जीवन दर्शन: हम और पर्यावरण दो अलग शब्द नहीं, न करें इन बातों को अनदेखा
पेड़-पौधों का व्यक्तियों के साथ संवेदनशील संबंध होता है। वे हमारे लिए जीवन का वातावरण तैयार करते हैं। तभी तो बरगद जैसे संवेदनशील वट-वृक्षों की हमारे यहां पूजा होती है। ऐसे में जब वट सावित्री अमावस्या (26 मई) आने वाली है तो आइए वट वृक्ष और पर्यावरण के महत्व को समझते हैं।

सद्गुरु (ईशा फाउंडेशन के प्रणेता आध्यात्मिक गुरु)। पेड़-पौधे आपकी भावनाओं और सोच के प्रति बहुत संवेदनशील होते हैं। विशेष रूप से कुछ पेड़-पौधे। माना जाता है कि फिकस नस्ल के पेड़-पौधे, जैसे बरगद का पेड़ और उस परिवार के और दूसरे पेड़ बहुत संवेदनशील होते हैं। यही वजह है कि उन्हें भारत में ध्यान के लिए चुना जाता है। उनकी पूजा भी होती है।
अगर आप बरगद या ऐसे ही किसी वटवृक्ष के नीचे साधना करते हैं, तो यह आपके लिए एक माहौल तैयार कर देता है। यह अपने-आप में एक ध्यान कक्ष बन जाता है।
उपजाई गई ऊर्जा
आपके द्वारा उपजाई गई ऊर्जा के प्रति ये पौधे बहुत संवेदनशील होते हैं। जब हम ध्यानलिंग तैयार कर रहे थे, तब मैंने पाया कि कुछ पौधे उस माहौल के लिए प्रतिक्रिया देते हुए अपना सहयोग दे रहे थे। यह वास्तव में अद्भुत था। अगर आपके पास बहुत सारे पेड़ हैं और वहां ध्यान होता है तो उस इलाके की ध्यानपरक खूबी को बनाए रखना आसान होगा।
क्योंकि पेड़-पौधे उस खूबी को आसानी से संजोए रखते हैं। कुछ पेड़ ऐसे हैं, जो आज भी इस दृष्टि से बहुत ताकतवर माने जाते हैं।
पौधे बेमौसम ही खिल उठते
इसके बारे में कई तरह के किस्से हैं। कहा जाता है कि जब गौतम बुद्ध चलते थे तो बहुत सारे पौधे बेमौसम ही खिल उठते थे। हो सकता है कि यह एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति हो, पर यह सच भी हो सकता है, क्योंकि ऐसा होना संभव है। दक्षिण भारत, कर्नाटक के बिलीगिरिरंगा पहाड़ियों में डोडा संपिगे (चंपा) नामक पेड़ है। यह कुछ हजार साल पुराना कहा जाता है।
कहते हैं कि उसे अगस्त्य मुनि ने लगाया था और उसकी बहुत सारी कथाएं हैं। अक्सर इसका जीवनकाल कुछ सदियों का होता है, पर यह बहुत पुराना है। आपने ऐसा चंपा का पेड़ नहीं देखा होगा, यह अपने-आप में उलझ कर बहुत विशाल और विस्तृत हो गया है।
विवेक का रूप मानने की परंपरा
इस संस्कृति में, हजारों सालों से पेड़ों को बचाने और उन्हें जीवन और विवेक का रूप मानने की परंपरा रही है। इनमें से किसी भी पक्ष को आज सही तरह से बचाया नहीं जा सका है और उनमें से ज्यादातर खत्म हो चुके हैं। लेकिन पेड़ों को ऊंचा मानकर उनसे कुछ ज्ञान प्राप्त करने की परंपरा हमेशा रही है।
एक बार मैं यूरोप में हो रहे एक इकोलाजी समिट में गया था। वहां एक प्रोफेसर ने पास आकर मुझसे कहा, ‘ओह, तो आप वही हैं - पेड़ लगाने वाले अद्भुत इंसान?’ मैंने कहा, ‘नहीं, मैं कोई पेड़ लगाने वाला नहीं हूं।’
‘पर आपने लाखों पेड़ लगाए हैं?’
‘फिर भी मैं पेड़ उगाने वाला नहीं हूं।’ उसने हैरानी से पूछा, ‘तब आप क्या करते हैं?’
मैंने कहा, ‘मैं इंसानों को खिलाने का काम करता हूं।’ अगर इंसान अपनी पूरी समझ और जागरूकता के साथ खिलेगा और अपने आसपास के पर्यावरण से जुड़ेगा, तब हमें पता चलेगा कि हम और पर्यावरण दो अलग शब्द नहीं हैं। सीधे शब्दों में कहें तो जब आप सांस छोड़ रहे हैं तो पौधे उसे ले रहे हैं। पौधे जो सांस छोड़ रहे हैं, उसे आप ले रहे हैं। केवल आधा श्वसन तंत्र ही आपकी छाती में है। बाकी आधा तो पेड़ पर लटक रहा है। अगर आपने उस आधे को नहीं संभाला तो बाकी आधे का वजूद भी खतरे में आ जाएगा।
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पारिस्थितिकी हमारा जीवन है
पारिस्थितिकी हमारा जीवन है। कहीं न कहीं हमें लगता है कि मात्र हम ही जीवन हैं। लोग सोच रहे हैं कि उनका शरीर ही जीवन है, इसलिए उन्हें केवल अपने में ही जीवन दिखता है। अगर आप आध्यात्मिक रूप से जागे हुए हैं, तो आपको पता होगा कि हर वस्तु में जीवन है। तब आपको कहना नहीं होगा कि आप पर्यावरण की रक्षा करें।
लोग दूसरे जीवों के लिए प्रेम की वजह से पर्यावरण की बातें नहीं कर रहे, उन्हें एहसास होने लगा है, ‘मेरा जीवन खतरे में है। अगर ऐसा रहा तो मैं और मेरे बच्चे जीवित नहीं रहेंगे। हमें इसके लिए कुछ न कुछ करना होगा।’ किसी ने आपको याद दिला दिया है कि आपका जीवन संकट में है। अपने आसपास के
आध्यात्मिकता का मूल अर्थ
जीवन की परवाह करने के लिए यह तरीका बदकिस्मत माना जा सकता है। हमारा जीवन एक-दूसरे से आपस में जुड़ा है। आध्यात्मिकता का मूल अर्थ है, सभी को साथ लेकर चलने का अनुभव। जब ऐसा अनुभव आपके पास होता है तो आप अपने आसपास हर किसी की चिंता और परवाह करते हैं। क्योंकि जो भी अपने भीतर देखता है, उसे प्राकृतिक रूप से प्रतीत होता है कि वह और बाहरी अस्तित्व अलग नहीं हैं।

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