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    उत्तराखंड इलेक्शन 2017: जी का जंजाल बना सोशल मीडिया का जाल

    By Sunil NegiEdited By:
    Updated: Tue, 17 Jan 2017 07:05 AM (IST)

    उत्‍तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में सोशल मीडिया जहां राजनीतिक दलों के लिए जी का जंजाल बना हुआ है, वहीं निर्वाचन आयोग के लिए इसकी निगरानी एक बड़ी चुनौती बना है।

    उत्तराखंड इलेक्शन 2017: जी का जंजाल बना सोशल मीडिया का जाल

    देहरादून, [अनिल उपाध्याय]: सोशल मीडिया का अंतहीन जाल जहां राजनीतिक दलों के लिए जी का जंजाल बना हुआ है, वहीं निर्वाचन आयोग के लिए इसकी निगरानी एक बड़ी चुनौती बना है। आचार संहिता लागू होने के पहले सप्ताह में ही भाजपा और कांग्रेस के प्रत्याशियों की फर्जी सूचियां सोशल मीडिया पर जारी कर दी गईं। मामला इतना तूल पकड़ा कि मुकदमा तक कराने की नौबत आ गई। इतना ही नहीं, तमाम आरोप प्रत्यारोप और फर्जी अकाउंट्स इस दौरान सोशल मीडिया पर सक्रिय हो गए हैं। इनकी निगरानी आयोग के लिए भी चुनौती बनी हुई है।

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    तकनीक ने जहां इंसान की जिंदगी को आसान किया है, वहीं आफत भी कम खड़ी नहीं की। देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और इसके साथ ही सोशल मीडिया पर वार भी। सोशल मीडिया भारत में अनियंत्रित जनसंचार माध्यम के रूप में पैर पसार रहा है। यही कारण है कि कोई भी सामग्र्री यहां बिना प्रमाणीकरण के प्रसारित कर दी जा रही है। बीते दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पैड पर भाजपा प्रत्याशियों की सूची सोशल मीडिया पर वायरल हुई और भाजपा को आगे आकर इस पर सफाई देनी पड़ी। इतना ही नहीं, इस मामले में मुकदमा दर्ज भी कराया गया।

    इसी तरह कांग्रेस की सूची भी कई बार व्हाट्सएप और फेसबुक पर जारी होती रही। इस मामले में कांग्रेस को भी सफाई देनी पड़ी। इनके साथ ही प्रमुख दलों के नेताओं को लेकर तीखी टिप्पणी, चुनाव से ठीक पहले नेताओं से जुड़े अश्लील वीडियो और फोटो वायरल करने के तमाम मामले भी पूर्व में सामने आते रहे हैं। ये मुद्दे राजनीतिक दलों को परेशानी में डालते रहे हैं और आने वाले दिनों में इस तरह के मामलों में और इजाफा होने की आशंका से भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

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    स्टिंग के वीडियो भी बने आफत

    राज्य की बात करें तो सीएम के स्टिंग से लेकर आबकारी से जुड़े एक अधिकारी का स्टिंग से जुड़ा वीडियो भी कांग्रेस को परेशानी में डाल चुका है। विधान सभा चुनाव में प्रत्याशियों के नाम तय होने के बाद ऐसे और मामले भी सोशल मीडिया पर कोहराम मचा सकते हैं। दोनों ही प्रमुख दल एक दूसरे पर कीचड़ उछालने के लिए सोशल मीडिया को हथियार बनाएंगे। इसके लिए बकायदा टीमें गठित की जा चुकी हैं। अहम बात यह है कि ये टीमें किसी भी रूप में सीधे दलों से नहीं जुड़ी हैं तो ऐसे में कार्रवाई करना भी आयोग के लिए मुश्किल होगा।

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    कमजोर साइबर मशीनरी

    भाजपा ने फर्जी प्रत्याशी सूची के मामले में मुकदमा तो करा दिया, लेकिन इस पर कार्रवाई इतनी आसान नहीं होगी। राज्य के पास अलग से साइबर थाना भी है और टीम भी, लेकिन इतनी मजबूत नहीं कि आसानी से ऐसे मामलों में मूल व्यक्ति तक पहुंच पाए और कठोर कार्रवाई कर सके। इसके पीछे संसाधन और साइबर कानून दोनों का रोड़ा बड़ा कारण बनता रहा है। मामले की जांच शुरू होते पहले ही इतनी देर हो चुकी है कि इस सूची की जड़ तक पहुंचना काफी मुश्किल होगा। ऐसी परेशानी तमाम अन्य मामलों में भी आएगी।

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    पहचान और निगरानी बड़ी चुनौती

    निर्वाचन आयोग पूरी मुस्तैदी से सोशल मीडिया पर नजर रखे हुए है, लेकिन यह नजर एक सीमा तक ही है। साइबर की अंतहीन दुनिया में हर अकाउंट और पोस्ट पर नजर रखना इतने संसाधनों में संभव नहीं है। उत्तराखंड की बात करें तो 25 लाख से ज्यादा फेसबुक यूजर राज्य में हैं, जो सक्रिय रहते हैं। अकेले देहरादून में ही 7.50 लाख फेसबुक उपयोगकर्ता हैं।

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    वहीं, इससे ज्यादा लोग व्हाट्सएप पर मौजूद हैं। ट्विटर उपभोक्ताओं की संख्या हालांकि, इससे काफी कम है। इन तमाम माध्यमों का इस्तेमाल कर रहे यूजर्स के अपने फेसबुक पेज, व्हाट्सएप ग्र्रप भी लाखों की संख्या में हैं। ऐसे में आयोग के लिए इन सभी की सामग्री पर नजर रखा संभव नहीं है। वहीं, निर्वाचन आयोग की सोशल मीडिया पर डाली जाने वाली सामग्री को लेकर स्पष्ट गाइडलाइन नहीं होना भी इस चुनौती को बढ़ा रहा है।

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