आज से 77 साल पहले दून में रखे जाते थे द्वितीय विश्व युद्ध के बंदी
77 साल पहले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इटली और जर्मनी के युद्ध बंदी यहीं रखे जाते थे। इनके लिए वहां बनाई गई नौ विंग में मौजूद बैरक इनकी पनाहगाह थीं।
देहरादून, [जेएनएन]: देहरादून कैंट (गढ़ी कैंट) के जिस प्रेमनगर क्षेत्र में वर्तमान में घनी आबादी बसती है, वहां कभी कैदखाना हुआ करता था। चौंकिये नहीं, बात सोलह आने सच है। 77 साल पहले द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इटली और जर्मनी के युद्ध बंदी यहीं रखे जाते थे। इनके लिए वहां बनाई गई नौ विंग में मौजूद बैरक इनकी पनाहगाह थीं। युद्धबंदियों को यातनाएं मिलती थीं तो उन्हें सदाचारी बनाने को बाकायदा धर्मगुरुओं की तैनाती भी थी।
हालांकि, इस इतिहास का आज नामोनिशां नहीं है, लेकिन तब रखे गए विंग के नाम अभी भी प्रचलन में हैं। 1945 से 47 में युद्धबंदियों की रिहाई हुई और खाली हुए विंग आजादी के बाद इन्हें पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को आवंटित कर दिया गया। आज वहां कॉलोनियां अस्तित्व में आ गई हैं।
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ब्रितानवी हुकूमत के द्वितीय विश्व युद्ध में शामिल होने के बाद युद्ध बंदियों को देहरादून छावनी के प्रेमनगर में लाया गया। इतिहासविद् डॉ.देवेंद्र भसीन बताते हैं कि 1939 के आखिर से 1944 तक जर्मन व इटली के युद्ध बंदियों को प्रेमनगर लाकर रखा गया। इनके लिए वहां सात विंग और हर विंग में बैरक बनाई गईं। कैदियों को आपस में बात तक करने में पाबंदी थी। और तो और बैरक के रोशनदान तक बंद रखे जाते थे।
अलबत्ता, खेल के मैदान में ही कैदी आपस में बात कर पाते थे। कैदी सदाचारी बनें, इसके लिए उन्हें धार्मिक उपदेश देने को पादरी भी नियुक्त किए गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध खत्म होने के बाद बंदियों की रिहाई का सिलसिला भी शुरू हुआ और 1947 तक इन्हें यहां से भी रिहा कर दिया गया।
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देश के आजाद होने के बाद प्रेमनगर की ये विंग और बैरक पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को आवंटित कर दिए गए। पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत के बन्नू नगर से भारत आए रिटायर्ड ब्रिगेडियर सुरेंद्र कुमार बताते हैं कि 1947 में जब वह परिवार सहित प्रेमनगर पहुंचे, तब उनकी उम्र महज सात साल थी। लेकिन, उन्हें याद है कि विंग-एक में रखे कैदियों को वापस भेजा जा रहा था। उनके चाचा ने युद्ध बंदियों से कुछ सामान भी खरीदा था।
ब्रिगेडियर सुरेंद्र कुमार के अनुसार इटली के कुछ युद्ध बंदियों की मौत होने पर इन्हें प्रेमनगर में ही दफनाया गया। 1970 से 1980 के दौरान इटली से इनके परिजन आए और कब्रों से अपने पूर्वजों की अस्थियां ले गए। प्रेमनगर निवासी होटल व्यवसायी दीपक भाटिया बताते हैं कि करीब पांच साल पहले भी इटली से कुछ लोग यहां आए और अपने पूर्वजों को याद किया।
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