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    Ramcharitmanas: सारे साधनों की सिद्धि केवल राम के चरणों में है

    संसार से नीति और भगवान के चरणों में प्रीत करके मैं संसार में रहकर भी संसारी नहीं बनूंगा यह सत्संकल्प हमें मोहमुक्त कर देगा। मोह ऐसा मानसरोग है जो अधिकांशतः सुशिक्षित और सफल लोगों में पाया जाता है। जिसके कारण ऐसे लोग गुणी होते हुए भी अपने समान किसी को न मानकर पूरे समय यही चिंतन करते रहते है कि मैं किसी दूसरे से कैसे और कितना श्रेष्ठ हूं।

    By Jagran News Edited By: Pravin KumarUpdated: Mon, 17 Mar 2025 09:00 AM (IST)
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    Ramcharitmanas: भगवान राम को कैसे प्रसन्न करें?

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। भगवान के परम भक्त नारद जी, शिव की अर्धांगिनी सती जी तथा भगवान विष्णु की सेवा में रहने वाले गरुड़ जी भी भगवान की लीला के वशीभूत होकर मोह पाश में बंध गए। भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय जो देखने में बिल्कुल विष्णु स्वरूप में ही उनके द्वार पर खड़े रहते हैं, विदेश स्वरूप चार संत सनक,सनंदन, सनातन, सनत्कुमार को ईश्वर के दर्शन में बाधा डालने के कारण उन्हें भी शाप मिला और वे भी अगले जन्म में रावण और कुंभकर्ण बने। भगवान से प्रदत्त कृपा और सुंदरता, बुद्धिमत्ता को अपनी विशेषता मानकर लोगों से उसकी स्वीकृति की इच्छा ही व्यक्ति को मोहग्रस्त कर देती है।

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    महर्षि काकभुशुंडि ने पक्षीराज गरुड़ से कहा कि मोह ही समस्त मानसिक व्याधियों का मूल है। सत्संग की इसका उपचार है। सांसारिक इच्छाएं ही तो बंधन का कारण होती हैं। इनकी उपलब्धि कराने वाले से राग और सद्मार्ग की शिक्षा देने वाले से द्वेष हो जाने के कारण अंधकूप में चला जाता है। पर मोह से मुक्ति के लिए सर्वप्रथम साधक के अंदर स्वत: इस इच्छा का जागरण आवश्यक है कि वह मुक्ति चाहता है। यह संभव तब होता है, जब साधक के अंत:करण में विषयों की इच्छा न रहे और सुमति की क्षुधा का अनुभव हो।

    सुमति छुधा बाढ़ई नित नई। विषय आस दुर्बलता गई।

    विषयों की आशा के स्थान पर भगवान से यह मांगना कि मेरा संतों जैसा स्वभाव हो जाए। संत स्वभाव होते ही मानस रोग का जो मूल आधार मोह है, उससे मुक्ति संभव है।

    12 ग्रंथों में तुलसीदास जी ने अपने अंतिम ग्रन्थ विनय पत्रिका में लिखा,,

    कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो।

    श्री रघुनाथ-कृपाल-कृपा तैं, संत सुभाव गहौंगो।

    जथालाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो।

    परहित निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौंगो।

    परुष बचन अति दुसह स्रवन, सुनि तेहि पावक न दहौंगो।

    बिगत मान सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौंगो।

    परिहरि देहजनित चिंता दुख सुख समबुद्धि सहौंगो।

    तुलसिदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहौंगो।

    मात्र इतना करना है कि किसी भी व्यक्ति या पदार्थ में गुण देखकर उसका सदुपयोग करना है। परिणामतः:हम आत्मसम्मोहन रूप मोह से मुक्त हो जाएंगे। जो मिल जाए, उसमें संतोष करना। किसी से कुछ न चाहना। मन-वचन-कर्म से दूसरों के हित की बात सोचना। कटु वचन बोलकर अपनी ही जलाई हुई क्रोधाग्नि में न जलने का संकल्प लेना, सदैव दूसरों के गुण देखना, जन्म मृत्यु की इच्छा और भय दोनों से ऊपर रहकर प्रभु के नाम का जप और संकीर्तन करके समत्त्व में रहने का प्रयास करना।

    संसार से नीति और भगवान के चरणों में प्रीत करके मैं संसार में रहकर भी संसारी नहीं बनूंगा यह सत्संकल्प हमें मोहमुक्त कर देगा। मोह ऐसा मानसरोग है, जो अधिकांशतः सुशिक्षित और सफल लोगों में पाया जाता है। जिसके कारण ऐसे लोग गुणी होते हुए भी अपने समान किसी को न मानकर पूरे समय यही चिंतन करते रहते है कि मैं किसी दूसरे से कैसे और कितना श्रेष्ठ हूं। अपने गुणों पर विमोहित होना मोह का सबसे बड़ा लक्षण है। यह मोह व्यक्ति का आनंद और मुस्कुराहट छीन लेता है। असत् को सत् मानना, चैतन्य को जड़ मानना, प्रसन्नता के प्रसंगों में दुख के कारण खोजना, यह सब मोह है।

    भगवान और उनका भक्त मनुष्य रूप धारण करके भी मोह का शिकार नहीं होता है। क्योंकि सत्, चित्औ र आनंद स्थिति में मोह की कोई सत्ता होती ही नहीं है।

    राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहं मोह निसा लव लेसा।।

    जब अयोध्या का समाज, गुरु वशिष्ठ, माताएं, मंत्री सब लोग अपने अपने ढंग से श्रीभरत से अयोध्या का राज्यसिंहासन स्वीकार करने के लिए कहने लगे, तब उस समय श्रीभरत ने इसी मोह शब्द का प्रयोग किया। वह कहते हैं, मेरा जन्म कुटिल कैकेयी के गर्भ से हुआ, मैं श्रीराम से सदा विमुख रहा, निर्लज्ज हूं, इसके पश्चात भी यदि आप यह चाहते हैं कि प्रभु श्रीराघवेंद्र के स्थान पर मैं राज्य को स्वीकार कर लूं तो मैं यही कहना चाहता हूं कि आप लोगों की बुद्धि मोहग्रस्त हो गई है।

    कैकेई सुअ वकुटिलमति राम बिमुख गतलाज।

    तुम्ह चाहत सुख मोहबस मोहि से अधम के राज।।

    जो बुद्धि मुझे ईश्वर का विकल्प मानती हो, वह तो दुर्बुद्धि ही हो सकती है। यही मोह है। जब व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूर्ण करने के लिए दूसरे के प्रति परमार्थी बनकर स्वयं उसके स्वार्थ में सहयोगी की भूमिका में प्रस्तुत रहता है। विषयों से असंग बुद्धि जो मात्र भगवान में ही लगी हुई है, भरत चरित्र के द्वारा समाज को यह पता चला कि स्वार्थ और परमार्थ केवल भगवान के चरणों में ही सिद्ध हो सकते हैं। भरत ने तो अपने हित लिए स्वार्थ और परमार्थ को स्वप्न में भी नहीं देखा।

    परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुं मनहुं निहारे।।

    सारे साधनों की सिद्धि केवल राम के चरणों में है, भरत जी का यह मत है। मोह जनित संशय भी होता है,मोह जनित अभिमान भी होता है। मोह में मद और मान भी होता है, ममता और अहमता की अधिकता भी मोह के कारण ही होती है। मोह में माया का अनावश्यक विस्तार भी संभव होता है। मोहग्रस्त होना श्रेष्ठ व्यक्ति की बहुत स्वाभाविक प्रकृति है, जिसमें वह जितना डूबता है, उसे उतना ही सुख एवं गर्व का अनुभव होता है। विमोहित व्यक्ति को यह पता ही नहीं होता है कि अपनी श्रेष्ठता की स्वीकृति से उत्पन्न न जाने कितनी व्याधियां उसे जकड़ लेती हैं ।

    परिणामस्वरूप मनुष्य अपने सारे गुणों का दुरुपयोग करने के कारण दोषयुक्त होकर एक ऐसा पदार्थ बन जाता है, जो किसी भी अन्य रसायन के साथ मिलकर किसी श्रेष्ठ पदार्थ का निर्माण नहीं कर सकता है। आश्चर्य की बात यह है कि मोह कोई अकुशलता नहीं है, अपितु यह वह सुशुप्त अज्ञान है, जो कार्य कुशल लोगों में पाया जाता है। मोह रोग से ग्रस्त लोग बड़ा पुरुषार्थ करके नित्य गड्ढा खोदते जाते हैं तथा पृथ्वी में अंदर छिपे पदार्थों को अपनी उपलब्धि इसलिए मानते हैं, क्योंकि जो लोग उस गड्ढे से ऊपर जमीनी सतह पर खड़े हैं, वे उस व्यक्ति को बार-बार वाहवाही देकर पर्याप्त अर्थ और वांछित प्रशंसा देते रहते हैं। अंत में जाकर वह दूसरों को तो वे साधन दे देता है, जो उन्हें चाहिए पर स्वयं अंधतम कूप में जाकर विनष्ट हो जाता है।

    जो व्यक्ति पतझड़ को स्वीकार नहीं करेगा, उसे नवतरु के कोमल पत्तों का स्पर्श तथा दर्शन कैसे होगा, जो सूर्यास्त को नहीं मानेगा। वह सूर्योदय के उदित स्वरूप की दिव्य निरंतरता को आत्मसात कैसे करेगा? हमें पहले व्यापक होना पड़ेगा, इतना ऊपर उठना पड़ेगा कि हम संपूर्ण दृष्य प्रपंच को देखने बाले दृष्टा बन जाएं। सूर्य का प्रकाश गंदी नाली, समुद्र, अच्छा-बुरा स्थान तथा गंगा जी, पर्वत, रेगिस्तान सब पर पड़ता है, पर सूर्य सबसे असंग है।

    मानस रोगों के संदर्भ में मनुष्य की आलोचना न करके समालोचना करते हुए गरुड़ जी से काकभुशुंडि जी कहते हैं कि प्रत्येक गुण और उपलब्धि को दोष बना देना मोह की मूल प्रकृति है, पर सत्संग की निरंतरता व्यक्ति को मोहपाश से मुक्त कर सकती है। गरुड़ जी को मोहग्रस्त देख शंकर जी ने गरुड़ जी को बहुत समय तक सत्संग का उपदेश किया और बताया कि आप सुमेरु पर्वत पर चले जाइए, जहां कौआ कथा कहता है और हंस कथा सुनते हैं। शंकर जी का उद्देश्य यह था कि पक्षीराज को सबसे बड़ा सम्मान प्राप्त है कि वे पक्षियों के राजा हैं, पर ये सुमेरु पर जाकर जब देखेंगे कि हंस कथा सुन रहे हैं, तब इनके जीवन में सत्संग से जो परिवर्तन होगा, तब वे परमहंस हो जाएंगे।

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    लंकेश रावण, महाभारत में धृतराष्ट्र-गांधारी, ये तामसिक मोह के दृष्टांत हैं। रावण का मोह भी तामसिक है, जो किसी को न तो सुनना चाहता है और न ही किसी की भक्ति, ज्ञान और वैराग्ययुक्त नीति को सुनना चाहता है। राजसिक मोह के दृष्टांत परशुराम जी महाराज हैं, जिनको अपना पुरुषार्थ और पराक्रम तो दिखाई दे रहा है, पर जिनकी कृपा से वे अपनी तपस्या में सिद्ध हुए, उन राम और लक्ष्मण को नहीं पहचान पा रहे थे। भगवान ने अपने करुणामयता और शील से उनके हृदय को पवित्र करके वह दिव्य दृष्टि दे दी, जिससे वे भगवान को पहचानकर पुन: तपस्या में लीन हो गए। मोह से ऊपर होने का तात्पर्य है भगवान की कृपा दृष्टि पड़ गई।

    अर्जुन को अपने निकट के संबंधियों को देखकर मोह हो गया, भगवान श्रीकृष्ण से वह अपना विषादयुक्त हृदय खोलकर रख देता है। अर्जुन के जिस मोह विच्छेदन के लिए भगवान को 18 अध्याय में गीता का उपदेश देना पड़ा।