नई दिल्ली, विवेक तिवारी। जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप हो रही असमय बारिश और बढ़ती गर्मी से गेहूं के उत्पादन में 23 फीसदी तक गिरावट और स्वाद में बदलाव की आशंका है। कृषि मंत्रालय और देश के प्रमुख कृषि विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों की ओर से अगले दो दशकों में फसलों के उत्पादन मॉडलों पर किए गए अध्ययनों का यह परिणाम चिंताजनक है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा के किसान भी अपने अनुभव से इन अध्ययन रिपोर्ट से सहमत हैं। जलवायु परिवर्तन के इन दुष्प्रभावों से निपटने के लिए गर्मी सह सकने वाली किस्मों के बीज और बुवाई के कैलेंडर में बदलाव किया जा रहा है। शुरुआती प्रयोग सकारात्मक हैं।

केंद्रीय कृषि और किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने लोकसभा में दिए गए एक प्रश्न के उत्तर में जानकारी दी थी कि जलवायु परिवर्तन के कारण गेहूं के पैदावार में भी बड़ी गिरावट आ सकती है। उन्होंने बताया था कि स्थानीय और अस्थायी जलवायु परिवर्तनों के कारण 2050 तक 19.3 फीसदी और 2080 तक 40 फीसदी गेहूं के पैदावर में कमी होने का अनुमान है। जलवायु परिवर्तन के कारण खरीफ मक्के के भी पैदावार में 2050 तक 18 फीसदी और 2080 तक 23 फीसदी कमी आ सकती है।

तमाम अध्ययनों में खास तौर से फरवरी में बढ़ते तापमान पर चिंता जताई गई है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) ने देश के 573 ग्रामीण जिलों में जलवायु परिवर्तन से भारतीय कृषि पर खतरे का आकलन किया है। इस आकलन के अनुसार 2020 से 2049 तक 256 जिलों में अधिकतम तापमान 1 से 1.3 डिग्री सेल्सियस और 157 जिलों में 1.3 से 1.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ने की उम्मीद है। इससे गेहूं की खेती प्रभावित होगी। इंटरनेशनल सेंटर फॉर मेज एंड व्हीट रिसर्च के प्रोग्राम निदेशक डॉ. पीके अग्रवाल के एक अध्ययन के मुताबिक तापमान एक डिग्री बढ़ने से भारत में गेहूं का उत्पादन 4 से 5 मिलियन टन तक घट सकता है। तापमान 3 से 5 डिग्री बढ़ने पर उत्पादन में 19 से 27 मीट्रिक टन तक कमी आएगी।

गेहूं में पोषक तत्व घटे, स्वाद पर भी असर 

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान और विधान चंद्र कृषि विश्वविद्यालय, पश्चिम बंगाल से जुड़े कई संस्थानों के वैज्ञानिकों के शोध में गेहूं और चावल में पोषण कम होने की बात सामने आयी है। इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता सोवन देबनाथ बताते हैं कि चावल व गेहूं में आवश्यक पोषक तत्वों का घनत्व अब उतना नहीं है, जितना 50 साल पहले होता था। इनमें मुख्य रूप से जिंक और आयरन की कमी हो गई है। 

किसानों की पीड़ा- असमय गर्मी बढ़ी तो घट गया उत्पादन

उत्तर प्रदेश के महाराजगंज के किसान हनुमान गुप्ता कहते हैं, “मैं हर साल गेहूं की फसल लगाता हूं। बेहतर गेहूं उत्पादन के लिए प्रशासन से मुझे प्रमाण पत्र भी मिला है। मैंने एक एकड़ में 28 क्विंटल तक उत्पादन लिया है, लेकिन पिछले तीन साल से जनवरी और फरवरी में तापमान बढ़ने से उत्पादन घट कर 14-15 क्विंटल प्रति एकड़ रह गया है। फसल में बोरान और अन्य पोषक तत्वों के छिड़काव का भी कोई फायदा नहीं मिला। प्रकृति के आगे हम बेबस हैं।”

गर्मी के चलते फसल को नुकसान से देवरिया के किसान उपेंद्र सिंह भी परेशान हैं। वे कहते हैं, “इस साल पैदावार सिर्फ 12 क्विंटल प्रति एकड़ है। दो साल पहले 20 क्विंटल प्रति एकड़ तक उत्पादन हुआ था। अतिरिक्त पानी देने का भी कोई लाभ नहीं मिला।” मध्य प्रदेश के सबसे ज्यादा गर्मी वाले इलाकों में एक, खरगोन जिले के किसान खेमराज बिड़ला कहते हैं, पिछले कुछ सालों से लगातार बढ़ती गर्मी से गेहूं की फसल पर ज्यादा असर हो रहा है। गेहूं की फसल पकने के लिए ठंड और नमी चाहिए, लेकिन फरवरी से ही गर्मी बढ़ने लगती है। गेहूं उत्पादन पर इसका असर साफ दिख रहा है। इसके कई वैज्ञानिक कारण कई हो सकते हैं, पर जो समझ में आ रहा है वह यह कि तेज गर्मी से दाने पूरी तरह तैयार नहीं हो पा रहे हैं। रोहतक के किसान अनूप सिंह कहते हैं कि पिछले तीन सालों से गर्मी और समय बारिश से गेहूं की फसल को काफी नुकसान पहुंच रहा है। गर्मी ज्यादा होने पर पानी ज्यादा चलाना पड़ रहा है। ज्यादा पानी चलाने के बावजूद उत्पादन में लगभग 25 फीसदी का नुकसान है।    

2050 तक 23 फीसदी घटेगी गेहूं की पैदावार

वैज्ञानिकों ने भारतीय कृषि शोध संस्थान (आईएआरआई) की ओर से तैयार किए गए इंफोक्रॉप व्हीट मॉडल के जरिए गेहूं उत्पादन की क्षेत्रीय असमानता का आकलन किया। इस अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि जलवायु परिवर्तन से भारत में गेहूं की पैदावार 2050 तक 6% से 23% और 2080 तक 15% से 25% तक कम होगी। वैश्विक (GCM MIROC3.2.HI) और क्षेत्रीय जलवायु मॉडल (RCM-PRECIS) भी दर्शाते हैं कि मौसम में बदलाव से गेहूं का उत्पादन गिरेगा। हालांकि अलग-अलग जगहों पर असर भी अलग होगा। इन मॉडल्स के मुताबिक जलवायु परिवर्तन के चलते मध्य और दक्षिण-मध्य भारत में गेहूं का उत्पादन सबसे अधिक प्रभावित हो सकता है।

असमय गर्मी और तेज बारिश का असर

इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक नरेश कुमार कहते हैं, 2022 में मार्च के पहले सप्ताह से ही हीट वेव शुरू हो गई और पूरे महीने बनी रही। उससे गेहूं की फसल को काफी नुकसान पहुंचा। मौसम में इस बदलाव से गेहूं उत्पादन लगभग 40 लाख टन कम रह गया। इस साल असमय बारिश ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। 1976 से 2010 के औसत तापमान से अगर 2010 से 2040 तक के औसत तापमान का अनुमान लगाया जाए तो कहा जा सकता है कि इसमें एक से डेढ़ डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी होगी। बारिश भी 6 से 12 फीसदी ज्यादा होगी। यह असमय गर्मी और तेज बारिश फसलों को काफी नुकसान पहुंचा सकती है। यह भी संभव है कि कई रोज बहुत बारिश हो जाए और बाकी महीना सूखा रहे। अध्ययन बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के चलते विभिन्न फसलों का उत्पादन 5 से 6 फीसदी तक कम हुआ है।

कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को समझने के लिए 2016 की एक सरकारी रिपोर्ट का जिक्र करना ठीक होगा। इसमें अनुमान लगाया गया है कि तापमान में 2.5 डिग्री से 4.9 डिग्री सेल्सियस तक वृद्धि होने पर चावल की पैदावार 32-40 प्रतिशत और गेहूं की 41-52 प्रतिशत कम हो जाएगी।

फरवरी में बढ़ी गर्मी बड़ा कारण

चौधरी चरण सिंह कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. चंद्रशेखर कहते हैं, पिछले कुछ सालों में फरवरी में गर्मी बढ़ जा रही है। इससे गेहूं की फसल को नुकसान पहुंचता है। इस साल फरवरी में दिन के तापमान में 3 डिग्री और रात में 5 डिग्री तक की बढ़ोतरी देखी गई है। फरवरी का महीना गेहूं की फसल के लिए सबसे महत्वपूर्ण होता है। जनवरी और फरवरी में ही गेहूं की फसल में बालियां आती हैं और उनमें दाने भरते हैं। गर्म हवाओं के चलते ये दाने सूख जाते हैं जिससे उत्पादकता पर असर पड़ता है।

मध्य प्रदेश के जबलपुर स्थित जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के असिस्टेंट प्रोफेसर एग्रो मेट्रोलॉजी डॉ. मनीष भान कहते हैं कि एक दशक पहले तक मार्च में तापमान बढ़ना शुरू होता था। इससे गेहूं की फसल को पकने में मदद मिलती थी। लेकिन पिछले कुछ सालों के दौरान फरवरी में ही तापमान तेजी से बढ़ रहा है। इसका गेहूं के दाने बनने की प्रक्रिया पर असर पड़ता है। दाने छोटे रह जाते हैं और उपज घट जाती है।

डॉ. चंद्रशेखर के अनुसार, जनवरी और फरवरी में गेहूं की बालियां बनती हैं। तब गेहूं मिल्किंग स्टेज में होता है। उस समय तापमान बढ़ने पर दाने सिकुड़ जाते हैं। अगर दाना बन गया है तो वह पतला रह जाता है। रात में गर्मी ज्यादा होने से पौधों के लिए अपनी चोटों को ठीक कर पाना भी मुश्किल होता है।

इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के इंफोक्रॉप मॉडल और फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डिसीजन सपोर्ट सिस्टम फॉर एग्रो टेक्नोलॉजी ट्रांसफर, दोनों बताते हैं कि 2025 तक औसत तापमान डेढ़ डिग्री तक बढ़ सकता है। इससे 120 दिन वाली गेहूं की फसल 100 दिन में ही तैयार हो जाएगी। गर्मी बढ़ने से पौधों में फूल जल्दी आ जाएंगे और दानों को मोटा होने का समय ही नहीं मिलेगा।

पांच साल से फरवरी में बढ़ रही है गर्मी

केरल कृषि विश्वविद्यालय, उत्तर प्रदेश के फैजाबाद कृषि विश्वविद्यालय और हरियाणा के हिसार स्थित कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने 1970 से 2019 के डेटा का अध्ययन किया। इससे पता चलता है कि फरवरी में न्यूनतम तापमान 5 से 8 डिग्री के बीच रहता है। लेकिन पिछले पांच सालों के दौरान फरवरी में कई दिन औसत तापमान इससे 5 डिग्री तक ज्यादा दर्ज किया गया। सेंट्रल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ ड्राईलैंड एग्रीकल्चर के वैज्ञानिक डॉ. चंद्रशेखर के मुताबिक, पूर्वी उत्तर प्रदेश में फरवरी में बढ़ते तापमान ने गेहूं की फसल को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। इस साल 14 फरवरी से 11 मार्च तक रात में तापमान सामान्य से अधिक दर्ज किया गया। 30 जनवरी को रात का तापमान सामान्य से 7.5 डिग्री अधिक था।

दुनिया के आधे से अधिक गेहूं उत्पादन पर पड़ेगा असर

हार्वर्ड विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक गेहूं पूरी दुनिया की 20 फीसदी खाद्य जरूरत पूरी करता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि जलवायु परिवर्तन के चलते सदी के अंत तक दुनिया का आधा से अधिक गेहूं उत्पादन प्रभावित हो सकता है। यह रिपोर्ट साइंस एडवांस पत्रिका में प्रकाशित हुई है। वर्ष के उस समय सूखे की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक मॉडल बनाया गया जब गेहूं उगाया जाता है, फिर 27 जलवायु मॉडल से सिमुलेशन कर विश्लेषण किया गया। परिणाम बताते हैं कि अगर जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए गए, तो ग्लोबल वार्मिंग दुनिया के 60% गेहूं उगाने वाले क्षेत्रों में बड़े सूखे का कारण बन सकती है।

मौजूदा सूखे की स्थिति 15% गेहूं उत्पादन को प्रभावित करती है। यहां तक कि अगर पेरिस समझौते के अनुरूप पूर्व-औद्योगिक (प्री-इंडस्ट्रियल) स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस ऊपर तापमान स्थिर करने का लक्ष्य हासिल किया जाता है, तो भी अगले 20 से 50 वर्षों में पानी की गंभीर कमी के मामले लगभग दोगुने हो जाएंगे। रिसर्च यह भी बताती है कि विकासशील देश, अफ्रीका और पूर्वी और दक्षिण पूर्वी एशिया के निम्न-आय वाले क्षेत्रों में गेहूं उत्पादन पर सबसे अधिक असर होगा। इन देशों में दुनिया की अधिकांश कुपोषित और गेहूं खाने वाली आबादी रहती है।

बचाव के लिए गेहूं की बुआई के समय में करना होगा बदलाव

इंडियन एग्रीकल्चर रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक नरेश कुमार कहते हैं, गेहूं की फसल पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए हमें कुछ बातों का ध्यान रखना होगा। सबसे पहले तो हमें गेहूं की बुआई समय से लगभग 15 दिन पहले करनी होगी। ऐसा करने से फरवरी में फसल में दाने तैयार हो चुके होंगे। तब गर्मी बढ़ने से उत्पादन पर असर कम होगा। किसानों को भी इस बात का ध्यान रखना होगा कि सरकार की ओर से जारी की गई गेहूं की हीट रजिस्टेंट किस्मों के बीज लगाएं। किसान किसी भी किस्म का बीज 4 साल से ज्यादा न लगाएं। बीज पुराना होने पर उत्पादन में कमी आती है। फसल को किस पोषक तत्व की जरूरत है, इसका खास ख्याल रखना होगा। इन बातों का ध्यान रखा जाए तो 2040 तक गेहूं उत्पादन 15 फीसदी तक बढ़ाया जा सकता है।

जबलपुर कृषि विश्वविद्यालय के डॉ. भान भी कहते हैं कि गेहूं की बुवाई समय से करीब 15 दिन पहले की जाए तो फसल को बढ़ती गर्मी से बचाया जा सकता है। अगर फसल तैयार होते समय गर्मी काफी बढ़ जाए तो बेहतर पोषण और सिंचाई बढ़ाकर नुकसान को कम किया जा सकता है।