Jeevan Darshan: श्रीरामचरितमानस सीखाती है जीवन जीने के तरीके, इन बातों को न करें अनदेखा
श्रीरामचरितमानस (Shri Ramcharitmanas) में काकभुशुंडि जी ने गरुड़ जी के समक्ष मानस रोगों का वर्णन किया है। इस शृंखला में पढ़िए लोभ ममता ईर्ष्या हर्ष विषाद और कुटिलता जैसे मन के रोगों का कारण-निवारण व विश्लेषण तो आइए इस आर्टिकल में श्रीरामचरितमानस से जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानते हैं जो इस आर्टिकल में विस्तार से बताई गईं हैं।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। हमारे अंदर अपनों के प्रति जो ममता है, वही मन का दाद रोग है। ईर्ष्या ही खुजली का रोग है। एक रोग होता है कंड, जिसमें रोगी के गले में गांठें बन जाती हैं, जिससे वह गले में कुछ गटकने में कष्ट का अनुभव करता है। हमारे जीवन में हर्ष और विषाद का होना ही कंड का रोग है। दूसरे के सुख को देखकर जो जलन होती है, वही क्षय रोग (टीबी) है।
गुरु चरणों में जाकर सत्संग किए बिना ये रोग समझ में नहीं आते हैं, तो फिर जानने का प्रश्न ही कहां?जिसको हमने अपना माना है, वह जो भी करे, वह सब उचित मानना, वहीं दूसरा, जिसको हमने पराया माना है, उसके हर कार्य में दोष दिखाई देना हमारे दुख का स्थायी कारण है।
महारानी कैकेयी को इसी अज्ञान ने घोर कष्ट में डाल दिया, जिसका निराकरण उन्हीं के पुत्र सद्गुरु भरत के द्वारा हुआ, जो अपने-पराए की वास्तविकता और सत्यनिष्ठा में निष्ठ थे। भरत की सत् निष्ठा का परिणाम ही रामराज्य है और कैकेयी की मिथ्या धारणा का परिणाम श्रीराम का वन गमन है। मंथरा के संग से वे सत् से विभक्त हो गईं।
भक्ति में सत्संग
भक्ति में सत्संग तो होता है, पर आगे चलकर संग का अभाव हो जाता है और सत् शेष रह जाता है। अहं ब्रह्मास्मि में भी अहं निकालकर ही ब्रह्म सिद्ध होता है। तभी अस्मि सिद्ध होता है। संसार के अधिकांश प्राणियों के दुख का कारण दूसरों का सुख है और सुख का कारण दूसरे का दुख है। यह अभिनिवेश बड़े-बड़े महारथियों के जीवन में हाथी की तरह सूंड़ उठाए हुए स्वयं को और स्वयं के कार्यों को बताने में गर्व का अनुभव करता रहता है।
मुख से स्वयं बार-बार यह सिद्ध करें
जब संसार ने किसी को ज्ञानी मान लिया, तभी तो उसका सम्मान हो रहा है! फिर यदि ज्ञानी अपने मुख से स्वयं बार-बार यह सिद्ध करे कि मैंने क्या-क्या किया जो अभी तक किसी ने नहीं किया, वह उसी प्रकार का कार्य हो जाता है, जैसे हाथी को नदी में ले जाकर नहलाया गया और हाथी ज्यों ही नदी से निकलकर मिट्टी में आया और उसने अपनी ही सूंढ़ से अपने ऊपर पुन: मिट्टी डालकर अपने को यथास्थिति कर लिया। यह तभी होता है, जब ज्ञान पुरुषार्थ विषयक होता है, कृपा विषयक नहीं।
अहं ब्रह्म को सिद्ध नहीं कर सकता है। अहं के निर्मूल होने पर ब्रह्म को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता रहती ही नहीं है। बादल हटने के बाद आकाश तो स्वयंसिद्ध है।
मानस रोग
अपनी सफलता पर हर्ष हो रहा है, वहीं दूसरे की सफलता पर विषाद हो रह है, यह मानस रोग सारे संसार में ग्लानि की जगह गर्व का विषय बना हुआ है। जैसे शरीर में कहीं दाद हो जाए तो खुजलाने से घाव बन जाता है, फिर भी रोगी को खुजलाने में इतना सुख मिलता है कि वह कष्ट को भूलकर वर्तमान के तात्कालिक सुख के लोभ में अपना भविष्य बिगाड़ लेता है। कभी खुजलाते-खुजलाते वही कोढ़ रूप में बदल जाता है, परिणाम होता है फिर उसके पास कोई बैठना भी पसंद नहीं करता है।
इसके बाद फिर दंभ, कपट, मद, मान के रोग घेर लेते हैं, फिर तृष्णा, उदर वृद्धि और मिले का रोग हो जाता है, यही तो उदरवृद्धि है, जिसमें व्यक्ति का पेट कभी भरता ही नहीं है। गोस्वामी जी कहते हैं कि दंभ का तात्पर्य है कि इच्छा तो है, पर साधक दिखाता है कि हम तो बिल्कुल निष्काम है,
लोभ कें इच्छा दंभ बल काम के केवल नारि।
क्रोध कें परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि।।
लोभ में इच्छा
लोभ में इच्छा होती है, पर कोई समझ न जाए इसके लिए व्यक्ति कपट का आश्रय लेकर यह दंभ करता है कि मुझे तो कुछ नहीं चाहिए। दूसरों से मान की इच्छा ही नेहरुआ रोग है, जो शरीर में तो नसों का रोग होता है। मन में भी जब नेहरुआ का रोग होता है तो वह व्यक्ति सब जगह अपने सम्मान की आशा करता है और उसकी पूर्ति न होने पर अपने दुख को सैद्धांतिक रूप देकर दूसरों को प्रभावित कर संसार के स्वार्थी लोगों की मिथ्या सहानुभूति लेकर अपने मानवृत्ति को पुष्ट करता है।
समस्त रामकथा
समस्त रामकथा सुनाने के पश्चात काकभुशुंडि जी ने गरुड़ जी के समक्ष मानस रोगों का वर्णन इसलिए करना उचित समझा, क्योंकि भुशुंडि और भुशुंडि शर्मा के रूप में पूर्व जन्म में वे स्वयं मानसिक रोग से ग्रस्त रह चुके थे और गुरु लोमश की तथा भगवान शंकर की कृपा से सत्संग में सत् को धारण करने के कारण वे संसार से बहुत ऊपर उठकर कैलाश के उस शिखर पर जाकर बसने लगे जहां उनके आश्रम के चारों ओर एक-एक कोस तक अज्ञान का प्रवेश ही नहीं हो सकता था। गरुड़ जी ने सुमेरु पर्वत पर बसे उस आश्रम में पहुंचते ही कहा कि,
''नाथ देखि सुंदर तव आश्रम।
गयऊ मोह संसय नाना भ्रम।।'
आश्रम में पहुंचते ही मोह,संशय,भ्रम सबका निर्मूलीकरण हो गया। लंका के रणक्षेत्र में भगवान को नागपाश में बंधे हुए देखकर भगवान की सगुण लीला में गरुड़ जी को यह मोह हो गया था कि जिनका नाम लेने से जीव भव बंधन से छूट जाता है, एक सामान्य निशाचर ने इनको अपने पाश में बांध दिया? ये कैसे भगवान हैं? मुक्तिदाता और मुक्तस्वरूप काकभुशुंडि जी ने गरुण जी के मोह को न देखकर उसमें अपने ऊपर भगवान की कृपा देखी कि जिस मुक्ति और भक्ति को मैंने कृपा से पाया है, गरुड़ जी को भी मैं उस कृपा का अनुभव करा दूं।
सद्गुरु के वचन
सद्गुरु के वचनों पर विश्वास करना और सांसारिक विषयों की आशा न करना तथा सत्संग करने के अतिरिक्त मानस रोगों से मुक्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है। काकभुशुंडि जी कहते कि जब प्रभु राम की कृपा होती है, तब यह संयोग बन जाता है कि सत् का योग संग से हो जाता है, जिसका अंतिम परिणाम यह होता है कि केवल सत् स्वरूप ही स्वरूप स्मृति के रूप में शेष रह जाता है, अज्ञान से निवृत्ति हो जाती है। तभी जीव मानस रोगों से मुक्त होता है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।