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    Jeevan Darshan: ऐतिहासिक नहीं... हमें पौराणिक बनना है, ऐसे रखें अपने सनातन विवेक को स्थिर

    ईश्वर की अनंतता गंगा की पवित्रता और हिमालय की दृढ़ता को प्रमाणित नहीं करना पड़ता। वह तो स्वयं सिद्ध है। हमें ऐतिहासिक नहीं हमें पौराणिक बनना है। इतिहास हमें भूतकाल बना देता है पुराण हमें वर्तमान रखते हैं। इतिहास व्यक्तियों का चरित्र होता है पुराण भगवान की लीला है जो कभी भूत नहीं होती है। नया वर्ष पुराने पाठ को दोहराना नहीं है अपितु पुराने से सीखना है।

    By Jagran News Edited By: Vaishnavi Dwivedi Updated: Mon, 24 Mar 2025 12:07 PM (IST)
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    Jeevan Darshan: ऐतिहासिक नहीं हमें पौराणिक बनना है।

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। भारत में शाश्वत सुख देने वाले अवतार हुए। प्रकृति, जलवायु, मौसम धान्य, फल, सुगंध, छाया और गति देने बाली नदियां सब भारत में हैं। पवित्रता की कहानियों से भरा पड़ा है हमारा साहित्य,काव्य और शोध। हमें उसके गुणों को खोज कर वर्तमान बन जाना है। ईश्वर चिरपुरातन होते हुए भी नित नवीन है। ईश्वर की अनंतता, आकाश की व्यापकता, गंगा की पवित्रता और हिमालय की दृढ़ता को प्रमाणित नहीं करना पड़ता। वह तो स्वयं सिद्ध है।

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    हमें ऐतिहासिक नहीं, हमें पौराणिक बनना है। इतिहास हमें भूतकाल बना देता है, पुराण हमें वर्तमान रखते हैं। इतिहास व्यक्तियों का चरित्र होता है, पुराण भगवान की लीला है, जो कभी भूत नहीं होती है। नया वर्ष पुराने पाठ को दोहराना नहीं है, अपितु पुराने से सीखना है। अपने मूल स्वरूप को पकड़े रहना विवेक है।

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    मान्यताओं को सीमित मान्यता दें। मान्यताओं का सार्वकालिक अस्तित्त्व नहीं होता है। ये तात्कालिक होती हैं। ये आतिशबाजी की तरह प्रकाश का अतिरेक स्वरूप लेकर आती हैं और अंधेरा छोड़कर चली जाती हैं। हम अपने सनातन विवेक को स्थिर रखें। प्रकाश तो दीपक में होता है। उसी ज्ञानदीपक को जलाए रखें। जड़ और चैतन्य की ग्रंथि ही अज्ञान का कारण है। अंधेरे में जैसे उलझी रस्सी की गांठ को नहीं खोला जा सकता, उसी प्रकार विवेक में स्थित हुए बिना हम सुलझ नहीं पाएंगे।

    आप वह लीजिए जो आपको चाहिए। हमें इकट्ठा नहीं करना है, हमें उपयोग करते जाना है। वस्तु के उपयोग से वस्तु का सम्मान होता है और हमारा उद्देश्यपरक विकास होता है। हम न किसी से छोटे हैं न ही किसी से बड़े। हम ईश्वर के अंश हैं और पूर्ण हैं।

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    प्रभु ने जो दिया है, हम उस उपलब्धि के अस्तित्त्व को पहचानें और जीवन के चरम लक्ष्य ईश्वर जो हमें प्रतिपल प्राप्त है उसी में रहें। ईश्वर को पाना नहीं है, वह तो है निरंतर प्रतिपल है। तभी तो हम आप हैं। यदि पाना बाकी है तो जो अभी तक पाया है क्या वह संसार है?

    तुलसीदास जी कहते है -

    • हरि तुम बहुत अनुग्रह कीन्हों। साधन धाम बिबुध दुर्लभ तनु मोहिं कृपा कर दीन्हों।

    ईश्वर की कृपा रूप शरीर को पाकर भी यदि हम मांगनेवाले बने रहे तो प्राप्ति का सुख कब लेंगे? जागिए,उठिए,चलिए,पहुंचिए और अपने स्वरूप में स्थित रहिए।