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    उत्तराखंड एसेंबली इलेक्शनः सियासी हैसियत तौल लग रहा मोल-भाव

    By BhanuEdited By:
    Updated: Fri, 27 Jan 2017 09:38 PM (IST)

    उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में टिकट नहीं मिलने से खफा बागियों के तेवर सियासी दलों की नींद हराम किए हुए हैं। इसके लिए मोल-भाव के दांव भी खेले जा रहे हैं।

    उत्तराखंड एसेंबली इलेक्शनः सियासी हैसियत तौल लग रहा मोल-भाव

    देहरादून, [राज्य ब्यूरो]: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव 2017 में टिकट नहीं मिलने से खफा बागियों के तेवर सियासी दलों की नींद हराम किए हुए हैं। जीत के समीकरणों को उलझाने का माद्दा रखने वाले कई बागी बतौर निर्दल नामांकन कर चुके हैं।

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    नामांकन के आखिरी दिन तक ये संख्या और बढ़ने जा रही है। इससे चिंतित दल अब असंतुष्टों को समझाने-बुझाने और मनाने के लिए हाथ-पांव मार रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा तो बागियों पर पकड़ रखने वाले क्षत्रपों की मदद ले रहे हैं।

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    इसके लिए मोल-भाव, नुकसान की भरपाई से लेकर खर्चा-पानी के दांव भी खेले जा रहे हैं। अब ये देखना रोचक रहेगा कि दलों की ये कसरत कितने बागियों को नाम वापस लेने के लिए मजबूर करती है।

    प्रदेश की सत्ता हासिल करने के लिए आमने-सामने दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा चुनाव मैदान में जोर-आजमाइश में जुटे हैं। प्रत्याशियों की सूची घोषित कर चुके दलों का जोर अब नामांकन का कार्य पूरा करने पर है, लेकिन टिकट नहीं मिलने से खफा नेताओं की नाराजगी दलों की मुश्किलें बढ़ा रही है।

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    बगावत पर उतारू अपने नेताओं से दल अगर डर रहे हैं तो ये बेवजह भी नहीं है। दरअसल, दलों में वर्षों से डंडा-झंडा पकड़ने से लेकर तमाम जिम्मेदारियों को बखूबी निभाते रहे सक्रिय नेताओं की पार्टी के भीतर टिकट की दावेदारी मजबूत मानी जाती रही है।

    फिर टिकट मिलने के ऐनवक्त में पत्ता कटने और वह भी बाहर से आने वालों को निष्ठावान कार्यकर्ताओं पर तरजीह दिए जाने से असंतुष्टों की संख्या में इजाफा हो रहा है। इनमें ऐसे नेताओं की संख्या भी काफी है जो लंबे समय से चुनाव क्षेत्रों में सक्रिय हैं।

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    चुनाव मैदान में खम ठोकने की हसरत के चलते दलों से लेकर चुनाव क्षेत्रों में सियासी समीकरणों को साधने में जुटे हुए हैं। ऐसे कई नेताओं के साथ पार्टी कार्यकर्ता अच्छी-खासी संख्या में हैं। यही वजह है कि टिकट नहीं मिलने पर कई नेताओं ने दलों से इस्तीफा देकर या तो दूसरे दलों का रुख कर लिया, अथवा अकेले दम पर चुनाव मैदान में ताल ठोक रहे हैं।

    दलों के रणनीतिकार मान भी ये मानने को मजबूर हैं कि बगावती तेवर पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी के साथ ही पार्टी की मुहिम को प्रभावित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। दलों का इस वक्त पहला लक्ष्य बागियों को पार्टी की मुख्य धारा में ही बनाए रखने का है।

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    इसके लिए उनके मान-सम्मान की रक्षा और टिकट नहीं देने की एवज में प्रतिपूर्ति का भरोसा दिलाया जा रहा है। कांग्रेस और भाजपा ने तो पार्टी प्रत्याशियों के साथ ही बागियों के करीबी बड़े नेताओं को इस काम पर लगा दिया है।

    भाजपा की ओर से इस काम में केंद्रीय मंत्री, पूर्व मुख्यमंत्रियों से लेकर प्रदेश प्रभारी श्याम जाजू को झोंका जा चुका है तो कांग्रेस की ओर से टिकट तय करने में अहम भूमिका निभाने वाले मुख्यमंत्री हरीश रावत को जिम्मा सौंपा गया है।

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    सियासी कद और मोल-भाव

    बागियों को मनाने के साथ उनकी सियासी हैसियत भी देखा जा रहा है। चुनाव को बड़े स्तर पर प्रभावित करने की कुव्वत रखने वालों को दिग्गज नेता मनाने में जुटे हैं। इन्हें कद के मुताबिक सरकार बनने की स्थिति में सरकारी ओहदा या संगठन में बड़ा पद थमाने का वायदा किया जा रहा है।

    वहीं लंबे अरसे से क्षेत्र में सक्रिय रहे और बागी हो चले नेताओं को चतुराई के साथ आर्थिक मदद का प्रस्ताव भी दिया जा रहा है। हालांकि ऐसा प्रस्ताव प्रत्याशियों के समर्थकों की ओर से है। इसे जाहिर करने में एहतियात बरती जा रही है।

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