नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। जूनोटिक बीमारियां बीते कुछ सालों से विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। दुनिया भर में जूनोटिक बीमारियों से अब तक सात करोड़ से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। पशु-पक्षियों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों को विज्ञान की भाषा में 'जूनोटिक डिजीज' कहा जाता है। इन बीमारियों के बढ़ने के कई कारण हैं। सबसे बड़ी बात है कि जंगलों का क्षरण होने से जंगली जीव इंसानों के संपर्क में अधिक आ रहे हैं। इंसानों का खान-पान बदल रहा है यह जीव उनके खान-पान में शामिल हो रहे हैं। इनमें कई जीव तो ऐसे हैं जिनमें काफी खतरनाक बैक्टीरिया व वायरस होते हैं। ये तेजी से संक्रमण फैलाते हैं। स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स फॉरेस्ट 2022 की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत और चीन नए जूनोटिक वायरल बीमारी के सबसे बड़े हॉटस्पॉट बन सकते हैं। स्टडी में कहा गया कि कम से कम 10 हजार वायरस प्रजातियों में मनुष्य को संक्रमित करने की क्षमता है। एक्सपर्ट मानते हैं कि जूनोटिक रोग बढ़ने की वजह पर्यावरण का दोहन, पशुओं की हाईजीन और लोगों में जागरुकता का अभाव होना है। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि नई 100 बीमारियों में 70 फीसद जानवरों से आ रही है। वहीं वैक्सीनेशन, हाईजीन और बीमारियों का ध्यान न रखने से पेट्स भी जूनोटिक बीमारियों के वाहक बन रहे हैं।

राजस्थान, हिमाचल, दिल्ली और केरल में बढ़े जूनोटिक रोग

आईसीएमआर के पूर्व वैज्ञानिक रमेश धीमान कहते हैं कि जानवरों से होने वाली बीमारियां भारत में तेजी से बढ़ रही हैं। इसका मुख्य कारण जानवरों के परिवेश में इंसानों का बढ़ता दखल है। तराई इलाकों में भी आबादी तेजी से बढ़ी है।

पिछले कुछ अध्ययनों में पाया गया कि चिकनगुनिया, स्क्रब टायफस और त्वचीय लीशमनियासिस जैसे जूनोटिक रोग पश्चिमी राजस्थान से हिमाचल प्रदेश, केरल और हरियाणा में बढ़े हैं। असम में वेस्ट नाइल वायरस और जापानी एन्सेफलाइटिस (जेई) के मरीज गैर-स्थानिक क्षेत्रों जैसे महाराष्ट्र और दिल्ली में पाए जाने लगे हैं।

भारत में जूनोटिक बीमारियां अधिक

इंडियन वेटेनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर डा. यशपाल सिंह मलिक का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक नई 100 बीमारियों में 70% जानवरों से आ रहीं हैं। विकासशील देशों में जानवरों और मनुष्य की संख्या ज्यादा है। ऐसे में मानव और जानवरों का संपर्क भी ज्यादा है। इससे जानवरों से फैलने वे बीमारियों का खतरा भी अधिक है। जूनोटिक बीमारियों पर जितना काम होना चाहिए उतना नहीं हुआ है।

इसलिए अधिक बढ़ रही जूनोटिक बीमारियां

वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ एनीमल एंड फिशरी साइंसेज के प्रोफेसर सिद्धार्थ एन जोरदार कहते हैं कि घरेलू और जंगली जानवरों की बढ़ती संख्या, घरेलू और प्रवासी पक्षियों के की बढ़ोतरी भी इसका एक कारण है। वह कहते हैं कि लोगों में जागरुकता का भी अभाव है जिसकी वजह से यह बीमारी धीरे-धीरे विकराल रूप लेती जा रही है। बायोसिक्योरिटी और हाईजीन बेहद कम है। जंगल का तेजी से कटना, प्रदूषण से पक्षियों और जानवरों का प्राकृतिक वास प्रभावित हुआ है। चमगादड़ सबसे अधिक जूनोटिक बीमारियों का वाहक है।

पेट्स से भी बढ़ सकती है जूनोटिक बीमारियां

वैज्ञानिक कहते है कि पेट्स से भी जूनोटिक बीमारियां से भी होती है। वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ एनीमल एंड फिशरी साइंसेज के प्रोफेसर सिद्धार्थ एन जोरदार कहते हैं कि हर स्थिति में पेट्स से जूनोटिक बीमारियां नहीं होती है लेकिन कई बार हाईजीन और किसी बीमारी से पेट्स भी जूनोटिक बीमारी के कारक बन जाते हैं। रैबीज को लेकर लोगों में आधी-अधूरी जानकारी है। आवारा कुत्ते भी जूनोटिक के वाहक हो सकते हैं क्योंकि उनका सही तरीके से वैक्सीनेशन नहीं होता है। हेंड्रा वायरस, निपाह, कोरोना जैसी बीमारियों के पीछे चमगादड़ ही थे।

इबोला, कोरोना से हर साल लाखों लोगों की जान जा रही

रमेश धीमान आगाह करते हैं कि अगर इंसानों ने पर्यावरण और जंगली जीवों को नहीं बचाया तो उसे कोरोना जैसी और खतरनाक बीमारियों का सामना करना पड़ सकता है। इतना ही नहीं जूनोटिक बीमारियां जैसे जीका वायरस, इबोला और कोरोना से लाखों लोगों की हर साल जान जा रही है।

कोविड महामारी के बाद पूरी दुनिया में इस बात को लेकर बहस छिड़ी है कि भविष्य में इस तरह की महामारी से कैसे निपटा जाए। ऐसे में वैज्ञानिकों के एक समूह ने सुझाव दिया है कि महामारी के आने पर उनसे जूझने की बजाए उन्हें रोकने के लिए पर्याप्त इंतजाम करना किफायती और फायदेमंद कदम होगा। www.science.org में छपी एक रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने तीन ऐसे कदम बताए हैं जिनसे आने वाले समय में महामारियों को रोकने में मदद मिल सकती है।

भारत को इन बीमारियों से आगाह रहना होगा

वेस्ट बंगाल यूनिवर्सिटी ऑफ एनीमल एंड फिशरी साइंसेज के प्रोफेसर सिद्धार्थ एन जोरदार कहते हैं कि कांगो फीवर का प्रभाव अब गुजरात और महाराष्ट्र में हो रहा है। पहले यह अफ्रीका के देशों में होता था। जोनोसेस निपाह, हेंड्रा वायरस, सेरेमन कांगो फीवर, कायसनूर फॉरेस्ट डिजीज आदि से भारत को बेहद सावधान रहने की आवश्यकता है।

बढ़ा आर्थिक बोझ

वैज्ञानिकों के मुताबिक पिछली सदी में वायरल प्राणीजन्य महामारियों के चलते करोड़ों लोगों की जान चली गई। इन बीमारियों से लड़ने में सरकारों पर पड़ने वाले आर्थिक बोझ में भी लगातार वृद्धि हुई है। शोधकर्ताओं के मुताबिक बड़ी संख्या में वायरस को आश्रय देने वाले वन्यजीवों के साथ मनुष्य कई तरह से संपर्क में आते हैं। इन वायरस में से कई अभी तक मनुष्यों में नहीं फैले हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि भविष्य में महामारियों के प्रभाव को कम करने के लिए कुछ व्यावहारिक कदम तुरंत उठाए जाने की जरूरत है। इनमें रोगजनक स्पिलओवर की बेहतर निगरानी, वायरस जीनोमिक्स और सीरोलॉजी के वैश्विक डेटाबेस का विकास, वन्यजीव व्यापार का बेहतर प्रबंधन और वनों की कटाई में पर्याप्त कमी शामिल है।

शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि महामारियों की रोकथाम के लिए उठाए जाने वाले प्राथमिक कदमों का खर्च हर साल उभरते वायरल ज़ूनोज से खोए गए जीवन के मूल्य के 1/20 वें हिस्से से भी कम है। साथ ही इसके कई फायदे भी हैं।

महामारी के जोखिम का प्रमुख स्रोत

कई शोध से पता चलता है कि जानवरों से मनुष्य में वायरस का फैलना महामारी के जोखिम का प्रमुख स्रोत है। वैज्ञानिकों का भी मानना है कि कोरोना वायरस (COVID-19) महामारी की शुरुआत चमगादड़ में मिलने वाले एक वायरस से ही हुई। ये रिपोर्ट रोग के उभरने के बाद निदान, उपचार और शीघ्रता से टीकाकरण के लिए प्रौद्योगिकी में अधिक निवेश करने की आवश्यकता पर जोर देती हैं।

करोड़ों लोगों की गई जान

इन बीमारियों के चलते 1918 में 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की जान गई थी। इसी तरह एच2एन2 इन्फ्लुएंजा 11 लाख, लासा बुखार 2.5 लाख, एड्स 1.07 करोड़, एच1एन1 2.8 लाख और कोरोनावायरस 40 लाख से ज्यादा लोगों की जान अब तक ले चुका है।

ये उठाने होंगे कदम

इंडियन वेटेनरी रिसर्च इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर डा. यशपाल सिंह मलिक कहते हैं कि हमें हर जानवर से फैलने वाली संभावित बीमारी का पता होना चाहिए। भारत मे भी जूनोटिक बीमारियों का खतरा काफी अधिक है। भारत मे बंदरो से भी इंसान में बीमारी फैल चुकी है। ऐसे में हमे इस विषय को गंभीरता से लेते हुए काम करना होगा।

प्रोफेसर सिद्धार्थ कहते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और सर्विलांस की वजह से यह बीमारी तेजी से बढ़ रही है। प्रयोगशालाएं सीमित है। वैज्ञानिक और सरकारें अभी इसे लेकर व्यापक स्तर पर कोई प्रोजेक्ट नहीं चला रही है। हम बड़े पैमाने पर इसके बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए अभियान चलाना होगा।

दुनिया में सख्त वन्यजीव व्यापार प्रतिबंधों की जरूरत

वैज्ञानिकों के मुताबिक जंगली जानवरों को पकड़ने और उनके व्यापार से वायरस फैलने के जोखिम को कम करने के लिए पूरी दुनिया में सख्त वन्यजीव व्यापार प्रतिबंधों की जरूरत है। वहीं उष्णकटिबंधीय वनों की कटाई को धीमा करना वायरसों को फैलने से रोकने के लिए आवश्यक है। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन में पाया कि वायरस की प्राथमिक रोकथाम पर खर्च बीमारी के इलाज पर खर्च की तुलना में बेहद मामूली होता है।

विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ओर से एक ग्लोबल प्रिपेयरनेस मॉनिटरिंग बोर्ड बनाया गया है जो इस बात की निगरानी कर रहा है कि हम आने वाली महामारियों के लिए कितने तैयार हैं। इस बोर्ड को लक्ष्य दिया गया है कि वो ग्लोबल हेल्थ क्राइसिस को मैनेज करने के लिए पहले से ही तैयारियां करके रखे।

100 वर्षों में इंसान नए वायरस की वजह से होने वाले छह तरह के खतरनाक संक्रमण का सामना कर चुका है

यूएन एनवायरमेंट प्रोग्राम की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर इंगर एंडरसन ने कहा कि पिछले 100 वर्षों में इंसान नए वायरस की वजह से होने वाले कम से कम छह तरह के खतरनाक संक्रमण का सामना कर चुका है। मध्यम और निम्न आय वर्ग वाले देशों में हर साल कई लाख लोगों की मौत गिल्टी रोग, चौपायों से होने वाली टीबी और रेबीज जैसी जूनोटिक बीमारियों के कारण हो जाती है। इतना ही नहीं, इन बीमारियों से न जाने कितना आर्थिक नुकसान भी होता है।

जूनोटिक बीमारियां

वह रोग जो पशुओं के माध्यम से मनुष्य में और मनुष्य से फिर पशुओं में फैलते हैं, उन्हें जूनोसिस या जूनोटिक रोग कहा जाता है। ये रोग 2300 ईसा पूर्व से चले आ रहे हैं। जूनोटिक संक्रमण प्रकृति या मनुष्यों में जानवरों के अलावा बैक्टीरिया, वायरस या परजीवी के माध्यम से फैलता है। जूनोटिक रोगों में मलेरिया, एचआइवी एडस, इबोला, कोरोना वायरस रोग, रेबीज आदि शामिल हैं। इन बीमारियों में खास यह है कि यह समय के हिसाब से खुद को म्यूटेट करते रहते हैं। ऐसे में एक वायरस पर प्रभावी वैक्सीन आ भी जाए तो वह जरूरी नहीं कि दूसरे पर भी असर करेगी।

जूनोटिक रोग बैक्टीरिया, वायरस, फफूंद अथवा परजीवी किसी भी रोगकारक से हो सकते हैं। भारत में होने वाले जूनोटिक रोगों में रेबीज, ब्रूसेलोसिस, स्वाइन फ्लू, बर्ड फ्लू, इबोला, निपाह, ग्लैंडर्स, सालमोनेलोसिस इत्यादि शामिल हैं। दुनिया में लगभग 150 जूनोटिक रोग हैं।