Jeevan Darshan: काम और क्रोध पर कंट्रोल करना है जरूरी, रखें इन बातों का ध्यान
जिस प्रकार हमारे शरीर में कफ वात और पित्त का का संतुलन आवश्यक है उसी प्रकार हमारे मन में लोभ काम तथा क्रोध का संतुलन भी आवश्यक है। मानस रोग की इस शृंखला में आज पढ़ें मन में रहने वाले इन कफ-वात-पित्त से उपजे सन्निपात रोग और उसके निवारण (Jeevan Darshan) के उपाय जो यहां पर विस्तार से बताए गए हैं।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। श्रीरामचरितमानस में काकभुशुंडि जी ने कहा कि काम वात है, लोभ बढ़ा हुआ कफ है और क्रोध पित्त है जो सदा छाती जलाता रहता है। शरीर में जैसे कफ, वात और पित्त तीनों का संतुलन आवश्यक है, उसी प्रकार मन में लोभ, काम तथा क्रोध का संतुलन आवश्यक है। तीनों का बिगड़ जाना ही सन्निपात होता है, जो रामायण में रावण को हो गया था। शरीर और मन में, दोनों जब स्वस्थ होते हैं, तब समाज और घर सब कुछ व्यवस्थित होता है। व्यक्ति के शरीर में कफ, वात, पित्त को त्रिदोष कहा जाता है। इनके असंतुलन से ही विकार (रोग) उत्पन्न होते हैं। विकार जब विकारी के जीवन में होता है, तब वह विकारयुक्त कहलाता है, अन्यथा ये विकार ही सृष्टि सृजन में सहायक होते हैं। ये तीनों यदि मिट जाएं तो शरीर ही समाप्त हो जाएगा और ये तीनों बिगड़ जाएं तो जीवन ही समाप्त हो जाएगा।
काम बात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त नित छाती जारा।
प्रीति करइ जो तीनिउ भाई, उपजै सन्निपात दुखदाई।।
रावण श्रीसीता जी को मंदोदरी का स्थान देने का वचन देकर साम-नीति का दुरुपयोग कर रहा था। उनको पटरानी बनाने का प्रलोभन देकर रावण दाम-नीति का दुरुपयोग कर रहा था, उसकी बात न मानने पर एक महीने के अंदर प्राण ले लेने की बात कहकर रावण दंड-नीति का दुरुपयोग कर रहा था तथा मंदोदरी के सामने श्रीसीता के प्रति प्रणय निवेदन करके वह भेद-नीति का दुरुपयोग कर रहा था। रावण का मानसिक संतुलन बिगड़ गया था, उसका कफ वात और पित्त तीनों विकृत हो गया था।
भगवान श्रीराम का भजन
हनुमान जी ने उसे समझाया कि तुम तामसिक अहंकार छोड़कर श्रीसीता जी को श्रीराम को सौंप दो और फिर भगवान श्रीराम का भजन करके लंका के अचल राज्य के स्वामी बन जाओ। हनुमान जी की भक्ति, विवेक और वैराग्य से युक्त बात सुनकर रावण हनुमान जी से और बकझक करने लगा। साथ ही उसने हनुमान जी को बंदर कहकर संबोधित किया और कहा कि तेरी मृत्यु का समय निकट आ गया है। यह तो उलटी बात हो गई। भरी सभा ने देखा कि रावण को सन्निपात हो गया है। जब हनुमान जी जैसे सद्गुरु की बात उल्टी लगने लगे तो समझ लेना चाहिए कि हनुमान जी की नहीं, रावण की ही मृत्यु निकट आ चुकी है। जब विकृत मानसिकता का व्यक्ति सत्ता और ऐश्वर्य पा लेता है तो वह सर्वप्रथम नीति विरोधी बातें बोलता है और जो सुनीति की बात करता है, उसी विभीषण पर चरण-प्रहार करता है।
अपनी बात मनवाने की इच्छा
सदैव अपनी बात मनवाने की इच्छा, थोड़े कार्य के बदले बहुत फल पाने की व्याकुलता, पूरा न होने पर दूसरों की प्रगति देखकर अपने शरीर में कष्ट का अनुभव करना, शरीर और व्यवहार में रूखापन आ जाना, हड्डियों और जोड़ो में दर्द होना, यह वात रोगी के लक्षण हैं। रोगी जिस आधार पर वह खड़ा हुआ है, उसी में दोष निकालता है, अपनी इन विकृतियों के कारण वह अपने अंदर स्थिरता का अभाव पाता है।
पद-प्रतिष्ठा-सत्ता
मन का कफ रोग ही लोभ है। हमारे धर्मग्रंथों और श्रुति ने लाभ की वृत्ति को दोष नहीं बताया है, अपितु लाभ के विपरीत अतिशय लोभ को मानस रोग बताया है। काम की पूर्ति के लिए विवाह का विधान वेदसम्मत है, पर संसार में अनेक नारियों को अपनी रानी बनाने को काम की विकृत मानसिकता बताया गया है। मन पित्त ही क्रोध है। क्रोध की वृत्ति यदि भविष्य में किसी सुधार को जन्म दे सके तो उसका उपयोग बहुत श्रेष्ठ है और उसका प्रयोग गुरुओं के द्वारा शिष्यों के प्रति और माता-पिता के द्वारा बच्चों के सुंदर भविष्य के लिए किया जाता है। पर यदि वही क्रोध की अग्नि रसोई से निकलकर पूरे घर में फैल जाए, तब तो पूरा घर ही लंका की तरह जलकर भस्म हो जाएगा। श्रीरामचरितमानस में हनुमान जी वे वैद्य हैं जो विभीषण और सुग्रीव को संपूर्ण सांसारिक पद-प्रतिष्ठा-सत्ता सब कुछ दिलवाते हैं, पर वह लाभ भगवान के कृपा प्रसाद के रूप में श्रुति-सम्मत लाभ है, श्रुति-विरोधी नहीं है।
शरीर में जो जो अंग हैं, उन सबकी उपयोगिता है। उनके सुसंचार की आंतरिक और बाह्य व्यवस्था को संचालित करने की व्यवस्था और विवेक ईश्वर ने सबको दिया है। समस्या जीवन में तब आती है, जब व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अतिरेकवादी हो जाता है। रक्त का संचार जब कम या अधिक होता है तभी वह रोग होता है। रक्त में लाल कण और श्वेत कण दोनों का किसी एक तरफ अतिरेक ही रोग है।
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सत्संग में त्याग
श्रुति उसी के संतुलन का मार्ग बताती है, जिसको सत्संग कहते हैं। विभीषण और सुग्रीव ने हनुमान जी के सत्संग को धारण और शिरोधार्य किया, परिणाम स्वरूप उनको सब कुछ प्राप्त हुआ। सत्संग में त्याग या संग्रहण नहीं सिखाया जाता है, अपितु दोनों के बीच संतुलन रखकर हम अपने जीवन में किस प्रकार श्रेय और प्रेय दोनों को प्राप्त कर धन्य हो जाएं, यह बताया जाता है।
तुम्हरों मंत्र विभीषण माना लंकेश्वर भय सब जग जाना।।
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा राम मिलाए राज पद दीन्हा।।
भगवान राम धर्म पुरुषार्थ हैं, जो भक्ति सीता के बिना कुछ नहीं कर सकते। श्रीभरत धर्म पुरुषार्थ हैं, जो श्रद्धा रूपी मांडवी के सहयोग के बिना कुछ नहीं कर सकते थे। श्रीलक्ष्मण काम पुरुषार्थ हैं, जो उर्मिला के रूप में योग-क्रिया के बिना भगवान से योग नहीं बनाए रख सकते थे। शत्रुघ्न जी अर्थ पुरुषार्थ हैं, जो श्रुतिकीर्ति के रूप में दान- समाज कल्याण की वृत्ति के बिना भरत का अनुसरण करके संसार के भरण-पोषण में अपना योगदान नहीं दे सकते थे। जो प्राप्त है, उसका संतुलित उपयोग ही समाज, शरीर तथा मन की स्वस्थता है।
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