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जागरण फिल्म फेस्टिवल: सपनों के जाल से बाहर निकालता सिनेमा

दून में कल से शुरू हो रहे 'जागरण फिल्म फेस्टिवल' के सातवें संस्करण 'जील ऑफ यूनिटी इनिसिएटिव' के तहत बनी फिल्मों का। यह ऐसा मौका है जब आप सिनेमा की बारीकियां समझ सकते हैं।

By sunil negiEdited By: Published: Thu, 28 Jul 2016 09:08 AM (IST)Updated: Thu, 28 Jul 2016 09:11 AM (IST)
जागरण फिल्म फेस्टिवल: सपनों के जाल से बाहर निकालता सिनेमा

देहरादून, [दिनेश कुकरेती]: चलताऊ सिनेमा से अलग भी सिनेमा की एक दुनिया है, जो हमें सपनों के जाल में नहीं उलझाती। बल्कि, जीवन और समाज की जटिलताओं के यथार्थ से भी हमारा साबका कराती है। यह ऐसा सिनेमा है, जिसने हमें एक सोच दी, अपनी दृष्टि बदलने की और यही सोच हमें सिनेमा के प्रति अपना दृष्टिकोण रखने का साहस प्रदान करती है। यह सिनेमा इसी दृष्टिकोण की परिणति है।

एक दौर में फिल्म कहानी भाइयों के खो जाने शुरू होती थी और मिल जाने पर खत्म। लेकिन, धीरे-धीरे हालात बदल रहे हैं और कभी जिन फिल्मों के लिए पैसा नहीं मिलता था, वैसी ही फिल्में अच्छी-खासी तादाद में न सिर्फ बन रही हैं, बल्कि अपनी उपस्थिति भी दर्ज करा रही हैं। निश्चित रूप से यह उन डायरेक्टर्स की मेहनत है, जो क्राउड फंडिंग से ऐसी फिल्में बनाने को आगे आ रहे हैं। नतीजा, बदलता सिनेमा समय की आवश्यकता ही नहीं, बल्कि एक मौलिक जरूरत बन चुका है। इसका श्रेय कहीं न कहीं अनुराग कश्यप, तिग्मांशु धूलिया, विशाल भारद्वाज, ओनिर, वसन बाला, आनंद गांधी जैसे विख्यात निर्देशकों को जाता है।

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थोड़ा अतीत में झांकें तो सिनेमा की इस दूसरी दुनिया के निर्माताओं में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक का जिक्र जरूरी हो जाता है। उनके समानांतर और लगभग सहयात्री हैं मृणाल सेन। भारत में समानांतर सिनेमा की शुरुआत बांग्ला फिल्म 'पाथेर पांचाली' (1955) से मानी जाती है, जिसके निर्देशक सत्यजीत रे थे। इसी तरह हिंदी में समानांतर सिनेमा की शुरुआत 'भुवन सोम' (1969) से मानी जाती है, जिसका निर्देशन मृणाल सेन ने किया था।

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यहां यह बताना भी जरूरी है कि भारतीय समानांतर सिनेमा पर भी भारतीय थिएटर (संस्कृत) और भारतीय साहित्य (बांग्ला) का गहरा प्रभाव पड़ा। लेकिन, अंतरराष्ट्रीय प्रेरणा के रूप में उस पर यूरोपियन सिनेमा, खासतौर पर इतालवी नव यथार्थवाद और फ्रेंच काव्यात्मक यथार्थवाद का हॉलीवुड के मुकाबले ज्यादा असर रहा। सत्यजित रे ने इतावली फिल्मकार विट्टोरिओ डे सीका की 'बाइसिकल थीव्स' (1948) और फ्रेंच फिल्मकार जॉन रेनॉर की 'द रिवर' (1951) को अपनी पहली फिल्म 'पाथेर पांचाली' (1955) की प्रेरणा बताया है। बिमल राय की 'दो बीघा जमीन' (1953) भी डे सीका की 'बाइसिकल थीव्स' से प्रेरित थी और इसने भारत में सिनेमा की नई धारा का मार्ग प्रशस्त किया, जो फ्रेंच और जापानी नई धारा के समकालीन थी।

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खैर! समानांतर सिनेमा के बारे में बातें आगे भी होती रहेंगी, फिलहाल आप लुत्फ लीजिए, दून में कल से शुरू हो रहे 'जागरण फिल्म फेस्टिवल' के सातवें संस्करण 'जील ऑफ यूनिटी इनिसिएटिव' के तहत बनी फिल्मों का। यह ऐसा मौका है जब आप न सिर्फ सिनेमा की बारीकियां समझ सकते हैं, बल्कि फेस्टिवल में दिखाई जा रही फिल्मों के कलाकार एवं क्रू सदस्यों से भी रूबरू हो सकते हैं।

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