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    Jeevan Darshan: योग से दूर होंगे बड़े-बड़े रोग, जानिए इसका महत्व

    आध्यात्मिक ग्रंथ योगी कथामृत के लेखक श्री श्री परमहंस योगानंद और उनके गुरु कैवल्य दर्शनम् के लेखक श्री श्री स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि दोनों ने मार्च मास में ही महासमाधि में प्रवेश किया। स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने 9 मार्च 1936 को और उनके शिष्य परमहंस योगानन्द ने 7 मार्च 1952 को महासमाधि प्राप्त की। योगानंद जी ने महासमाधि के माध्यम से बताया कि योग से प्रकृति पर विजय पाना संभव है।

    By Jagran News Edited By: Vaishnavi Dwivedi Updated: Mon, 03 Mar 2025 02:48 PM (IST)
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    Jeevan Darshan: यहां जानिए योगा का महत्व।

    नेहा प्रकाश (अध्यात्म अध्येता)। क्रियायोग परंपरा के इन गुरुओं ने अपने शरीरों का वस्त्र की भांति परित्याग कर दिया और मोक्ष प्राप्ति हेतु अपने भक्तों का मार्गदर्शन करते हुए विराट् क्रिया श्वास के माध्यम से जीवित रहे। जैसा कि “योगी कथामृत” में वर्णित है, क्रियायोग एक ऐसी प्रविधि है, जो प्रत्येक श्वास के साथ रक्त को कार्बन डाइआक्साइड से मुक्त करती है और अंतत: शरीर के क्षय को कम करती है और रोकती है। यह परमाणु कोशिकाओं को शुद्ध ऊर्जा में रूपांतरित कर देती हैं। इस प्रकार 30 सेकंड की एक क्रिया श्वास के द्वारा उतना ही आध्यात्मिक विकास होता है, जितना प्राकृतिक विकास के माध्यम से एक वर्ष में होता है।

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    क्रियायोग एक प्राचीन विज्ञान है, जिसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को प्रदान किया था। बाद में पतंजलि और अन्य शिष्यों को इसका ज्ञान हुआ। वर्तमान युग में महावतार बाबाजी ने इसे लाहिड़ी महाशय को प्रदान किया था, जिन्होंने इसे योगानंद जी के गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि को प्रदान किया था।

    संन्यास के पूर्व योगानंद जी का नाम मुकुंद था। 1910 में, जब वे 17 वर्ष के थे, उनकी भेंट अपने गुरु स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि से हुई थी। अपने गुरु के कठोर मार्गदर्शन में उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया। युवा मुकुंद को उनके गुरु द्वारा एक गुरु बनने के लिए प्रशिक्षित किया जा रहा था। क्योंकि महावतार बाबाजी ने अनेक वर्ष पूर्व स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि से स्पष्ट रूप से यह कहा था कि पाश्चात्य जगत में क्रियायोग का प्रचार करने के लिए योगानंद का ही चुनाव किया गया है।

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    प्रारंभ में तो योगानंद जी पूर्व में भी किसी संस्था की स्थापना करने के इच्छुक नहीं थे, परंतु उन्होंने अपने गुरु के समक्ष समर्पण कर दिया। उन्होंने सन् 1917 में योगदा सत्संग सोसाइटी आफ इंडिया की स्थापना की। सन् 1920 में उन्हें अमेरिका से बुलावा आया, जिसकी भविष्यवाणी पहले ही की जा चुकी थी। युवा गुरु उस देश की यात्रा पर निकल पड़े, जिसकी भाषा से वे उतने ही अनभिज्ञ थे, जितने कि उस देश के लोग योग से।

    परंतु भाषा की यह समस्या ईश्वर-साक्षात्कार प्राप्त गुरु का मार्ग रोकने में असफल रही। वे जिस जहाज से यात्रा कर रहे थे, उस पर उन्होंने अंग्रेजी भाषा में अपना पहला व्याख्यान दिया। बाद में अमेरिका के प्रत्येक शहर में खचाखच भरे सभागारों में व्याख्यान देने के लिए ईश्वर ने उनका चयन किया। इसके परिणामस्वरूप 1920 में सेल्फ-रियलाइजेशन फेलोशिप की स्थापना हुई।

    योगानंद जी का महासमाधि में प्रवेश करना एक अद्भुत घटना थी। उनकी मृत्यु के 20 दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विक्रिया नहीं दिखाई पड़ी। शवगृह निर्देशक श्री हैरी टी. रोवे ने यह लिखा कि परमहंस योगानन्द की देह “निर्विकारता की एक अद्भुत अवस्था” में थी। जैसे कि गुरु शिष्यों को बता रहे हों कि योग और ध्यान के माध्यम से प्रकृति और समय की शक्तियों पर नियंत्रण पाना संभव है।

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