Jeevan Darshan: श्रीरामचरितमानस में मिलता है ईश्वर के हर स्वरूप का वर्णन, जानें इससे जुड़ी प्रमुख बातें
श्रीरामचरितमानस (Ramcharitmanas) में प्रतिबिंब का अतीव सुंदरता से वर्णन किया गया है। बताया गया है कि जड़-चेतन में जो कुछ भी है वह ईश्वर का ही प्रतिबिंब है। इसीलिए सबकुछ चेतन है। जड़ तो वह मत है जहां ईश्वरत्व का प्रतिबिंबन नहीं हो रहा है तो आइए इससे जुड़ी प्रमुख बातों को जानते हैं जो इस प्रकार हैं।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। कौशलपुर में दशरथनंदन राघवेंद्र जब छोटे बालक थे, माता कौशल्या ने उन्हें महीन कपड़े की पीली झंगुलिया पहना दी। इसके पूर्व श्रीराम ने कभी स्वयं को देखा नहीं था। अद्वितीय को देखने की आवश्यकता भी क्या है? पर अचानक उनकी दृष्टि आंगन में लगे मणि-स्तंभों की ओर चली गई। उन्हें अनगिनत मणियों में अपना रूप दिखाई दिया।
''रामलला अपने ही रूप पर विमोहित होकर नृत्य कर रहे थे।
रूप रासि नृप अजिर बिहारी। नाचहिं निज प्रतिबिंब निहारी''।।
विचित्र स्थिति है, जड़ में चैतन्य भाषित हो रहा था। चैतन्य जड़ को देखकर नाचने लगा। स्वयं को पत्थर में प्रकट देखकर वह स्वयं आश्चर्यमिश्रित हर्ष से आह्लादित हो गया। यहां पर तुलसी की एक सिद्धांत पंक्ति उभर आई।
''निर्गुन रूप सुलभ अति सुगम न जानइ कोई।
सगुन अगुन नाना चरित सुनि मुनि मन भ्रम होई''।।
पर यहां तो लेखक स्वयं ही भ्रमित हो गया कि जड़ पत्थर में स्वयं को देखकर सचराचर में व्याप्त ब्रह्म राम नाच रहे हैं। वस्तुत: जड़ कुछ है ही नहीं। जड़ तो केवल वह मति है, जहां पर ईश्वरत्व का प्रतिबिंबन नहीं हो रहा है। ईश्वर का निर्गुण रूप सहज है, वह व्यक्ति को बुद्धिगम्य लगता है, क्योंकि वह न तो कुछ बोलता है, न चलता है, न ही दिखाई देता है, पर वही ईश्वर जब अपने प्रतिबिंब को देखकर नाचने लगे, सीता जी की इच्छापूर्ति हेतु सोने के मृग के पीछे भागने लगे, आकाश में चंद्रमा को देखकर बालकों की भांति उसे पकड़ने के लिए मचलने लगे, तो मुनियों की मति में भी संशय और भ्रम हो जाता है कि यह अज्ञानजन्य चेष्टा तो वे संसार में देखते ही रहते हैं।
यही उस ईश्वर की व्यापकता और लीला है, जब वह सगुण होता है, तब वह प्रकृतिरूप हो जाता है, पर उसका दृष्टा रूप, कूटस्थ और आत्मरूप खंडित नहीं होता है। संसारी में उनका स्वरूप खंडित होकर चूर-चूर हो जाता है। वही भगवान ने यहां किया।
एक दिन आकाश में पूर्ण चंद्रमा को देखकर हठ करके बैठ गए और माता कौशल्या से उसे लाकर देने की जिद करने लगे। माता समझीं कि इस बालक को बिंब-प्रतिबिंब का तो कुछ पता नहीं है। मां ने युक्ति निकाली। उन्होंने थाल में जल भरकर उसमें चंद्रमा का प्रतिबिंब दिखाकर रामजी को प्रसन्न करने का प्रयास किया। प्रतिबिंब देखकर रामजी डर गए, क्योंकि प्रतिबिंब का भी प्रतिबिंब भाषित होते देख लिया। फिर कहने लगे- नहीं, मुझे तो वही चाहिए, जो आकाश में दिखाई दे रहा है।
वस्तुत: इस लीला में भगवान मां को यह परम तत्व बताना चाह रहे थे कि मां, जिस चंद्रमा को तुम पृथ्वी पर लाना असंभव समझ रही हो, तत्वत: तो स्वयं मेरा ही प्रतिबिंब है। मेरे अतिरिक्त संसार में ऐसा है ही क्या जिसे मैं पाने इच्छा करूंगा। सूर्य, चंद्रमा, समस्त खगोल-भूगोल सारे क्षेत्र उसी क्षेत्रज्ञ के ही तो उपासक और प्रतिबिंब हैं।
यहां बालक रूप में तो वे अकेले थे, पर जब बड़े हो गए और इनका जनकनंदिनी सीता के साथ विवाह होने लगा तो फिर बचपन का दृश्य पुन: समक्ष आ गया? विवाह मंडप में अनेक प्रकार की मणियां जटित थीं और सारे मणिस्तंभों के प्रत्येक रंग में राम और सीता जी का रूप दिखाई देने लगा। पहले एक बिंब था, अब दो बिंब हो गए, क्योंकि जब ब्रह्म विवाह कर रहा है तो द्वितीय बिंब सीता की सृष्टि तो करनी ही पड़ेगी!
''रामसीय सुंदर परिछाईं।
जगमगात मनि खंभन्न मागीं''।।
जनक ने देखा, दूल्हा राम और दुल्हन सीता दोनों का प्रतिबिंब जगमगाने लगा, क्योंकि ब्रह्म राम ने भक्ति सीता के साथ अपना संबंध स्वीकार कर लिया। वह जनक जिनके लिए प्रतिबिंब एक मिथ्या है। विवाह मंडप में श्रीसीता जी श्रीराम के निकट बैठी हैं और उन्हें बगल में बैठे हुए भगवान को बिल्कुल निकट लाने का भाव हो रहा है, पर व्यावहारिक मर्यादा के कारण न तो उनकी ओर देख पा रही हैं और न ही और निकट जा पा रही हैं। ज्यों ही यह भाव उनके हृदय में पल्लवित हुआ, प्रभु ने उसे तुरंत पुष्पित और सुगंधित कर दिया।
पल्लवित और पुष्पित की सीमा थी, पर ज्यों ही वह सुगंधित हुआ, तब उसका लाभ तो मंडप में बैठे सभी लोगों को मिला। सीता जी ने हाथ में जो मणियों के कंगन पहने थे, उसमें उन्हें अपने प्रियतम श्रीराम का प्रतिबिंब दिखाई देने लगा और वियोग के भय से वे अपने हाथ को हिलने नहीं दे रही हैं।
''निज पानि मनि महं देखि अति मूरति स्वरूप निधान की।
चालक न भुज बल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी।।''
उन्हें भय लग रहा है कि मेरा हाथ यदि थोड़ा भी हिला तो उनके दर्शन होना बंद हो जाएगा। शृंगार में मर्यादा का ऐसा शब्दविन्यास कहीं नहीं मिलेगा। गोस्वामी जी ने शुद्ध भावनात्मक शृंगार और एकत्व भाव को स्वरूपनिधान कहकर पूर्ण कर दिया। स्वरूपनिधान का तात्पर्य है रूप की खान, जहां से सारा सौंदर्य निसृत हुआ है, भगवान के उस स्वरूप को सीता जी ने अपने रूप में मिला लिया। अब वह सौंदर्य उनके हाथों में आ गया, यहां अब प्रति निकल केवल बिंब ही रह गया। द्वैत में अद्वैत।
इसका लाभ यह हुआ कि दशरथ और जनक मिल गए, विश्वामित्र वशिष्ठ मिल गए, मिथिला तथा अयोध्या मिल गए। वेद, विधि और लोक की मान्यता मिल गई। प्रतिबिंब का विस्तार पूरी रामायण में चलता रहा। रावण वध के पश्चात भगवान ने प्रतिबिंब को जलाकर सीता के मूल बिंब रूप को प्रकट किया, जिसे वहां खड़े हुए देवता और सब पार्षद समझ ही नहीं सके।
''प्रतिबिंब अरु लौकिक कलंक प्रचंड पावक महुं जरे।
प्रभु चरित काहुं न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे''॥
गुरु विश्वामित्र के साथ अयोध्या से जनकपुर के मार्ग में भगवान ने पुन: एक पत्थर को देखा, उसमें अपना प्रतिबिंब देखा। गुरु विश्वामित्र से प्रभु ने पूछ दिया, यह पत्थर रूप में कौन है? विश्वामित्र ने कहा कि गौतमनारी अहल्या है! पर यह तो पत्थर है! गुरु जी ने कहा कि महाराज है तो नारी, पर अपने पति गौतम ऋषि के शाप के कारण पत्थर बन गई है। हमें क्या करना है? भगवान ने कहा! गुरु जी बोले, चरण कमल रज चाहती, कृपा करहु रघुबीर।
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आपके चरणों की रज इसके सिर से छू जाए तो इसका कल्याण हो जाए। भगवान ने उस प्रतिबिंब को अपने बिंब से एकाकार करने की भावना से अपने चरणों को उसके सिर से छुआकर नारी रूप दे दिया। वह तो स्वयं बिंब से तद्रूप हो गई। भगवान से तद्रूपता ने उसके हृदय को इतना पवित्र कर दिया कि वह पति के शाप को भूलकर प्रभु की परम कृपा को देखने लगी और भगवान ने उस दिव्य सुंदरी अहल्या को पुन: पतिलोक में भेज दिया।
ईश्वर की मर्यादा और उनका शृंगार सब करुणा, कृपा से परिपूर्ण है। वह तो स्वरूप में स्थित होकर स्वरूपनिधान है। भक्त का हृदय जब पवित्र होकर ईश्वर का प्रतिबिंब बनता है तो सब तद्रूप हो जाते हैं। यह रहस्य अनंत है, अनादि है और सनातन है। अधुनातन उसका प्राकृत और विकृत रूप है, सत्य तो सनातन है।

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