चुनावी जमीन तैयार करने में जुटे सत्यपाल सिंह
भारतीय पुलिस सेवा से बाय-बाय कहकर हाल ही में भाजपा में शामिल हुए सत्यपाल सिंह ने अपनी चुनावी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी है। भाजपा उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैंड की किसी महत्वपूर्ण संसदीय सीट से उतारने की तैयारी में है। इसी के मद्देनजर उन्होंने चुनावी दांव चलते हुए जाटों के आरक्षण की जोरदार पैर
नई दिल्ली, [जागरण ब्यूरो]। भारतीय पुलिस सेवा से बाय-बाय कहकर हाल ही में भाजपा में शामिल हुए सत्यपाल सिंह ने अपनी चुनावी जमीन तैयार करनी शुरू कर दी है। भाजपा उन्हें पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटलैंड की किसी महत्वपूर्ण संसदीय सीट से उतारने की तैयारी में है। इसी के मद्देनजर उन्होंने चुनावी दांव चलते हुए जाटों के आरक्षण की जोरदार पैरवी शुरू कर दी है।
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मुंबई पुलिस आयुक्त पद से नौकरी छोड़कर राजनीति के मैदान में सत्यपाल सिंह मेरठ में आयोजित नरेंद्र मोदी की रैली में शामिल हुए थे। उसके बाद से सिंह पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाटों के आरक्षण के मुद्दे पर लोगों को एकजुट करने में लगे हुए हैं।
राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय पिछड़ी जाति आयोग के अध्यक्ष की जन सुनवाई में उत्तर प्रदेश की ओर से सत्यपाल सिंह ने जाटों को पिछड़ी जाति में शामिल करने को लेकर अपना पक्ष रखा। उन्होंने अपने ज्ञापन में संविधान का हवाला देते हुए जाटों के सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन के तथ्य रखे। सामाजिक पिछड़ापन के बारे में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का विस्तार से हवाला दिया। इतिहासकार इरफान हबीब का जिक्र करते हुए बताया कि सातवीं और आठवीं शताब्दी में जाटों का दर्जा चंडालों के समान था, जो सामाजिक रूप से बहिष्कृत थे।
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जाटों को 10वीं शताब्दी में सभी ऐतिहासिक दस्तावेजों में शूद्र कहा गया है। 1936 में लाहौर हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में जाटों को शूद्र माना है। स्वतंत्र भारत में 1953-55 गठित काका कालेलकर आयोग ने अपनी रिपोर्ट में जाटों को पिछड़ी जाति स्वीकार किया है। शैक्षणिक पिछड़ापन की हालत यह है कि जाटों में शिक्षा का स्तर यादव और गूजरों के मुकाबले कम है। यादव परिवारों के 3.7 फीसद और गूजर परिवारों के 2.5 फीसद स्नातक अथवा इससे उच्च शिक्षित हैं। जबकि जाटों में यह आंकड़ा मात्र 1.9 फीसद है। महिलाओं की साक्षरता में भी जाट काफी पीछे है। यादवों में महिला साक्षरता जहां 63 फीसद और गूजर महिला साक्षरता 52.3 फीसद है। लेकिन जाट महिलाओं की हालत यहां भी दयनीय 43.6 फीसद है। ये आंकड़े गिरी इंस्टीट्यूट आफ डवलपमेंट स्टडीज, लखनऊ के प्रोफेसर अजित कुमार के अध्ययन पर आधारित है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पांच जिलों में कराए गए थे।
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