नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। प्रोटीन की जरूरत पूरी करने के लिए हम दाल खाते हैं, लेकिन क्या दालों में पर्याप्त पोषण है? दाल ही क्यों, गेहूं, चावल, फल, सब्जी या फिर सुपरफूड कहे जा रहे मिलेट्स, सबमें पोषण कम हो गया है। हम यह मान कर चलते हैं कि ‘स्वस्थ भोजन’ हमें फिट और रोग मुक्त रखेगा, लेकिन यह कैसे संभव है जब हमारे खाद्य पदार्थ ही ‘कुपोषित’ हो गए हैं। हमारे दादा-दादी, नाना-नानी जो खाना खाकर स्वस्थ रहते थे, अब वह भोजन हमारे शरीर को पर्याप्त पोषण नहीं दे रहा है। राष्ट्रीय पोषण संस्थान (एनआईएन), हैदराबाद की 1989 और 2017 की रिपोर्ट की तुलना तथा वैज्ञानिक अध्ययन बताते हैं कि बीते तीन-चार दशकों में खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की मात्रा काफी घट गई है। अनाज और फल-सब्जियों में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, राइबोफ्लेविन और विटामिन सी अब उतना नहीं मिलता जितना पहले मिलता था। इसके लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतरतीब इस्तेमाल, संकर बीज, मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के अलावा खाद्य पदार्थों को लजीज बनाने के साथ आकर्षक दिखाने की होड़ भी जिम्मेदार है।

असम कृषि विश्वविद्यालय के फूड, साइंस और न्यूट्रिशन विभाग की असिस्टेंट प्रोफेसर डा. मनीषा चौधरी कहती हैं कि 1989 और 2017 के बीच भारत में खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की कमी में कई कारकों का योगदान है। एक कारण तो मिट्टी में ही पोषण की कमी है। रासायनिक उर्वरकों के अधिक प्रयोग से मिट्टी में पोषक तत्व कम हो रहे हैं, तो ऐसी मिट्टी में उपजने वाली फसलों में पोषण कम होना लाजिमी है। खेती के तौर-तरीकों में बदलाव भी बड़ा कारण है। संकर बीजों के प्रयोग और आधुनिकी तरीके से खेती के परिणामस्वरूप ऐसी फसलें पैदा हो सकती हैं जो कम पोषण देती हैं। मिट्टी और पानी में बढ़ा प्रदूषण भी फसलों की पोषकता को प्रभावित कर सकता है। जलवायु पैटर्न में परिवर्तन से भी यह संभव है। प्रसंस्करण और भंडारण के तरीके भी खाद्य पदार्थों की पोषकता को प्रभावित कर सकते हैं।

साठ साल में गेहूं और चावल में तीस फीसद कम हो गया पोषण

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल से जुड़े कई संस्थानों के वैज्ञानिकों के शोध में गेहूं और चावल में पोषण कम होने की बात सामने आयी है। इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता सोवन देबनाथ बताते हैं कि चावल व गेहूं में आवश्यक पोषक तत्वों का घनत्व अब उतना नहीं है, जितना 50 साल पहले होता था। इनमें मुख्य रूप से जिंक और आयरन की कमी हो गई है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि 1960 के दशक में जारी चावल की किस्मों में जिंक और आयरन का घनत्व क्रमशः 27.1 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम और 59.8 मिलीग्राम प्रति किलोग्राम था। यह मात्रा वर्ष 2000 के दशक में घटकर क्रमशः 20.6 मिलीग्राम/किलोग्राम और 43.1 मिलीग्राम/किलोग्राम रह गई। इसी तरह, 1960 के दशक में गेहूं की किस्मों में जिंक और आयरन का घनत्व 33.3 मिलीग्राम/किलोग्राम और 57.6 मिलीग्राम/किलोग्राम था। जबकि वर्ष 2010 में जारी की गई गेहूं की किस्मों में जिंक एवं आयरन की मात्रा घटकर क्रमशः 23.5 मिलीग्राम/किलोग्राम और 46.5 मिलीग्राम/किलोग्राम रह गई।

तीन दशकों में पौष्टिकता हुई कम

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन ने 2017 में एक रिपोर्ट जारी की थी। इससे पहले 1989 में खाद्य पदार्थों के पोषण पर एक रिपोर्ट जारी की गई थी। 2017 की रिपोर्ट में सूचीबद्ध सभी खाद्य पदार्थों और पोषक तत्वों का उल्लेख 1989 की रिपोर्ट में नहीं मिलता है। फिर भी, इन दोनों रिपोर्ट की तुलना करने पर पता चलता है कि अधिकतर खाद्य पदार्थों के पोषण में कमी आई है। इंडियन फूड कंपोजिशन टेबल 2017 रिपोर्ट के शोधकर्ताओं ने देश के 6 अलग-अलग स्थानों से लिए गए 528 खाद्य पदार्थों में 151 पोषक तत्वों को मापा था।

इसके अनुसार इन 28 वर्षों में गेहूं में कार्बोहाइड्रेट करीब 9 फीसदी घटा है। बाजरा का सेवन मुख्य रूप से कार्बोहाइड्रेट के लिए किया जाता है। पिछले तीन दशकों में बाजरा में कार्बोहाइड्रेट का स्तर 8.5 प्रतिशत कम हो गया है। इसी तरह, दालों में उनके प्रमुख पोषक तत्व प्रोटीन की कमी हो रही है, जो ऊतकों के निर्माण, मरम्मत और रखरखाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। मसूर में प्रोटीन 10.4 फीसदी और मूंग में 6.12 फीसदी कम हुआ है।

पुणे की हीराबाई कोवासजी जहांगीर मेडिकल रिसर्च की प्रोजेक्ट मैनेजर रुबीना मांडलिक कहती हैं कि 1989 और 2017 में मापे गए खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की कमी की कई वजह हो सकती हैं। एक वजह उनकी वैराइटी और मिट्टी का फर्क हो सकता है। धान के मामले में तकनीक का अलग-अलग इस्तेमाल भी अंतर का कारण हो सकता है। इसके अलावा फल के पकने के अलग-अलग चरण, कृषि पद्धतियों में बदलाव भी इसकी वजह हो सकती है। आलू में आयरन बढ़ गया है लेकिन थायमिन (विटामिन बी1), मैग्नीशियम और जिंक कम हो गया है। गोभी में चार सूक्ष्म पोषक तत्वों में आश्चर्यजनक रूप से 41-56 प्रतिशत की कमी आई है। पके टमाटर में थायमिन, आयरन और जिंक 66-73 फीसदी तक कम हो गया है। हरे टमाटर में आयरन 76.6 फीसदी और सेब में 60 फीसदी तक कम हुआ है।

चावल की पॉलिश से भी कम हुए पोषक तत्व

द इंपेक्ट ऑफ द ग्रीन रिवॉल्यूशन ऑन इंडीजीनियस क्रॉप्स ऑफ इंडिया शोधपत्र में कविता रविचंद्रन और ऊषा एंटनी लिखती हैं कि पॉलिश चावल की तुलना में रफ चावल में राइबोफ्लेविन, थायमिन, नियासिन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन और जिंक की मात्रा अधिक होती है। पॉलिशिंग के दौरान चावल अपने पोषक तत्वों को खो देता है। इसमें मौजूद पोषक तत्वों की मात्रा पॉलिशिंग की डिग्री के साथ बदलती रहती है। ब्राउन राइस न्यूनतम प्रसंस्करण से गुजरता है, इसलिए यह पोषक तत्वों को बरकरार रखता है। अनाजों में बार्नयार्ड मिलेट (सांवा) में कच्चे रेशे की मात्रा सबसे अधिक होती है। इसके अलावा, लाल चावल और काले चावल की किस्में भी प्रोटीन और वसा का अच्छा स्रोत हैं।

फल-सब्जियों पर असर

सेंटर फॉर न्यूट्रिशन एंड डायटिक्स स्टडीज की असिस्टेंट प्रोफेसर डा. प्रीति गुप्ता कहती हैं कि लौकी, ब्रोकली अब हर मौसम में मिल जाती हैं। इसके लिए फर्टिलाइजर से लेकर संकर बीज तक जिम्मेदार हैं। लेकिन इन्हीं वजहों से इनमें न्यूट्रिशन कंटेंट कम हो रहा है। फर्टिलाइजर की वजह से सेहत खराब हो रही है। वह कहती हैं कि हरा आम, लौकी, तोरोई, टमाटर, टिंडा को आकर्षक दिखाने के लिए केमिकल का इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे पोषण कम होने के साथ-साथ लोगों की सेहत खराब हो रही है।

पैदावार बढ़ाने के फेर में कम हो गया पोषण

सोवन देबनाथ कहते हैं, देश को जब आजादी मिली तब मिट्टी में सिर्फ नाइट्रोजन की कमी थी, लेकिन आज मिट्टी की जांच में जिंक, फास्फोरस सबकी कमी नजर आ रही है। हरित क्रांति के बाद भरपूर अन्न होना गर्व की बात थी, लेकिन अब हमें पोषण की समस्या से निपटना होगा। हरित क्रांति के बाद पैदावार बढ़ाने के लिए जेनेटिक तोड़-मरोड़ की गई जिससे पोषक तत्वों की कमी हो गई। रसायनों के असंतुलित प्रयोग ने कई समस्याएं खड़ी कर दी हैं। भारत की पारंपरिक खेती प्राकृतिक गोबर और फसल चक्र पर आधारित थी, हरित क्रांति के बाद खेतों में यूरिया, नाइट्रोजन, डीएपी और कीटनाशकों के सहारे खेती होने लगी। अति दोहन से उपजाऊ जमीनों में पोषक तत्व कम हुए और जमीन में हानिकारक तत्व शामिल होते गए।

ग्रेटर नोएडा के शारदा स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस के प्रोफेसर डा. डी.एस.राणा का कहना है कि एनपीके का असंतुलित प्रयोग, भारी खाद का कम उपयोग और द्वितीयक और सूक्ष्म पोषक तत्वों का कम या बिल्कुल उपयोग न होना इस समस्या का मुख्य कारण है।

हरित क्रांति के बाद गेहूं-चावल की खेती का क्षेत्रफल बढ़ा, मिलेट्स का घटा

द इंपैक्ट ऑफ द ग्रीन रिवॉल्यूशन ऑन इंडीजीनियस क्रॉप्स ऑफ इंडिया शोधपत्र में कविता रविचंद्रन और ऊषा एंटनी लिखती हैं कि हरित क्रांति के बाद खेती का क्षेत्रफल 1950 में 97.32 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 2014 में 126.04 मिलियन हेक्टेयर हो गया, लेकिन मोटे अनाज की खेती का क्षेत्र 37.67 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 25.67 मिलियन हेक्टेयर रह गया। ज्वार की खेती का क्षेत्रफल 15.57 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 5.82 मिलियन हेक्टेयर और बाजरे का 9.02 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 7.89 मिलियन हेक्टेयर हो गया। चावल की खेती का क्षेत्रफल 30.81 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 43.95 मिलियन हेक्टेयर, गेहूं का 9.75 मिलियन हेक्टेयर से 31.19 मिलियन हेक्टेयर, मक्का का 3.18 मिलियन हेक्टेयर से 9.43 मिलियन हेक्टेयर और दालों का 19.09 मिलियन हेक्टेयर से बढ़कर 25.23 मिलियन हेक्टेयर हो गया।

खेती के क्षेत्रफल में इस बदलाव का ही नतीजा है कि चावल की प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता 1951 में 58.0 किग्रा प्रति वर्ष से बढ़कर 2017 में 69.3 किग्रा प्रति वर्ष हो गई। चावल की प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता 1961 में सर्वकालिक उच्च स्तर पर थी। इसी तरह, गेहूं की प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता 1951 में 24.0 किग्रा प्रति वर्ष से 2017 में 70.1 किग्रा प्रति वर्ष हो गई। हालांकि, अन्य अनाज जैसे बाजरा और दालों की प्रति व्यक्ति शुद्ध उपलब्धता घट गई। इससे खपत पैटर्न में बदलाव आया और छोटे अनाज और दालों की जगह चावल और गेहूं पर ध्यान केंद्रित किया गया।

विदेशों में कम हो रहे पोषण का भारत पर असर

‘व्हाट योर फूड एट’ पेपर में वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर डेविड आर मोंटेगोमेरी लिखते हैं कि पोषक तत्वों में गिरावट का सीधा असर गंभीर बीमारियों से बचाने वाले हमारे प्रतिरक्षा तंत्र पर पड़ता है। वह कहते हैं, अक्सर हम बात करते हैं कि हम पौष्टिक खाना खाते हैं लेकिन उतने स्वस्थ नहीं रहते जबकि हमारे दादा-दादी, नाना-नानी वैसा ही भोजन खाकर स्वस्थ रहते थे।

वैज्ञानिकों का कहना है कि समस्या की जड़ आधुनिक कृषि प्रक्रियाओं में निहित है जो फसल की पैदावार तो बढ़ाती है लेकिन मिट्टी की सेहत को खराब करती है। इनमें सिंचाई, फर्टिलाइजेशन और कटाई के तरीके शामिल हैं जो पौधों और मिट्टी के कवक के बीच आवश्यक प्रक्रिया को भी बाधित करते हैं। इससे मिट्टी से पोषक तत्वों का अवशोषण कम हो जाता है। ये मुद्दे जलवायु परिवर्तन और कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते स्तर की पृष्ठभूमि में उत्पन्न हो रहे हैं, जो फलों, सब्जियों और अनाज की पोषकता घटा रहे हैं।

देबनाथ कहते हैं कि पोषक तत्व पूरी दुनिया में कम हो रहे हैं। अन्य देशों से भारत में और भारत से दूसरे देशों में कल्टीवर्स (किसी पौधे की विशेष प्रजाति जिसे विशिष्‍ट गुणों की दृष्टि से विकसित किया गया हो) जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में खाद्य पदार्थों में पोषण का कम होना लाजिमी है। हाइब्रिड फसलों के मामलों में भी कमोबेश यही स्थिति है।

कैनसस यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन में सामने आया था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद फसल की किस्मों में छह पोषक तत्वों - प्रोटीन, कैल्शियम, आयरन, फॉस्फोरस, राइबोफ्लेविन और एस्कॉर्बिक एसिड की गिरावट आई है।

पराली जलाने से खेत हो रहे बंजर

किसानों के हर साल पराली जलाने से जमीन में आर्गेनिक कार्बन में कमी आ रही है, जिससे जमीन बंजर हो सकती है। झांसी कृषि विश्वविद्यालय के वाइसचांसलर डॉ. ए.के. सिंह के मुताबिक किसान पराली जला कर अपने खेतों को बंजर बना रहे हैं। मिट्टी के लिए ऑर्गेनिक कार्बन बेहद जरूरी है। अगर मिट्टी में इसकी कमी हो जाए तो किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले केमिकल फर्टिलाइजर भी काम करना बंद कर देंगे। इसका फसलों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अच्छी फसल के लिए मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन होना बेहद जरूरी है। मिट्टी में सामान्य तौर पर अगर आर्गेनिक कार्बन 5 फीसदी से ज्यादा है तो अच्छा है। लेकिन पिछले कुछ सालों में देश के कई हिस्सों में मिट्टी में इसकी मात्रा 0.5 फीसदी पर पहुंच गई है जो बेहद खतरनाक स्थिति है।

पीएयू के विशेषज्ञों के अनुसार एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि पराली के साथ पंजाब में 1.50 से 1.60 लाख टन नाइट्रोजन और सल्फर के अलावा कार्बन भी जलकर राख हो जाती है। जिसकी कीमत करीब 160 से 170 करोड़ रुपये है। पीएयू वैज्ञानिकों की शोध बताती है कि एक एकड़ में पराली जलाने से 18 से 20 किलो नाइट्रोजन, 3.2 से 3.5 किलो फासफोरस, 56 से 60 किलो पोटाश, चार से पांच किलो सल्फर और कई सूक्ष्म तत्व जलकर राख हो जाते हैं।

नाइट्रोजन की गंभीर कमी

सेंटर फॉर साइंस एंड इंवायरनमेंट की रिपोर्ट के अनुसार ऑर्गेनिक कार्बन की कमी पूरे देश में व्यापक है। 24 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों में कम से कम आधे मिट्टी के नमूनों में ऑर्गेनिक कॉर्बन की कमी है। उनमें से सात राज्यों में 90 प्रतिशत से अधिक नमूनों की कमी है। हरियाणा की मिट्टी में कार्बनिक कार्बन की सबसे अधिक कमी है, उसके बाद पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु, मिजोरम और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का नंबर आता है। नाइट्रोजन की कमी भी व्यापक और गंभीर है। 32 राज्यों और संघ क्षेत्रों में उनकी मिट्टी के कम से कम आधे नमूनों में नाइट्रोजन की कमी है।

बीमारियां भी बढ़ रही हैं

डा. प्रीति गुप्ता कहती हैं कि खाद्य पदार्थों में एंटीऑक्सीडेंट और पोषक तत्व कम हो रहे हैं। इसका सीधा असर लोगों की सेहत पर पड़ रहा है। टमाटर में लाइकोपिन में लगातार कमी आ रही है। कैंसर से बचाव में यह सहायक होता है। दालों का छिलका उतरने से फाइबर भी कम हो रहा है। फाइबर हमारे शरीर के लिए बेहद आवश्यक है।

क्यों जरूरी है कार्बन मिट्टी के लिए

आर्गेनिक कार्बन व सल्फर मिट्टी में पाए जाने वाले सूक्ष्म तत्व होते हैं। इन्हीं से पौधों का विकास होता है। इनकी कमी से पौधे विकसित नहीं होते और रोगों से लड़ने की क्षमता भी कम हो जाती है। फसलों की पत्ती पीली पड़ने लगती है। मिट्टी में अगर इसकी मात्रा 0.5% फीसदी से कम हो तो ऐसे इलाके मरुस्थल या बंजर इलाकों होते है। अगर किसी मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन की मात्रा 12 से18 फीसदी है तो उसे आर्गेनिक सॉयल कहा जाता है। इस तरह की मिट्टी वेटलैंड या बाढ़ वाले इलाकों में बाढ़ के जाने के बाद मिलती है।

क्‍यों जरूरी हैं नाइट्रोजन, फास्फोरस व पोटाश?

बिहार कृषि विश्‍वविद्यालय (सबौर) के मृदा वैज्ञानिक डा. सुनील कुमार ने बताया कि नाइट्रोजन की कमी से पौधे की पत्तियां पीली पड़ने लगती हैं और उनक विकास रुक जाता है। नाइट्रोजन पौधे की पत्तियों को हरा रखने में मदद करता है। इसकी कमी होने पर बिना उर्वरक प्रयोग के पैदावार अच्छी नहीं होती है। इसकी कमी से तने में लचक कम हो जाती है और वह छोटा रह जाता है। फासफोरस की कमी से पौधे की जड़ों का विकास नहीं हो पाता है। पोटाश की कमी से फसलों में बीमारी फैलने का खतरा बढ़ जाता है। इसकी कमी से कीट का आक्रमण बढ़ जाता है। बिना कीटनाशक के फसल नष्ट हो जाती है। इस कारण कृषि की लागत भी बढ़ती है।

खेत बचाने के लिए फसल चक्र अपनाना जरूरी

डा. सुनील बताते हैं कि बिना मिट्टी की जांच के अत्यधिक उर्वरक का प्रयोग और फसल चक्र नहीं अपनाने के कारण मिट्टी में आवश्यक तत्वों की कमी हो रही है। मिट्टी में मुख्य रूप से 12 तरह के तत्व पाए जाते है। इनमें जीवांश कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटाश, सल्फर, कापर, मैग्नीशियम, बोरान, आयरन और जिंक शामिल हैं। अगर ये तत्व सामान्य मात्रा में हैं तो मिट्टी सेहतमंद मानी जाएगी। अगर इन तत्वों में असमानता है तो मिट्टी का स्वास्थ्य खराब माना जाएगा।

फसल की अच्छी सेहत और प्रबंधन के लिए 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है, लेकिन किसान अमूमन चार-पांच पोषक तत्व ही डालते हैं। नाइट्रोजन, पोटाश, सल्फर, फास्फोरस के अलावा कुछ किसान जिंक और बोरन का प्रयोग करते हैं। शेष तत्वों की आपूर्ति जमीन, हवा एवं पानी से होती है। बेहिसाब उर्वरकों के इस्तेमाल और मिट्टी के दोहन से पोषक तत्वों की कमी हो गई है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी सतर्क नहीं हुए तो भविष्य में मिट्टी बंजर हो जाएगी। मिट्टी को दुरुस्त रखने के लिए फसल चक्र अपनाना होगा। दलहनी फसलें नाइट्रोजन की रक्षा करती हैं। ढैंचा, मूंग, उड़द, मसूर आदि के पौधे वायुमंडलीय नाइट्रोजन को भूमि में स्थिर रखते हैं। इन्हें हरी खाद की तरह भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे मिट्टी में जैविक कार्बन बढ़ जाता है और वह लाभदायक जीवाणु के रूप में काम करता है। गोबर खाद, कंपोस्ट, एफवाईएफ, फसल अवशेष से भी मिट्टी की सेहत को सुधारा जा सकता है। गोबर की खाद, कंपोस्ट और हरी खाद के उपयोग से मिट्टी में कार्बनिक और जरूरी तत्व बढ़ाए जा सकते हैं।