और बशर अल-असद की तरह संकट की घड़ी टलने का इंतजार करने का है। ईरान के पास साढ़े तीन लाख सेना के साथ ही लगभग उतनी ही बड़ी तादाद में क्रांतिकारी गार्ड और बसीज स्वयंसेवकों के दस्ते हैं, जिनके सहारे वे संभावित विद्रोह को दबाए रख सकते हैं। ईरान में राजशाही को समाप्त हुए दो पीढ़ियां बीत चुकी हैं। इसलिए उनका जनाधार नहीं बचा है। राजशाही के विरोधी वामपंथी मुजाहिदीन-ए-खल्क की छवि ईरान-इराक युद्ध में इराक के समर्थन के कारण खराब है और कुर्द और बलोच गुटों का जनाधार केवल सीमावर्ती प्रांतों तक सीमित है। प्रबल और संगठित विपक्ष के न रहने के कारण मुल्लाशाही के लिए इजरायली-अमेरिकी हमलों से जगे राष्ट्रवाद की भावना के सहारे सत्ता में बने रहना कठिन नहीं होगा।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)
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