Swami Dayananda Saraswati: मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाता है स्वामी दयानंद जी का सिद्धांत
स्वामी दयानंद जी ने अपना आध्यात्मिक चिंतन प्रकट करते हुए स्पष्ट किया कि मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। इसके लिए उन्होंने अष्टांग योग अर्थात यम नियम आसन प्राणायाम प्रत्याहार धारणा ध्यान और समाधि का मार्ग अपनाने पर बल दिया। स्वामी दयानंद जी का दर्शन व आध्यात्मिक चिंतन मनुष्य को देवत्व की ओर ले जाने का मार्ग दिखाता है।

डा. राकेश कुमार आर्य, इतिहासकार व अध्यात्मवेत्ता। स्वामी दयानंद जी संसार को उसी प्रारंभिक अवस्था में ले जाना चाहते थे, जब सभी लोग इस बात से सहमत थे कि समस्त संसार के जन एक ही मानव जाति से संबंध रखते हैं, उनका एक ही पिता है। एक ही माता है।
एक ही गुरु (परमपिता परमेश्वर) है। इसलिए सब एक परिवार के जन सिद्ध होते हैं। स्वामी जी ने वेद की भाषा में लोगों को समझाते हुए कहा कि संसार में आकर आर्यत्व अर्थात श्रेष्ठता के गुणों को धारण करना मनुष्य का प्राथमिक लक्ष्य है।
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश जैसे पांच क्लेशों को जीतना मुमुक्षु अर्थात मोक्ष अभिलाषी मनुष्य की साधना का लक्ष्य होता है। स्वामी जी की मान्यता थी कि जब तक चित्त एकाग्र रहता है, तब तक चित्त की वृत्तियां अपने काम में लगी रहती हैं और आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति में ही काम करती रहती हैं।
चित्त की एकाग्रता से आत्मा की बहिर्मुखी वृत्ति जागृत होती है और जब बहिर्मुखी वृत्ति को भी बंद कर दिया जाता है, तब अंतर्मुखी वृत्ति स्वयमेव जाग्रत होकर अपना काम करने लगती है। चित्त की वृत्तियां हैं - पहली प्रमाण, अर्थात प्रत्यक्ष अनुमान और आगम (आप्तोपदेष), दूसरी विपर्यय, अर्थात मिथ्याज्ञान, तीसरी विकल्प, अर्थात वस्तु शून्य कल्पित नाम, चौथी निद्रा (सोना) और पांचवीं स्मृति, अर्थात पूर्व श्रुत और दृष्ट पदार्थ का स्मरण चित्त में आना।
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अष्टांग योग के यम और नियम पर अपने विचार व्यक्त करते हुए स्वामी जी ने स्पष्ट किया कि अपने चारों ओर शांति का वातावरण उत्पन्न करना यम है। यम को पांच भागों में विभक्त कर सकते हैं -
1.अहिंसा - मन, वचन, कर्म तीनों से किसी भी प्राणी को कष्ट न देना अहिंसा है।
2.सत्य - मन, वचन, कर्म तीनों से सत्य का प्रतिष्ठित होना सत्य है।
3.अस्तेयं - मन, वचन, कर्म तीनों से चोरी न करना।
4.ब्रह्मचर्य - शरीर में रज-वीर्य की रक्षा करते हुए लोकोपकारक विद्याओं को ग्रहण करना, मातृत्व-पर-दारेषु की भावना होना।
5 अपरिग्रह - धन का संग्रह करने, रखने, खोये जाने की तीनों ही अवस्था दु:खकारी हैं, इसलिए धन संचय की इच्छा न करना अपरिग्रह है।
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दयानंद जी ने बताया कि अपने कर्मफल में दुखी न होना पड़े, इसलिए निम्न पांच बातों का पालन करना चाहिए -
- शौच: बाह्य और अंत:करणों की शुद्धि रखना शौच है।
- संतोष: पुरुषार्थ से जो प्राप्त है, उससे अधिक की इच्छा न रखना। तप-शीतोष्ण-सुख दुखादि को एक जैसा समझना और नियमित जीवन व्यतीत करना तप कहलाता है।
- स्वाध्याय : ओंकार का श्रद्धापर्वूक जप करना और वेद उपनिषदादि उद्देश्य साधक ग्रंथों का निरंतर अध्ययन करना स्वाध्याय है।
- ईश्वर प्राणिधान: ईश्वर का प्रेम हृदय में रखना, उसे ही अत्यंत प्रिय एवं परम गुरु समझना, अपने समस्त कर्मों का उसके अर्पण करना, सदैव उसी के ध्यान में रहना ही ईश्वर परायणता है। स्वामी जी ने मनुष्य को आध्यात्मिकता में रंगने के लिए मनुष्यत्व से देवत्व की ओर ले चलने का संकल्प लिया।
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