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    Jeevan Darshan: कर्म, विश्वास और संबंध जीवन के तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Sun, 08 Jun 2025 11:54 PM (IST)

    हमारे मन की समस्या यह है कि मन आसानी से चीजों को स्वीकार नहीं कर पाता। इस समस्या का समाधान भी केवल मन ही है। मन में नकारात्मक भाव है तो सकारात्मक भाव भी हैं। हमें नकारात्मकता की बात नहीं करनी है। हमें अस्वीकार नहीं अपितु स्वीकारोक्ति का मंत्र ग्रहण करना है। जब हम स्वीकार करना सीखते हैं जीवन उत्सव बन जाता है।

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    Jeevan Darshan: सकारात्मकता में परिवर्तित करने की विद्या है

    मोरारी बापू (प्रसिद्ध कथावाचक)। कर्म सिद्धांत जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू है। कर्मों का फल अवश्य मिलता है, चाहे वह अच्छा हो या खराब। इससे छुटकारा पाना बहुत मुश्किल होता है। हां, किसी बुद्ध पुरुष की कृपा हो जाए तो बात दूसरी है। जो भी कर्म हम करते हैं, वे जीवन को एक न एक दिन अवश्य प्रभावित करते हैं। इसका मतलब है कि हमारे कर्मों का फल अवश्य मिलता है।

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    कर्म ही पूजा है, क्योंकि कर्म ही मनुष्य को अच्छा या बुरा बनाता है। इससे उसे सुख या दुख की प्राप्ति होती है। कर्मों से ही भगवान की प्राप्ति हो सकती है। भगवान राम अपने कर्मों से महान बने और सुग्रीव, जटायु, हनुमान और विभीषण जैसे पात्र भी अपने अच्छे कर्मों के कारण अनुकरणीय बने।

    कर्म सकाम और निष्काम हो सकते हैं। सकाम कर्म वो हैं, जो फल की इच्छा से किए जाएं और निष्काम कर्म वो हैं, जो फल की इच्छा के बिना किए जाएं। कर्म बंधन नहीं है, बल्कि यह जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा है। जो लोग निष्काम कर्म करते हैं, वे कर्म से मुक्त होते हैं। कुल मिलाकर, कहा जा सकता है कि कर्म सिद्धांत जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और हमें अच्छे कर्म करने चाहिए ताकि हमें अच्छा फल मिल सके।

    जीवन के तीन महत्वपूर्ण पहलू हैं- कर्म, विश्वास और संबंध। इन तीनों पहलुओं पर बिना विवेक के नहीं चलना चाहिए। यह संसार एक प्राणी संग्रहालय की तरह है। इसमें विवेक विरोधी कोई कार्य नहीं करना चाहिए। विवेक सिर्फ सत्संग से ही आ सकता है। युवाओं को जीवन में बदलाव के लिए और सही दिशा में बढ़ने के लिए सत्संग जरूर करना चाहिए। बिनु सत्संग विवेक न होई/ रामकृपा बिनु सुलभ न सोई...। कुछ लोग नई पीढ़ी के बीच सत्संग को पाखंड या अंधविश्वास के रूप में बताकर संकीर्ण बना देते हैं, जबकि ऐसा नहीं किया जाना चाहिए। युवा सत्संग को संकीर्ण न बनाएं।

    मन, मंदिर, मूर्ति सब में सत्संग है। कोई अच्छी कविता, अच्छा गीत भी सत्संग ही है। नदी बह रही है, हवा चल रही है, इन सबको देखने के लिए आंखें होनी चाहिए। यह भी सत्संग का ही एक हिस्सा है। सही दिशा सत्संग से ही मिल सकती है।

    हमारे कर्मों के फल के कारण कभी विपरीत या अभावग्रस्त स्थिति बने तो उसे स्वीकार कर लेना चाहिए। अभावों के बीच आने वाली परिस्थितियों को स्वीकार कर लिया जाए तो प्रभु कृपा से नए रास्ते बन ही जाते हैं। जब तक हम परिस्थितियों को, व्यक्तियों को, किसी भी फल को स्वीकार करना नहीं सीखेंगे, तब तक हम परेशान रहेंगे।

    हमारे मन की समस्या यह है कि मन आसानी से चीजों को स्वीकार नहीं कर पाता। इस समस्या का समाधान भी केवल मन ही है। मन में नकारात्मक भाव है, तो सकारात्मक भाव भी हैं। हमें नकारात्मकता की बात नहीं करनी है। हमें अस्वीकार नहीं अपितु स्वीकारोक्ति का मंत्र ग्रहण करना है। जब हम स्वीकार करना सीखते हैं, जीवन उत्सव बन जाता है। रहीम का बहुत सुंदर दोहा है-

    रहिमन रोष न कीजिए, कोई कहे क्यूं है? हंसकर उत्तर दीजिए, हां बाबा यूं है।

    हम सकारात्मक चिंतन वाली राह के राही बनें, सकारात्मक सोच अपनाएं। सत्य से मुंह न फेरें, इसके सम्मुख जाएं। प्रेम से विमुख नहीं होना है, करुणा से भी नहीं। इनके समीप जाना है। हनुमानजी क्या हैं? सकारात्मकता के पर्याय। हनुमानजी को समझने हेतु पहले शब्दार्थ-भावार्थ समझिए। हनुमान का पहला अक्षर है- ‘ह’। ‘ह’ का अर्थ है सकारात्मकता। मतलब हमारे जीवन में सकारात्मकता आए। अब हनुमान जी के चरित्र को समझते हैं। हनुमानजी अक्षुण्ण रूप से सकारात्मक हैं। उन्हें समझना है तो ‘ह’ को समझिए। भगवान राम ने जो कहा, उस पर ‘हां’। आप सकारात्मकता की ओर बढ़ें, ऐसे विचारों को अपनाएं तो हनुमानजी पास आने लगेंगे।

    हम पर संकट और कोई आपदा आने से पहले इनका समाधान भी सुनिश्चित हो जाता है। यह पक्का भरोसा रखिए। यही सीख रामायण हमें देती है और हम, समस्या के दस्तक देते ही समाधान की खोज में दौड़ पड़ते हैं! अस्तित्व का नियम ही है- ईश्वर यदि पानी का सृजन नहीं करता है तो उसे प्यास रचने का भी अधिकार नहीं है।

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    परमात्मा अन्न की व्यवस्था नहीं करता है तो उसे हमें भूख देने का भी अधिकार नहीं है। यानी ईश्वर समस्या से पहले समाधान सुनिश्चित कर देते हैं। ऐसे वक्त में हम आस-पास देखें तो कोई न कोई बैठा नजर आएगा। समस्या आने पर आसपास न देखना, ऊपर देखना। ऊपर किसी सद्गुरु का हाथ होगा। ये सब विश्वास की बात है। ये गणित सूत्रों की भांति सिद्ध नहीं कर सकते। यह तो जिसने जाना, अनुभव किया, वह ही ‘इति सिद्धम’ बोल सकता है।

    मेरे पास युवा आते हैं। जिज्ञासा से सवाल पूछते हैं। मैं उनसे इतना ही कहता हूं कि इतने निराश और दुखी क्यों हो? ये जीवन में प्रसन्न रहने के पल हैं। यहां एक बात याद रखिए। जो व्यक्ति रात में संतोष के साथ सोता है और सुबह उल्लास के साथ जागता है, वह आध्यात्मिक है। अब सवाल उठता है कि आध्यात्मिक व्यक्ति का परिचय क्या है? तिलक करो, मन में आनंद।

    अब सवाल उठेगा कि क्या तिलक से आध्यात्मिकता आ जाती है? नहीं, लेकिन जो व्यक्ति सब काम करके रात्रि में संतोष भाव से सोए और सुबह जागते समय उमंग-उल्लास से सराबोर हो, यह अवस्था आध्यात्मिकता है। यह कोई वस्त्र बदलने की घटना नहीं है, अपितु मनुष्य को नकारात्मक विचारों, भावों और ऐसे ही एहसासों के भंवर से खुद को निकालते हुए सकारात्मकता में परिवर्तित करने की विद्या है।

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    यह बहुत लाभ का सौदा है साहब, रोजाना निरीक्षण की आदत तो बनाइए इसे। मतलब हमें खुद देखना चाहिए कि क्या हम संतोष के साथ सोते हैं? युवा अवस्था प्रसन्नचित रहने की अवस्था है। इसमें एक दूजे के लिए प्रेम, समर्पण होना है। ऐसे में नकारात्मक विचार बहुत उलझन पैदा करते हैं। एक वाक्य मंत्र की भांति याद रख लीजिए कि सोइए संतोष से और उल्लास संग जागिए।

    कोई तिलक लगाने, माला फेरने की जरूरत नहीं है। यह हो सकता है तो ठीक है, नहीं तो कोई समस्या नहीं। हमारे युवा, नौजवान बहुत सोच-विचार-मंथन करते हैं। यह अच्छी बात है, लेकिन यह भी समझ लीजिए, सुखी, प्रसन्न, आनंदित रहना न रहना भी अपने ही हाथ में हैं। इसी क्षण जीवन सुधार लीजिए। देर न कीजिए।