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    Ramcharitmanas: असल में क्या है सुख-दुख, काकभुशुंडि और गरुड़ के संवाद से जानिए

    श्रीरामचरितमानस में काकभुशुण्डि और गरुड़ संवाद में गोस्वामी तुलसीदास ने 17 प्रकार के मानस रोगों का वर्णन किया है। श्रीरामचरितमानस के उत्तरार्ध में ज्ञान भक्ति का निरूपण है। सुख-दुख के वास्तविक स्वरूप का वर्णन है। मनुष्य तन की दुर्लभता का वर्णन है। संसार में सबसे अधिक चतुर शिरोमणि वे लोग हैं जो भगवान की भक्ति प्राप्त करने के लिए अपने पुरुषार्थ का सदुपयोग करते हैं।

    By Jagran News Edited By: Suman Saini Updated: Mon, 17 Feb 2025 05:44 PM (IST)
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    Swami Maithilisharan पढ़िए स्वामी मैथिलीशरण जी के विचार।

    स्वामी मैथिलीशरण, संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन। भगवान श्रीराम की भक्ति चिंतामणि है। यह जिसके हृदय में बसती है, उसे मानस रोग कोई क्लेश नहीं दे सकते हैं। श्रीरामचरितमानस के उत्तरार्ध में ज्ञान भक्ति का निरूपण है। सुख-दुख के वास्तविक स्वरूप का वर्णन है। मनुष्य तन की दुर्लभता का वर्णन है। संसार में सबसे अधिक चतुर शिरोमणि वे लोग हैं, जो भगवान की भक्ति प्राप्त करने के लिए अपने पुरुषार्थ का सदुपयोग करते हैं।

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    मन की व्याधियों से मुक्ति के सूत्र

    एक व्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।

    पीड़हि संतत जीव कहु सो किमि लहै समाधि।।

    नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।

    भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरि जान।।

    यह भक्ति परम प्रकाश रूप में दिन-रात भक्त का रक्षण करती है। साधक को इसके प्रकाश के लिए किसी, घी, बाती, दीपक और माचिस की आवश्यकता नहीं होती है। मोह युक्त व्यक्ति इस भक्ति-मणि के प्रकाश से वंचित रहता है। अंतत: जिसके प्रकाश में भक्त के हृदय में परम प्रकाश होता है, उसी दीपक की लौ में असद्बुद्धि वाला जलकर भस्म हो जाता है।

    मानस रोगों से मुक्त होने के लिए व्यक्ति को अपनी बुद्धि रूपी सुमति कुदाली के द्वारा वेद-पुराणों का स्वाध्याय करके खोद-खोदकर ज्ञान-वैराग्य के नेत्रों के द्वारा भक्ति मणि की खोज करनी होगी। भक्ति के लिए परदोष दर्शन से मुक्त होना परमावश्यक है। अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश आदि जो अज्ञान के पांच कारण हैं, इन्हीं के कारण व्यक्ति परदोष दर्शन के कारण मानस-रोगी हो जाता है।

    संपूर्ण रामचरित सुनने के पश्चात गरुड़ जी ने काकभुशुण्डि जी से कहा कि कृपया अब आप मानस-रोग क्या होते हैं, उनका वर्णन करें। क्रमश: 17 प्रकार के रोगों का विवेचन करते हुए काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि जो रोग हमें शरीर में बाहर दिखाई देते हैं, वे सभी रोग सूक्ष्म रूप में व्यक्ति के मन में रहते हैं। इनसे संसार के सभी प्राणी ग्रस्त हैं, पर कोई भी समझ नहीं पाता है कि हममें रोग है। अपितु जो रोग उसे होता है, वह स्वयं अपने में न देखकर, वही रोग दूसरे में देखने के कारण दुखी होता रहता है। वह जिसके संपर्क में आता है, वह अपने रोगों को उनमें भी बांटता रहता है। काकभुशुण्डि जी सकल व्याधियों के मूल में मोह को ही मानते हैं, जिससे अनेक व्याधियों का जन्म होता है।

    मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला।

    तिन्ह ते पुनि उपजहिं भवसूला।।

    जीवन में जो काम की वृत्ति है, वही वात रोग है, लोभ ही कफ है, क्रोध पित्त है। जब रोगी के जीवन में कफ, वात, पित्त तीनों की विकृति हो जाती है, तब रोगी सन्निपात रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण बक-झक करने लग जाता है। विवेक पर नियंत्रण समाप्त होने के कारण जो परम सुगम सत्संग है, उसी को व्यर्थ समझने लग जाता है और अपने विनाश के मार्ग पर चल पड़ता है। हित की बात भी जब अहितकारी लगे तो समझना चाहिए कि अब इसे सन्निपात हो गया है।

    हनुमान जी ने दशानन रावण से भी उपदेश करते हुए यही कहा कि तुम्हें मोह का रोग हो गया है। इसके कारण तुम्हारा ज्ञान पक्ष विलुप्त होकर अज्ञानियों की तरह घोर तमोमय हो गया है। अहंकार के कारण श्रेष्ठ वचन सुनने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई है। मानस रोग से ग्रसित मनुष्य कुबुद्धि होकर वाणी के दोष बहुत करता है। सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह होता है कि वह व्यक्ति श्रुति विरोधी कार्य करने लगता है।

    मानस रोग से ग्रस्त व्यक्ति अपने हर पुरुषार्थ का फल सांसारिक विषयों को ही मानता है। ममता ही दाद का रोग है। ईर्ष्या की वृत्ति ही कंडु है। हर्ष और विषाद ही गले में हो जाने वाली गांठों का घेंघा रोग है। दूसरे के सुख को देख कर दुख हो और दूसरे के दुख को देखकर हर्ष हो, यही है कोढ़ का रोग।

    अहंकार ही गांठ का रोग है। नसों के रोग दंभ, कपट, मद और मान की वृत्ति हैं। जीवन में रहने वाली तृष्णा ही उदर वृद्धि का जलोदर रोग है। पुत्र, धन और मान की वृद्धि की वृत्ति ही तिजारी रोग है। मत्सर अर्थात किसी को आगे बढ़ते हुए अच्छा न लगना ही अविवेक के कारण होने वाला ज्वर है।

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    गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि एक व्याधि के कारण ही व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, पर यह तो बहुत बड़ी संख्या में हैं। कैसे व्यक्ति शांति समाधि को प्राप्त कर सकेगा। तुलसीदास जी कहते हैं कि विडंबना तो यह है कि रोग मिटाने के लिए यदि कोई संत सुहृद जीवन में आकर समझाए भी तो मानस रोगी उनके प्रति कृतज्ञ न होकर क्रोध करता है। विषय का कुपथ्य पाकर अच्छे से अच्छे मननशील मुनि लोगों में भी ये मानस रोग पाए जाते हैं तो सामान्य व्यक्ति की तो बात ही क्या कही जाए।

     

    सद्‌गुरु यदि जीवन में आ जाएं और फिर उनके वचनों पर विश्वास हो, गुरु के बताए मंत्र का जप हो, विषयों की आशा न करे, तब भगवान की भक्ति ही वह संजीवनी बूटी है, जो श्रद्धा के अनुपान में लेने से ये रोग जा सकते हैं, अन्यथा सारा संसार इन मानस रोगों से ग्रस्त होकर एक-दूसरे की सीमा और अधिकारों में अपना अधिकार और शक्ति प्रदर्शन के मिथ्या प्रदर्शन से दुखी होता रहेगा और दुख दूसरों को भी देता रहेगा।

    गुर श्रुति संमत धरम फलु पाइअ बिनहिं कलेस।

    हठ बस सब संकट सहे गालव नहुष नरेस।।

    बिना किसी विशेष प्रयास के ही व्यक्ति संसार के सारे सुखों को प्राप्त कर सकता है, पर व्यर्थ ही श्रुति विरोधी कार्य में रत रहकर भगवान की परम कृपामयी भक्ति से विरत रहता है। जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ भगवान की कृपा की प्राप्ति है, बाकी सब मजदूरी के अतिरिक्त कुछ नहीं है। रावण कुंभकर्ण की उत्पत्ति, हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, शिशुपाल, दंतवक्र, कंस, सबके सब राक्षस और दैत्य, मूल रूप से मानस रोगों के कारण ही बुराई और विनाश को प्राप्त हुए।

    मानस रोग एक प्रकार का मौन वायरस है, जो बिना बोले आता है और वाणी के द्वारा श्रुति विरोधी प्रयोग के कारण देश, काल, व्यक्ति को दूषित कर देता है। पूरी रामचरितमानस की कथा के मूल में किसी न किसी सूक्ष्मतम मानस रोग ही कारण बना, जिससे निवृत्ति के लिए सत्संग और गुरु कृपा की दिव्य औषधि देकर संसार के कल्याण के लिए साधन रूप बताया गया।