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    Jeevan Darshan: मन को जीतने के लिए फॉलो करें श्री श्री रवि शंकर जी के ये सरल टिप्स

    ब्रह्मांड में एक होता है विराट मन जिसमें सब कुछ समाहित है। फिर एक होता है छोटा मन। छोटा मन आनंद का आश्वासन तो देता है लेकिन आपके हाथ कुछ नहीं आता। वहीं विराट मन आरंभ में कुछ बाधाएं लाता है लेकिन आपके हृदय को आनंदित कर देता है। छोटे मन की विजय दुःखदायी होती है और विराट मन की विजय आनंद से भरपूर होती है।

    By Jagran News Edited By: Kaushik Sharma Updated: Mon, 03 Mar 2025 01:57 PM (IST)
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    Jeevan Darshan: कैसे करें मन पर विजय प्राप्त?

    श्री श्री रवि शंकर (आर्ट आफ लिविंग के प्रणेता आध्यात्मिक गुरु)। हमारे सुख-दुख, आसक्ति-निरासक्ति का कारण हमारा मन ही है। अत: मन को घटनाओं में उलझने न दें, घटनाओं को दृष्टा भाव से देखें और आगे बढ़ जाएं। तभी मन पर विजय प्राप्त की जा सकती है...

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    ब्रह्मांड में एक होता है विराट मन, जिसमें सब कुछ समाहित है। फिर एक होता है छोटा मन। छोटा मन आनंद का आश्वासन तो देता है, लेकिन आपके हाथ कुछ नहीं आता। वहीं विराट मन आरंभ में कुछ बाधाएं लाता है, लेकिन आपके हृदय को आनंदित कर देता है। छोटे मन की विजय दुःखदायी होती है और विराट मन की विजय आनंद से भरपूर होती है।

    (Pic Credit-AI)

    मन की दो योग्यताएं हैं - पहला है केंद्रित करना और दूसरा है विस्तार करना। उदहारण के लिए, जब आप सुई में धागा डाल रहे होते हैं, तब आपका एकदम मन केंद्रित होता है। जब आप खाली आकाश की ओर देख रहे होते हैं, तब भी मन का विस्तार होता है। जीवन में केंद्रित होने और विस्तार करने की योग्यता हमारी चेतना में एक साथ आनी चाहिए।

    आप जो कर रहे हैं, वह करते रहिए। परंतु प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा समय सब प्रयत्न छोड़कर अपने आप में शांत बने रहिए। जिस शांति को आप बाहर कहीं खोज रहे हैं, वह आपके भीतर ही है। शांति आपका स्वभाव है। आप शांति हैं, यह जानने से आपको कौन रोक रहा है? आपका अपना मन। इस पर कैसे विजय पाएं- समर्पण करके।

    मन समय का अंग है। समय प्रतिबिंब है। एक की उत्पत्ति दूसरे से ही होती है। इसीलिए, जब आप खुश होते हैं, तब समय बहुत जल्दी बीत जाता है। यदि आप नहीं जानते हैं कि समय कैसे बीत गया, तो आप प्रसन्न रहते हैं। कभी आप किसी की प्रतीक्षा में होते हैं, तब अगर ध्यान दें तो आधा घंटा भी बहुत लंबा समय लगता है। जब मन किसी काम में नहीं होता, तब भी समय लंबा प्रतीत होता है।

    कितने प्रकार का होता है मन?

    मन के दो प्रकार का होता है। एक होता है खुला मन और दूसरा होता है संकुचित मन। संकुचित मन वह होता है जो कहता है, जो मैं जानता हूं यही सही है। यह कठोर होता जाता है। खुला मन इसके विपरीत होता है, कहता है, हां, ऐसा भी हो सकता है। सीमित ज्ञान और इसका अनुपालन मन को बहुत कठोर बना देता है। जब भी आपको यह समझ में आ जाए, उस क्षण को स्वीकार करके आप आगे बढ़ सकते हैं। समस्याएं तब उत्पन्न होती हैं, जब हम यह मान लेते हैं कि हम सब जानते हैं। आपके ‘ना जानने’ से कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती। जब आप यह मानकर चलते हैं कि मुझे कम ज्ञात है, तब मन खुला हुआ रहता है। आपके बाहरी और आंतरिक विकास की सीमाएं बढ़ जाती है।

    कैसे बढ़ती है विकास की गति?

    सीमित ज्ञान से मन में पीड़ा उत्पन्न होती है। जब आपमें आश्चर्य, धैर्य, आनंद और प्रतीक्षा होती है, तब आप इस स्थिति में होते हैं कि “मैं जानता तो नहीं हूं, लेकिन ऐसा हो सकता है”। आप संसार को जानते हैं, यही सबसे बड़ी समस्या है। यह केवल संसार नहीं है, इसके कई सारे स्तर हैं, जिन्हें आप नहीं जानते हैं। जब आप परेशान होते हैं तो यह किसी कारणवश होता है। ऐसा इसलिए भी होता है, क्योंकि आप परिवर्तन के लिए तैयार नहीं होते। जब मन सभी तरह की संभावनाओं के लिए तैयार होता है, तब आपके विकास की गति बढ़ती है।

    कई बार ऐसा होता है कि आप अपने क्रोध का कारण उस व्यक्ति को मानते हैं, जो आपके समक्ष उपस्थित होता है, लेकिन बहुत बार आपके क्रोध का कारण बहुत सूक्ष्म होता है। घटना के पीछे की घटना बहुत अलग होती है, लेकिन आप सिर्फ घटना को देखते हैं, सामने मौजूद व्यक्ति को देखते हैं और उस पर सारा दोषारोपण कर देते हैं। सीमित ज्ञान यह ही करता है। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि घटना का अनुभव करने के बाद भी आप उसके परे नहीं देख पाते हैं। आपकी आंखें खुली तो है, लेकिन आप देखने और समझने के लिए पर्याप्त रूप से संवेदनशील नहीं है, क्योंकि मन का विस्तार अभी इतना नहीं हुआ है। मन अब भी व्यक्ति, वस्तु अथवा परिस्थिति में अटका हुआ है।

    मन में घटित हो रही घटनाओं को व्यक्ति, वस्तु और परिस्थिति से अलग करके देखें। जब आप गहराई में जाकर देखेंगे तो पाएंगे कि केवल एक ही अस्तित्व है। एक ही ईश्वर है और हम सब उससे जुड़े हुए हैं। एक बुद्धिमान व्यक्ति सबको अपने अस्तित्व का ही अंग मानता है, सब उसके मन का विस्तार हैं। इसीलिए दूसरों की गलतियों के पीछे कोई मंशा न देखें। किसी व्यक्ति की गलतियों को पकड़कर नहीं बैठे और उस पर दोषारोपण नहीं करें। ऐसा करने से मन सभी प्रकार के राग-द्वेष से बाहर आ जाता है और मुक्त हो जाता है। और जो मुक्त है उसके मन का विस्तार ही विस्तार है। उसे मन पर विजय प्राप्त है जो किसी भी घटनाओं में उलझे नहीं, उन्हें दृष्टा भाव से देखें और आगे बढ़ जाएं।