नई दिल्ली, अनुराग मिश्र/विवेक तिवारी। आदि गुरु शंकराचार्य की तपोभूमि ज्योर्तिमठ पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। सर्दी के छह महीनों के दौरान जब बद्रीनाथ मंदिर बर्फ से ढंका होता है तब भगवान विष्णु की पूजा जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में ही होती है। बद्रीनाथ के रावल (पुजारी) मंदिर के कर्मचारियों के साथ जोशीमठ में तब तक रहते हैं जब तक मंदिर का कपाट जाड़े के बाद नहीं खुल जाता। लेकिन जोशीमठ धीरे-धीरे अपना सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अस्तित्व खो रहा है। जोशीमठ की तरह ही उत्‍तराखंड के कई पहाड़ी शहर हैं जो सालों से दरारों और भूधंसाव की चपेट में हैं। उत्तरकाशी, टिहरी और रुद्रप्रयाग में भी सैकड़ों भवन और होटलों में दरारें दिख रही हैं।

इस क्षेत्र का विज्ञानियों की संयुक्त टीम से पांच बार सर्वे कराया गया, पर विडंबना यह कि उनकी संस्तुतियां सरकारी फाइलों से बाहर नहीं निकल पाईं। इसके बाद वर्ष 2006 में डा सविता की अध्ययन रिपोर्ट, वर्ष 2013 में जल प्रलय के बाद उत्पन्न स्थिति की रिपोर्ट और वर्ष 2022 में विशेषज्ञों की टीम की रिपोर्ट में जोशीमठ पर मंडराते खतरे का उल्लेख किया गया। साथ ही ड्रेनेज सिस्टम, निर्माण कार्यों पर नियंत्रण समेत अन्य कदम उठाने की संस्तुतियां कीं।

जोशीमठ हिमालयी इलाके में जिस ऊंचाई पर बसा है, उसे पैरा ग्लेशियल जोन कहा जाता है। इसका मतलब है कि इन जगहों पर कभी ग्लेशियर थे, लेकिन बाद में वे पिघल गए और मलबा बाकी रह गया। इससे बना पहाड़ मोरेन कहलाता है। वैज्ञानिक भाषा में ऐसी जगह को डिस-इक्विलिब्रियम कहा जाता है। इसका मतलब है- ऐसी जगह जहां जमीन स्थिर नहीं है और जिसका संतुलन नहीं बन पाया है।

2021 में भी दिखी थी घरों में दरार

अक्टूबर 2021 में, उत्तराखंड के जोशीमठ शहर के कुछ घरों में पहली बार दरारें दिखाई दीं। एक साल बाद, 10 जनवरी तक, शहर के सभी नौ वार्डों में 723 घरों के फर्श, छत और दीवारों में बड़ी या छोटी दरारें आ गई थीं। कई घरों में खंभे उखड़ गए हैं। यहां के 94 परिवारों को कस्बे के भीतर ही अस्थायी रूप से सुरक्षित स्थानों पर ले जाया गया है।

1939 में पहली बार किया गया था खतरे को लेकर आगाह

1939 में स्विस एक्सपर्ट और लेखक प्रो. अर्नोल्ड हेम और प्रो. आगस्टो गैंसर की किताबों में भी लिखा गया था कि जोशीमठ MCT यानी मेल सेंट्रल थ्रस्ट पर बसा हुआ है। 1936 में स्विस एक्सपर्ट्स प्रो. अर्नोल्ड हेम और प्रो. आगस्टो गैंसर ने उत्तराखंड और नेपाल का एक्सपीडिशन किया था। पहली बार जोशीमठ के हेलंग से 900 मीटर दूर MCT यानी मेन सेंट्रल थ्रस्ट को मार्क किया गया। इसके बाद वहां से लगभग 20 किलोमीटर दूर यानी तपोवन से आगे बेंगुरर गांव के बाद दूसरा मेन सेंट्रल थ्रस्ट MCT है।

1976 में फिर जारी हुई चेतावनी

1976 में तत्कालीन गढ़वाल कमिश्नर एमसी मिश्रा की अध्यक्षता वाली समिति ने एक रिपोर्ट दी थी, जिसमें जोशीमठ पर खतरे का जिक्र किया गया था। यह भी बताया गया कि भूस्खलन से जोशीमठ को बचाने में स्थानीय लेागों की भूमिका किस तरह तय की जा सकती है, वृक्षारोपण किया जा सकता है। इसके बाद साल 2001 में भी एक रिपोर्ट में इस खतरे को लेकर आगाह किया गया था। मिश्रा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि विकास ने जोशीमठ इलाके में जंगलों को तबाह कर दिया है। पहाड़ों की पथरीली ढलानें खाली और बिना पेड़ों के रह गई हैं। जोशीमठ करीब 6 हजार फीट की ऊंचाई पर बसा है, लेकिन बसाहट बढ़ने से फॉरेस्ट कवर 8 हजार फीट तक पीछे खिसक गया है। पेड़ों की कमी से कटाव और लैंड स्लाइडिंग बढ़ी है। इस दौरान खिसकने वाले बड़े पत्थरों को रोकने के लिए जंगल बचे ही नहीं हैं।

अनियमित मौसम है जोशीमठ में

जोशीमठ मौसम के प्रति संवेदनशील है। जलवायु विज्ञान की दृष्टि से, जोशीमठ ऐसे क्षेत्र में स्थित है जहां अक्सर अधिक तीव्रता की बारिश होती है। अत्यधिक बारिश से भूस्खलन हो सकता है। जियोसाइंस एक्सपर्ट और के.आर.मंगलम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर चंद्रशेखर दुबे कहते हैं कि जोशीमठ में ग्लेशियर मोरेन के ऊपर है। वक्त के साथ ढेर कठोर हो गया। इस इलाके में अनियमित बारिश भी होती है। वहीं अनियमित निर्माण ने इस परेशानी को बड़ा बना दिया।

मानव जनित दबाव के कारण बढ़ा संकट

हेमवती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी, श्रीनगर के एनवायरमेंटल जियोलॉजी विभाग के तत्कालीन प्रोफेसर एम.पी.एस. विष्ट और उत्तराखंड के आपदा प्रबंधन विभाग के अधिकारी पीयूष रौतेला की रिपोर्ट के अनुसार सर्दियों के दौरान ऊपरी इलाकों में काफी बर्फ गिरती है। इस कारण इस क्षेत्र के ग्राउंड वाटर रीचार्ज के लिए आसपास के झरनों और धाराओं का काफी महत्व होता है। जोशीमठ में बढ़ते मानव जनित दबाव के कारण संकट के लक्षण दिख रहे हैं। कथित तौर पर यह क्षेत्र लगातार भू-धंसाव के संकेत दिखा रहा था। मिश्रा आयोग ने बताया कि जोशीमठ एक पुराने भूस्खलन क्षेत्र पर स्थित है और धंस रहा है। रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि जोशीमठ के आसपास के क्षेत्र में भारी निर्माण पर रोक लगा दी जाए।

जोशीमठ और तपोवन परियोजनाओं को मंजूरी

क्षेत्र की भूगर्भीय/पर्यावरणीय भेद्यता से पूरी तरह अवगत होने के बावजूद, जोशीमठ और तपोवन के आसपास कई पनबिजली योजनाओं को मंजूरी दी गई। विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना ऐसी ही एक योजना है। इसकी हेड रेस टनल जोशीमठ के नीचे भूगर्भीय रूप से नाजुक क्षेत्र से होकर गुजरती है। परियोजना से संबंधित भूवैज्ञानिक जांच के लिए राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम (NTPC) ने भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के ऊपर एक निजी कंपनी को प्राथमिकता दी थी। ये जांच-पड़ताल क्षेत्र में किए गए पहले के भूवैज्ञानिक अन्वेषणों का संज्ञान लेने में विफल रहे और सुरंग संरेखण के माध्यम से ओवरबर्डन की गहराई को स्थापित करने के लिए कुछ भी नहीं किया।

2009 की एक घटना को भी माना जा रहा जिम्मेदार

24 दिसंबर, 2009 को एक टनल बोरिंग मशीन ने जोशीमठ से लगभग 5 किमी दूर सेलांग गांव से लगभग 3 किमी दूर एक एक्विफर को पंचर कर दिया। जोशीमठ के पास औली के नीचे सुरंग लगभग एक किलोमीटर है। देहरादून स्थित उत्तराखंड डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट सेंटर और श्रीनगर गढ़वाल से संबद्ध शोधकर्ताओं के 2010 के एक लेख के अनुसार, पंक्चर से प्रति सेकंड 700-800 लीटर पानी निकलता है, जो हर दिन कम से कम 2 मिलियन लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है।

जोशीमठ बचाओ संघर्ष समिति के संयोजक अतुल सती, जो 2004 से जोशीमठ के लिए हानिकारक परियोजनाओं का विरोध कर रहे हैं, कहते हैं कि 2009 में छोड़े गए पानी ने मुश्किल बढ़ाई। हालांकि, जोशीमठ में पंचर और भूस्खलन के बीच संबंध स्थापित करने वाला कोई वैज्ञानिक अध्ययन नहीं किया गया है। इसलिए 5 जनवरी को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में एनटीपीसी ने जारी संकट में किसी भी भूमिका से इनकार किया था।

चार धाम परियोजना पर भी उठे सवाल

सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) द्वारा बनाया जा रहा 6 किलोमीटर लंबा हेलंग-मारवाड़ी बाईपास भी ढलानों को कमजोर करने और स्थानीय स्थलाकृति को अस्थिर करने के लिए जांच के दायरे में है। बाईपास उत्तराखंड में 825 किलोमीटर चार धाम राजमार्ग विस्तार परियोजना का हिस्सा है, जिस पर विशेषज्ञ पहले ही अवैज्ञानिक ढलान-काटने के लिए सवाल उठा चुके हैं। उनका दावा है कि इसके परिणामस्वरूप कई भूस्खलन हुए।

जोशीमठ का भूगोल

जोशीमठ पश्चिम और पूर्व में क्रमशः कर्मनासा और ढकनाला से बंधी पहाड़ी के मध्य ढलानों में स्थित है, वहीं दूसरी तरफ धौलीगंगा और अलकनंदा के साथ है। जोशीमठ के अलावा, कई बस्तियाँ निचले और मध्य ढलानों में स्थित हैं जिनमें चमी, शेलोंग, खनोती चट्टी, अनिमठ, विष्णुप्रयाग, खान, परसारी, गणेशपुर, सुनील, गौका, दादन, रेगांव, औचा, औली, खरोरी, कुनी, पैइयां, खांचा, बरहगाँव, पैनी, विश-नुपुरम, मारवाड़ी, बिलागढ़, मिराग, करछीगाँव, तुगासी, चमटोली और झारकुला चट्टी शामिल हैं। इन बस्तियों की कुल आबादी लगभग 18,000 है। ऊंचाई समुद्र तल से 1440 और 3797 मीटर के बीच है।

भूकंप के सर्वाधिक संवेदनशील जोन-5 में है जोशीमठ

जोशीमठ की जमीन न सिर्फ कमजोर है, बल्कि यह पूरा क्षेत्र भूकंप के सर्वाधिक संवेदनशील जोन 5 में स्थित है। इसके नीचे से हिमालय की उत्पत्ति के समय अस्तित्व में आई ऐतिहासिक फाल्ट लाइन मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) गुजर रही है। जिसका मतलब यह है कि पूरे क्षेत्र में भूगर्भीय हलचल जारी रहती है। विशेषज्ञों की हालिया रिपोर्ट में इसका उल्लेख सिस्मिक जोनेशन मैप (आइएस: 1893-1, 2016) के रूप में किया गया है। ऐसे में यहां भवन निर्माण में नियमों की अनदेखी बेहद खतरनाक साबित हो रही है।

साढ़े बारह वर्ष पहले भूस्खलन की जद में आया था भटवाड़ी

आज से साढ़े बारह वर्ष पहले उत्तरकाशी जनपद का भटवाड़ी कस्बा भी भूस्खलन की जद में आया था। अब यहां भी जोशीमठ जैसे हालात बनने लगे हैं और 150 से अधिक भवन और होटलों में दरारें आ चुकी हैं। ग्रामीण न केवल भूधंसाव को लेकर खौफ में हैं, बल्कि उन्हें डर है कि भूकंप के हल्के झटके से भी उनके भवन जमीदोज हो जाएंगे। जिला मुख्यालय उत्तरकाशी से 30 किमी की दूरी पर भटवाड़ी कस्बा स्थित है, जो गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ा है। भटवाड़ी से गंगोत्री की दूरी 70 किमी है।

मरोड़ा गांव में भूस्खलन से कई घरों में दरारें

रुद्रप्रयाग जिले के मरोड़ा गांव में पिछले कुछ माह से लगातार भूस्खलन हो रहा है। कई घरों में दरारें पड़ी हुई हैं। ग्रामीणों ने इसके लिए ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन निर्माण को जिम्मेदार माना है।

अटाली और व्यासी की दरारों से भी झांक रही दहशत

जोशीमठ के हालात देखकर टिहरी जिले के व्यासी और अटाली के ग्रामीणों में दहशत है। दरअसल, ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन निर्माण के कारण व्यासी और अटाली गांव में भी खेतों और मकानों में दरारें पड़ रही हैं। ग्रामीणों का कहना है कि रेल विकास निगम और प्रशासन इस मामले में लापरवाही बरत रहा है। अगर यही हाल रहा तो इन दोनों गांवों में भी जोशीमठ जैसे हालात पैदा हो जाएंगे।

ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे लाइन से जुड़े कार्य अटाली और व्यासी गांव के पास हो रहे हैं। इन दिनों गांवों के पास से रेलवे की सुरंग का निर्माण कार्य चल रहा है। पिछले महीने अटाली गांव का पेयजल स्रोत भी अचानक सूख गया था। इसके चलते गांव में पेयजल संकट पैदा हो गया है।

गुप्तकाशी में भी धंस रही जमीन

केदारनाथ यात्रा का मुख्य पड़ाव गुप्तकाशी भी सुरक्षित नहीं है। यहां चारों तरफ से धीरे-धीरे जमीन धंस रही है जो कभी भी बड़ी अनहोनी का कारण बन सकती है। बाजार में पानी की निकासी की व्यवस्था नहीं है जिससे बरसाती, स्रोतों व घरों का पानी जहां-तहां फैल रहा है। ग्राम पंचायत के साथ ही गुप्तकाशी केदारघाटी का सबसे बड़ा व्यापारिक केंद्र भी है लेकिन यहां की सुरक्षा आज भी भगवान भरोसे है।

जोशीमठ की आपदा के प्रमुख कारण

पुराने भूस्खलन के मलबे पर बसा होना

गोविंद बल्लभ पंत के जे.सी. कुनियाल का कहना है कि जोशीमठ भूस्खलन के मलबे पर बसा एक शहर है। यहां की मिट्टी कमजोर है। यह छह-सात मंजिला भवनों का बोझ उठा पाने में सक्षम नहीं है। पानी का रिसाव और सीवरेज सिस्टम भी ठीक नहीं है। भवनों का निर्माण मानकों के अनुरूप हुआ है या नहीं, इस संबंध में विस्तृत अध्ययन के बाद ही कुछ कहा जा सकता है। इस नगर के ठीक नीचे की सतह पर ठोस चट्टानें नहीं, रेत, मिट्टी और कंकड़-पत्थर भर हैं। ऐसी धरती बहुत अधिक बोझ बर्दाश्त नहीं कर पाती और धंसने लगती है।

हेमवती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी, श्रीनगर के स्कूल ऑफ अर्थ साइंस के डीन प्रोफेसर राजेंद्र सिंह राणा कहते हैं कि अनियंत्रित और अंधाधुंध निर्माण ने जोशीमठ को तबाह कर दिया है। बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी होती गईं लेकिन उसके अनुपात में जल प्रबंधन, निकासी प्रबंधन संभव नहीं था। बेतरतीब दोहन ने जोशीमठ को इस स्थिति में ला खड़ा किया है।

जल निकासी का उचित प्रबंधन नहीं

आईआईटी रुड़की के भूकंप अभियांत्रिकी विभाग के प्रोफेसर बीके माहेश्वरी के अनुसार जोशीमठ में जल निकासी का उचित प्रबंधन नहीं है। साथ ही कुछ घरों में फाउंडेशन भी ठीक तरीके से नहीं डाली गई है। फाउंडेशन से पहले काम्पैक्ट उचित तरीके से नहीं किया गया है। वहां पानी की निकासी का उचित प्रबंधन करने के साथ ही सुनियोजित तरीके से निर्माण कार्य करने की आवश्यकता है।

पर्यावरणविद् अनिल जोशी कहते हैं कि अनियंत्रित निर्माण कार्यों से मिट्टी पर बोझ बढ़ा और कुछ हिस्सों में जहां अंदर के हिस्से में खाली जगह थी मिट्टी धंस गई। इससे दरारें आई, जोशीमठ के चारों तरफ कई सरकारी योजनाओं पर काम चल रहा है जो यहां से गुजरने वाली नदियों से और पहाड़ के संतुलन को बिगाड़ती हैं। रैनी में हुई घटना इसी का परिणाम रही। जोशीमठ में पिछले 30 साल से यही हालात बने हुए हैं। मैंने इसी अनियंत्रित निर्माण के चलते पैनी और अणमठ गांवों को जमीने में धंसते हुए देखा है। रैनी के करीब संधार गांव में ऊपर से खेत नीचे आ गए और नीचे वाली नदी में चले गए। ये किसी एक सरकार या गैर सरकारी संस्था की गलती नहीं है, बल्कि सबकी गलती है। स्थानीय लोग भी इसमें शामिल हैं।

तेजी से खिसकी मोरेन

ड्रेनेज व्यवस्था न होने से जमीन के भीतर पानी का रिसाव

पिछले साल 16 से 19 अगस्त के बीच राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अधिशासी निदेशक डॉ. पीयूष रौतेला के नेतृत्व में एक टीम ने जोशीमठ का सर्वेक्षण किया था। शोध के बाद उन्होंने नवंबर में 28 पृष्ठों की रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी। इसमें उन्होंने माना था कि जोशीमठ के नीचे अलकनंदा में कटाव के साथ ही सीवेज और ड्रेनेज की व्यवस्था न होने से पानी जमीन में समा रहा है। इससे जमीन धंस रही है।

पर्यावरणविद् अनिल जोशी कहते हैं कि जोशीमठ में बनी इमारतों के लिए कोई ड्रेनेज सिस्टम नहीं बनाया गया। ऐसे में जहां भी जगह मिल रही है, वहां से पानी निकल रहा है। पूरा जोशीमठ हिमालय के मलबे पर खड़ा है जो ग्लेशियर से आया था। इस मलबे को करीब से गुजरने वाली नदियां लगातार काट रही हैं। निर्माण कार्य करते समय इसकी धारण क्षमता का ध्यान नहीं रखा गया।

अनियंत्रित विकास

अनिल जोशी कहते हैं कि उत्तराखंड जब उत्तर प्रदेश से अलग हुआ तो विकास की संभावनाएं एक बड़ा कारण थीं। लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल ये है कि हिमालय के किसी भी हिस्से में विकास को लेकर कोई पॉलिसी नहीं है। अनियंत्रित विकास ही विनाश का कारण बन रहा है। जोशीमठ शहर कुल ढाई वर्ग किलोमीटर में बसा है। इतनी सी जगह में ही लगभग 3900 घर और 400 दुकानें बनाई जा चुकी हैं। इसके अलावा बड़े होटल बनाए गए। इन इमारतों के लिए कोई ड्रेनेज सिस्टम नहीं बनाया गया।

समाधान के लिए सुझाव

निर्माण कार्यों पर तत्काल रोक लगे

अनिल जोशी का कहना है कि पहाड़ के किसी भी हिस्से में कोई योजना शुरू करने या निर्माण कार्य करने से पहले उस पहाड़ की धारण क्षमता निश्चित होना चाहिए। इसके लिए सख्त कानून होने चाहिए। आज शिमला, नैनीताल सहित कई शहरों पर क्षमता से अधिक बोझ हैं। जोशीमठ की घटना के बाद पीएम कार्यालय ने ध्यान देना शुरू किया है। आने वाले समय में पूरे हिमालय के राज्यों के लिए एक नीति बनानी होगी ।

डिफरेंशियल जीपीएस और पीजोमीटर से हो आकलन

जियोसाइंस एक्सपर्ट और के.आर.मंगलम यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर चंद्रशेखर दुबे कहते हैं कि वहां सिस्मिक स्टेशन बने हुए हैं। डिफरेंशियल जीपीएस (कितनी जमीन खिसक रही इसके बारे में जानकारी) और पीजोमीटर (पानी के फ्लो) से हम इस बात का पता कर सकते हैं कि वहां कौन सा जोन अधिक सक्रिय है।

ड्रेनेज सिस्टम को बेहतर बनाया जाए

अनिल जोशी कहते हैं कि जोशीमठ में ड्रेनेज सिस्टम को दुरुस्त करने की आवश्यकता है। इस पर अभी तक बिलकुल काम नहीं किया गया।

परिवार विस्थापित किए जाएं

चंद्रशेखर दुबे कहते हैं कि सबसे पहले लोगों को सुरक्षित क्षेत्रों में विस्थापित करने की आवश्यकता है। लोगों को सेफ जगहों पर भेजकर ही पुख्ता अध्ययन और रेट्रोफिटिंग का काम किया जाना चाहिए।