सत्संग से खुलती है अहंकार की गांठ, जीवन में रखें इन बातों का ध्यान
नारी की सुरक्षा नारी का सम्मान नारी की महानता तथा नारी में आदर्श के आधिपत्य को स्थापित किया तुलसी के राम ने। कदाचित नारी को अपने लिए परिवार और अपनी प्रिय संतान के लिए स्वातंत्र्य को पुनर्भाषित करना होगा। उनमें ईश्वर के द्वारा प्रदत्त दिव्यता और ऐश्वर्य को आत्मशोधन करके उसका सदुपयोग करना होगा।
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। श्रीरामचरितमानस में काकभुशुंडि जी ने गरुड़ जी को मानस-रोगों के बारे में बताया है। इस शृंखला में आज पढ़िए अहंकार रूपी डमरुआ रोग की पहचान और निदान, जिसे अज्ञान की मिथ्या ग्रंथि खोलने से दूर किया जा सकता है...
स्वयं के अस्तित्व को अतिविशिष्ट और श्रेष्ठ मानना ही दूसरे की अवमानना है। संसार के अधिकांश सफल लोग जीवन में अपने अकेलेपन का कारण केवल दूसरों में देखकर मानसिक विषाद के रोगी हो जाते हैं। वे गोलियां खाते हैं। ज्योतिषी के पास जाते हैं। काउंसलर से सलाह लेते हैं। काउंसलर उन कारणों की काउंसलिंग करता है, जिन्हें हम स्वयं जन्म देते हैं और उन समस्याओं का पालन-पोषण करके हम स्वयं को श्रेष्ठतम मानते हैं।
चाहे स्वाध्याय हो, प्रेम हो, ज्ञानोपार्जन हो या फिर धनार्जन, जीवन के हर क्षेत्र में अहं से ऊपर उठना तथा दूसरे के अहं का सम्मान करना होता है। यही मार्ग ज्ञान का है। यही भक्ति और कर्म का मार्ग है। कर्मयोग भी यही है, कर्म-संन्यास योग तथा ज्ञान कर्म संन्यास योग भी यही है। नारी और पुरुष दोनों वर्गों में अति सूक्ष्मता से विचार करने पर हमें यह समझ आ जाएगा कि दोनों में जीवनपर्यंत एक सूक्ष्म प्रतिस्पर्धा से मुक्त होने का ग्रंथि-बंधन जो मंडप में हुआ था, वह विपरीत दिशा में बना ही रहता है। अधिकांश लोगों के जीवन में यह ग्रंथि खुल ही नहीं पाती है। उसका कारण केवल एक ही है कि अहंकार की वह गांठ, जो केवल सत्संग से खुलती है, उस सत्संग की हम अवहेलना करते हैं।
नारी की सुरक्षा, नारी का सम्मान, नारी की महानता तथा नारी में आदर्श के आधिपत्य को स्थापित किया तुलसी के राम ने। कदाचित नारी को अपने लिए, परिवार और अपनी प्रिय संतान के लिए स्वातंत्र्य को पुनर्भाषित करना होगा। उनमें ईश्वर के द्वारा प्रदत्त दिव्यता और ऐश्वर्य को आत्मशोधन करके उसका सदुपयोग करना होगा। देश की सेवा के लिए इससे बड़ा परमार्थ कोई नहीं होगा कि नारियां अपनी मूल संस्कृति को गर्भ की तरह घारण करके आदर्शों को जन्म दें। रामचरितमानस में चाहे रावण हो, चाहे बालि, दोनों की पत्नियों ने श्रीराम के रामत्व और उनकी भगवत्ता को पहले ही पहचान लिया था, जिसे उनके पति नहीं जान सके। दोनों की मृत्यु के पश्चात बालि की पत्नी तारा तथा रावण की अर्धांगिनी, दोनों को भगवान ने तत्वज्ञान का उपदेश देकर उन्हें इस अभिनिवेश से ऊपर उठाया कि तुम्हारे जीवन में कुछ अभाव हो गया है या कुछ समाप्त हो गया। अज्ञान मूर्ख व्यक्ति में नहीं होता है, क्योंकि वह ज्ञान को न जानता है, न ही चाहता है। अज्ञान के शिकार तो ज्ञानी हो जाते हैं, वह भी केवल अपनी श्रेष्ठता के अहंकार के कारण।
कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में सत्संग का क्या है तात्पर्य
लंका के रणक्षेत्र में विभीषण को और कुरुक्षेत्र में अर्जुन को अलग-अलग पद्धति से विषाद हो गया, जिसके सुफलस्वरूप एक कृष्णगीता और एक रामगीता प्रकट हुई। लंका या कुरुक्षेत्र के रणक्षेत्र में सत्संग का क्या तात्पर्य है? अध्यात्म ज्ञान यह बताता है कि यह पूरा जीवन रणक्षेत्र है। सबसे अधिक सत्संग की आवश्यकता यहीं है, क्योंकि इसमें विजयी होकर अपना सीना फुलाना नहीं है, अपितु ईश्वर के चरणों में नतमस्तक होकर विभीषण और अर्जुन की तरह मोहमुक्त होकर शरणागत हो जाना ही तो परम तत्व को जान लेना है। वही ज्ञान, भक्ति, कर्म का सुफल है।
एक दूसरे के पूरक होते हैं पुरुष और स्त्री
पुरुषार्थ शब्द पढ़कर पुरुष को यह अहंकार हो जाता है कि पुरुषार्थ तो पुरुष ही करता है। पुरुषार्थ का पूरक शब्द है कृपा। कृपा और पुरुषार्थ दोनों एकदूसरे के वैसे ही पूरक हैं, जैसे स्त्री और पुरुष। जो स्त्री कर सकती है, वह पुरुष नहीं कर सकता है। जो पुरुष कर सकता है, वह स्त्री नहीं कर सकती है। दोनों की अपूर्णता तो दोनों को यह समझने से ही पूर्ण सिद्ध होगी। दो लोग एकदूसरे के पूरक होते हैं, यह समीकरण भगवान की कृपा के बिना कभी सुलझेगा ही नहीं। उपलब्धि में भगवान की कृपा मानने से ही घर चलता है, संबंध चलते हैं और व्यवहार चलता है। उसी में अपना पुरुषार्थ मानकर यदि आपस में लड़ेंगे तो लड़ते रहिए और न्यायाधीशों की संख्या, वकीलों और जेलों की संख्या बढ़ाते रहिए, कुछ दिन बाद पागलखाने बनने शुरू हो जाएंगे।
स्त्री के जीवन में पुरुष उसका सम्मान है। उसकी सुरक्षा है। उसका शृंगार है। उसका गौरव और सुख है। इसी प्रकार, पुरुष के जीवन में वही स्थान स्त्री का है। नारेबाजी से जीवन नहीं चलता है। नारेबाजी करनेवालों को भी लंच पैकेट के साथ पानी की बोतल देनी होती है। केवल पानी या केवल भोजन से काम नहीं चलता है। पूरक तत्व सबको चाहिए।
कब मिलता है वात्सल्य सुख
जीवन को संतुलित और सुंदर बनाने का यदि कोई स्थान और आश्रम है तो वह है घर, जिसमें रहकर दूसरे के अहंकार की पूजा के द्वारा जीवन में परम लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। गृहस्थ ही संन्यास को जन्म देता है। इसी संतुलन के लिए 18 पुराण लिखे गए। इसी के लिए गीता और इसी के लिए वेद व रामायण लेखे गए। शास्त्र विदित, श्रुति विदित, स्मृति विदित ज्ञान की उपेक्षा का फल सारा संसार भोग रहा है। स्त्रियों को बहुत गंभीरता से यह विचार करना चाहिए कि पौरुष प्रतिस्पर्धा में आप कहीं अपने जीवन के परम सुख से वंचित तो नहीं हो रही हैं? वात्सल्य सुख तब मिलता है, जब बालक को स्वयं सुख दिया जाता है। हमारे मनोमस्तिष्क में जो चल रहा है, संतान हमें वही देगी और भविष्य में हम अपने कर्म को ही जन्म देंगे, बच्चे को नहीं।
दूसरे से श्रेष्ठ बनना मुख्य लक्ष्य है
हमारी सबसे बड़ी कमजोरी अब यह बनती जा रही है कि हम सब दूसरे की तरह या दूसरे से श्रेष्ठ बनना चाहते हैं, हमारा मुख्य लक्ष्य और केंद्र दूसरा हो गया है। हम अपनी तरह नहीं बनना चाहते हैं। हम पूर्ण तब होते हैं, जब हम भगवान के बनाए हुए संबंधों में ईश्वर की कृपा देखें। पुत्र का पूरक पिता है, गुरु का पूरक शिष्य है, रात्रि का पूरक दिन है। हम केवल प्रतिस्पर्धा और भौतिक मिथ्या प्रदर्शन की होड़ में अपना देश छोड़कर विदेश में भागे जा रहे हैं। माता-पिता की सेवा करने के लिए कहते हैं नौकर नहीं मिलते, नौकर को विदेश जाने की इच्छा क्यों न हो? पति-पत्नी में प्रेम का आधार सैलरी का पैकेज हो गया। प्रेम और संबंधों का स्थान व्यवसाय और अनुबंध हो गए।
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इस अहंवृत्ति से ऊपर उठकर विचार करना होगा। स्त्री यदि अपने परिवार और अपने पति की परतंत्रता को स्वीकार करती है तो उसके सम्मान, सुरक्षा, शृंगार, गौरव तथा शील का रक्षण होता है। पति यदि उसके इस त्याग के प्रति समर्पित न होकर रावण बनकर हमेशा मंदोदरी का विकल्प खोजता रहेगा तो लंका जलेगी। पानी के पाइप में चूड़ी उल्टी इसलिए बनाई जाती है, ताकि वह दूसरे पाइप से जुड़कर दूर तक पानी पहुंचा सके। विपरीत बनावट किसी की कमी न होकर हमारी पूर्णता है, यही ईश्वर की विशेषता है कि उसने सृष्टि ऐसी बनाई, जिसके कारण सब लोग एकदूसरे की आवश्यकता का अनुभव करके एकदूसरे के स्वार्थ की पूर्ति करें।
श्रीरामचरितमानस में भगवान श्रीराम ने गुरुदेव, पिता, माता, भरत, हनुमान जी, अयोध्यावासी, परशुराम जी, बंदर, अंगद, शबरी, कैकेयी कोई ऐसा पात्र नहीं है, जिसकी उनके श्रुतिमुख से प्रशंसा न की गई हो। यह श्रुति सत्य है, इसीलिए रामराज्य हमारा आदर्श है, जो सत्संग से ही संभव है, जो सद्ग्रंथों के स्वाध्याय से उपलब्ध होगा।
मानसिक रोग है अहंकार
काकभुशुंडि जी ने अहंकार को डमरुआ रोग बताया, क्योंकि डमरुआ जिसको हो जाता है, उसके किसी अंग विशेष में एक फोड़े जैसा रूप बन जाता है। वह अंग दूसरे अंगों की तुलना में फूलकर ऊपर उठ जाता है। रोगी इसे देखकर प्रसन्न नहीं होता है कि चलो दूसरे अंगों की तुलना में हमारा एक अंग बहुत प्रगतिशील हो रहा है, अपितु वह व्यक्ति चिकित्सक को दिखाता है कि आप औषधि दे दीजिए। समस्या तो यही है कि शरीर के डमरुआ को लेकर तो वैद्य के पास बहुत लोग जाते हैं, पर मन के डमरुआ को लेकर सद्गुरु वैद्य के पास कोई नहीं जाता कि हमें दूसरे का सुख देखकर अच्छा नहीं लगता है और अपना उत्कर्ष देखकर हम बहुत फूलते जा रहे हैं।
यही अहंकार का डमरुआ आज भाई-भाई में, पति-पत्नी में, पिता-पुत्र में, मित्र-मित्र में मानस रोग के रूप में बुरी तरह फैलता जा रहा है। विधर्मी लोग आपकी इस आंतरिक कमजोरी का भरपूर लाभ उठाकर आपके कमजोर भाग पर प्रहार करके आपके बीच आपस में ही दूरी और वैमनस्यता का विष घोलते जा रहे हैं। आपसी समर्पण का दूसरा नाम है अहं का समर्पण, जिसको सत्संग में बताया जाता है।
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