मिट्टी की घटती उत्पादकता ने बढ़ाई चिंता, खाद्य संकट के साथ ही बढ़ा कुपोषण का खतरा
-1762420091459.webp)
जलवायु परिवर्तन और भूमि के अंधाधुंध दोहन से धरती की उपजाऊ शक्ति कमजोर पड़ रही है। उपजाऊ मिट्टी, जो जीवन और अन्न दोनों का आधार मानी जाती है, तेजी से घट...और पढ़ें
विवेक तिवारी जागरण न्यू मीडिया में एसोसिएट एडिटर हैं। लगभग दो दशक के करियर में इन्होंने कई प्रतिष्ठित संस्थानों में कार् ...और जानिए
नई दिल्ली, विवेक तिवारी। जलवायु परिवर्तन और भूमि के अंधाधुंध दोहन से धरती की उपजाऊ शक्ति कमजोर पड़ रही है। उपजाऊ मिट्टी, जो जीवन और अन्न दोनों का आधार मानी जाती है, तेजी से घट रही है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन (FAO) की हालिया रिपोर्ट “द स्टेट ऑफ फूड एंड एग्रीकल्चर 2025” चेतावनी देती है कि करीब 1.7 अरब लोग ऐसे क्षेत्रों में रह रहे हैं जहाँ मिट्टी की उपजाऊ परत खत्म होती जा रही है। गौरतलब है कि पूरी दुनिया में उपलब्ध खेती योग्य भूमि में लगभग 29 फीसदी हिस्सेदारी भारत की और लगभग 26 फीसदी हिस्सेदारी चीन की है। मानवजनित भूमि क्षरण के कारण दुनिया के कई हिस्सों में फसलों की पैदावार 10 फीसदी तक घट गई है। मरुस्थलीकरण के विश्व एटलस के अनुसार, अब तक 75 फीसदी उपजाऊ मिट्टी का क्षरण हो चुका है। मिट्टी के क्षरण की यदि यही रफ्तार रही तो 2050 तक धरती की हरियाली का चेहरा ही बदल सकता है। भारत में उपजाऊ मिट्टी के क्षरण पर आईआईटी दिल्ली की ओर से 2024 में हुए अध्ययन में सामने आया कि देश के लगभग 30 फीसदी भूभाग में मिट्टी की उपजाऊ शक्ति घट रही है, जबकि 3 फीसदी क्षेत्र विनाशकारी स्तर पर पहुंच चुका है। वैज्ञानिक मानते हैं कि यह सिर्फ पर्यावरण का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए खाद्यान्न सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए बड़ा संकट है।
रिपोर्ट के मुताबिक खाद्यान्न उत्पादन में कमी और कुपोषण के चलते पांच साल से कम उम्र के लगभग 4.7 करोड़ बच्चे बौनेपन की समस्या से जूझ रहे हैं। पूरी दुनिया की बात करें तो, एशियाई देश इस समस्या से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं । FAO की ओर से जारी इस रिपोर्ट में दावा किया गया है कि मौजूदा खेती योग्य भूमि पर इंसानों की गतिविधियों के चलते हो रहे उपजाऊ भूमि के क्षरण को रोकने से खाद्यान्न संकट को टाला जा सकता है। भूमि क्षरण के पीछे कोई एक कारण नहीं होता बल्कि कई कारण होते हैं। इनमें प्राकृतिक कारक, जैसे मृदा अपरदन और लवणीकरण, और मानव-जनित दबाव शामिल हैं, जो लगातार प्रबल होते जा रहे हैं। वनों की कटाई, असंतुलित फसल और सिंचाई पद्धतियाँ इसके प्रमुख कारणों में से हैं। लेकिन ये रिपोर्ट मुख्य रूप से मानव गतिविधियों के कारण होने वाले मिट्टी के क्षरण पर आधारित है।
जिस 10 फीसदी उपजाऊ भूमि का क्षरण हो रहा है उसके क्षरण को रोकने से ही कई समस्याएं हल हो जाएंगी। इस जमीन को वापस उपजाऊ बनाने, कटाव को कम करने और जैव विविधता में योगदान बढ़ाने के लिए फसल चक्र और कवर क्रॉपिंग जैसी टिकाऊ भूमि प्रबंधन प्रथाओं को अपनाकर हर साल अतिरिक्त 154 मिलियन लोगों को खिलाने के लिए पर्याप्त खाद्यान्न का उत्पादन किया जा सकता है। रिपोर्ट के मुताबिक पूरी दुनिया में लगभग 571 मिलियन खेत हैं। सभी आकार के खेत खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण है। लेकिन मध्यम और बड़े खेत, वैश्विक स्तर पर फसलों द्वारा प्रदान की जाने वाली किलोकैलोरी का क्रमशः 26 प्रतिशत और 58 प्रतिशत उत्पादन करते है। वे वैश्विक व्यापार और आपूर्ति श्रृंखलाओं में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दूसरी ओर, छोटे किसान, वैश्विक स्तर पर केवल 16 प्रतिशत उत्पादन करते हुए, निम्न और निम्न-मध्यम आय वाले देशों में महत्वपूर्ण हैं, जहाँ उनका योगदान लगभग 60 प्रतिशत है।
खेती योग्य कुल भूमि में से लगभग आधे से ज्यादा खेत भारत और चीन में ही हैं। वहीं पूर्वी और दक्षिण पूर्व एशिया के अन्य देशों को भी जोड़ लिया जाए तो लगभग 10 फीसदी और खेती योग्य भूमि इन देशों में है। ऐसे में पूरी दुनिया की खाद्यान्न की जरूरत को पूरा करने में एशिया की महत्वपूर्ण भूमिका है।
एक चम्मच के बराबर मिट्टी में इतने बैक्टीरिया या जीव होते हैं जिनकी संख्या धरती पर रहने वाले लोगों से ज्यादा होगी। पूसा में स्वॉयल साइंस एंड एग्रीकल्चर केमिस्ट्री विभाग के प्रमुख डॉ. देबाशीष मंडल कहते हैं कि पूरी धरती पर जितना भी खाद्य है उसका 99 फीसदी मिट्टी से आता है। सिर्फ एक फीसदी है जलीय जीवन से आता है। हमने पिछले कई दशकों से अपनी खाद्यान्न सुरक्षा के लिए मिट्टी से पोषक तत्व का शोषण किया है। इसका संतुलन बिगड़ गया है। पराली जलाए जाने जैसी घटनाओं से भी मिट्टी की बायोडाइवर्सिटी पर असर पड़ता है। बड़ी संख्या में जीवाणु और कीड़े मर जाते हैं। ऐसे में मिट्टी की उर्वरा शक्ति पर असर पड़ता है। किसानों को इस बात को समझना होगा। मिट्टी के जीवन को बनाए रखने के लिए हमें इसमें जैविक खाद का इस्तेमाल बढ़ाना होगा। वहीं समय समय पर मिट्टी की जांच करा कर जो भी पोषक तत्व कम हो उसकी भरपाई करनी होगी तभी हमें बेहतर उत्पादन मिल सकेगा।
पिछले एक दशक में जलवायु परिवर्तन के चलते बारिश का पैटर्न बदला है। ऐसे में अचानक और तेज बारिश के चलते मिट्टी की उपजाऊ परत को नुकसान पहुंच रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद द्वारा मिट्टी की जांच, बारिश के पैटर्न, पूर्वानुमान और फसल उपज पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का आकलन करने के लिए सिमुलेशन मॉडल अध्ययन किए हैं। अध्ययन से पता चला कि वर्ष 2050 एवं 2080 तक के मौसम में क्रमश: 4.9-10.1 से 5.5-18.9 फीसदी की रेंज में बढ़ोतरी का अनुमान है। वहीं इसी दौरान रबी के मौसम में 12-17 से 13-26 फीसदी के बीच बढ़ोतरी का अनुमान है। बारिश में इस बढ़ोतरी से 2050 तक हर साल उपजाऊ भूमि से प्रति हेक्टेयर 10 टन उपजाऊ मिट्टी का नुकसान होगा। जलवायु परिवर्तन को देखते हुए वर्ष 2030 तक बंजर भूमि में 6.7 मिलियन हेक्टेयर से 11 मिलियन हेक्टेयर तक की बढ़ोतरी का अनुमान है।
सदियों से खेती के विस्तार ने पूरे ग्रह पर भूमि-उपयोग के स्वरूप को मौलिक रूप से बदल दिया है। एफएओ की रिपोर्ट के मुताबिक इक्कीसवीं सदी में, 2001 और 2023 के बीच, वैश्विक कृषि क्षेत्र में 78 मिलियन हेक्टेयर (लगभग दो फीसदी) की कमी आई है है। वहीं स्थायी घास के मैदानों और चारागाहों में लगभग 151 मिलियन हेक्टेयर की कमी दर्ज की गई है। वहीं खेती के लिए नई उपजाऊ भूमि की तलाश में लगभग 72 मिलियन हेक्टेयर वन काटे गए। गौरतलब है कि हर साल भूमि की उपजाऊ शक्ति कम होने से लगभग 3.6 मिलियन हेक्टेयर भूमि त्याग दी जाती है।
भारत सरकार के 'बंजर भूमि एटलस' (2019) के मुताबिक देश में कुल 55.76 मिलियन हेक्टेयर बंजर भूमि है। ये कुल कुल भौगोलिक क्षेत्र का 16.96% है। सरकार की ओर से संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक सरकार कृषि क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के अनुमानित प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए कई तरह से तैयारी कर रही है। प्रतिकूल मौसम परिस्थितियों एवं संवेदनशील जिलों एवं क्षेत्रों के लिए उपयुक्त जलवायु अनुकूल कृषि प्रौद्योगिकी विकसित की जा रही है। इसके तहत स्थान के आधार पर मिट्टी के पोषक तत्वों के प्रबंधन पर काम किया जा रहा है। वहीं अनुपूरक सिंचाई, सूक्ष्म सिंचाई, पानी की बेहतर निकासी मृदा में सुधार आदि को बढ़ाना का भी प्रयास किया जा रहा है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने जलवायु परिवर्तन पर अंतर सरकारी पैनल प्रोटोकॉल के मुताबिक कृषि में जोखिम और संवेदनशीलता का मूल्यांकन भी किया है। कुल 109 जिलों को अति उच्च और 201 जिलों को अत्यधिक संवेदनशील के तौर पर चिन्हित किया गया है। कुल 151 जिलों में कृषि विज्ञान केंद्रों के माध्यम से अनुकूल उपाय अपनाए जा रहे हैं। मौसम की अनियमित स्थिति से मुकाबला करने के लिए कुल 651 जिलों के लिए जिला कृषि आकस्मिकता योजना भी विकसित की गई है।
भारत में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की बेहद कमी है। रानी लक्ष्मी बाई केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय झांसी के कुलपति डॉक्टर ए.के.सिंह कहते हैं कि मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा एक फीसदी से कम नहीं होनी चाहिए। लेकिन देश में ज्यादातर भूमि जहां फसलों का उत्पादन अधिक होता है इसकी मात्रा .5 फीसदी या इससे कम है। मिट्टी के लिए ऑर्गेनिक कार्बन बेहद जरूरी है। अगर मिट्टी में इसकी कमी हो जाए तो किसानों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले केमिकल फर्टिलाइजर भी काम करना बंद कर देंगे। इसका फसलों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। अच्छी फसल के लिए मिट्टी में आर्गेनिक कार्बन होना बेहद जरूरी है। मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की मात्रा को बढ़ाने के लिए किसानों को गोबर की खाद, डेंचा आदि का इस्तेमाल करना चाहिए। किसानों को खेत कभी खाली नहीं छोड़ने चाहिए। खेत खाली होने से भी ऑर्गेनिक कार्बन का नुकसान होता है।
जलवायु परिवर्तन, बढ़ती गर्मी और असमय बारिश से मिट्टी की ऊपरी उपजाऊ परत का लगातार नुकसान हो रहा है। इंटरनेशनल क्रॉप रिसर्च इंस्टीट्यूट फॉर सेमी एरॉयड ट्रॉपिक संस्था के ग्लोबल रिसर्च प्रोग्राम के डिप्टी डायरेक्टर डॉक्टर शैलेंद्र कुमार कहते हैं कि देश में ऐसे इलाकों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है जहां खेती के लिए पर्याप्त पानी की उपलब्धता नहीं होती है। ऐसे इलाकों में मिट्टी में ऑर्गेनिक कार्बन की कमी बड़ी समस्या बनती जा रही है। ऐसे हालात में मिलेट्स खाद्य जरूरतों को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मिलेट्स के पौधों की जड़ें मजबूत होती हैं। तेज बारिश में भी इनका पौधा गिरता नहीं है। वहीं जड़ें गहरी होने के चलते सूखे के दौरान इनका पौधा पारंपरिक फसलों की तुलना में काफी समय तक जीवित रह जाता है। मिलेट्स के पौधे तेज गर्मी भी बर्दाश्त कर लेते हैं। मिलेट्स पोषक तत्वों से भी भरपूर हैं। ऐसे में आम लोगों को बेहतर पोषण प्रदान करने के लिए भी ये एक बेहतर विकल्प है।
भारत में 30 फीसदी भूभाग में उपजाऊ मिट्टी का क्षरण
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली द्वारा 2024 में किए गए एक अध्ययन के अनुसार, भारत के 30% भूभाग में उपजाऊ मिट्टी का क्षरण हो रहा है, जबकि 3% भूभाग में विनाशकारी रूप से उपजाऊ मिट्टी की क्षति हो रही है। इसका मतलब है कि भारत प्रति वर्ष प्रति हेक्टेयर 20 टन से अधिक उपजाऊ मिट्टी खो देता है। अब तक 1,500 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ भूमि का नुकसान हो चुका है। असम और ओडिशा में ब्रह्मपुत्र घाटी में मिट्टी का क्षरण सबसे तेजी से हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक शिवालिक और हिमालय से आसपास के क्षेत्र भी गंभीर रूप से उपजाऊ मिट्टी के नुकसान से प्रभावित हैं। खेती के लिए अंधाधुंध केमिकल का इस्तेमाल और औद्योगिक गतिविधियों के चलते भारत में मिट्टी तेजी से अम्लीय होती जा रही है। साइंस जर्नल में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, भारत में मिट्टी के अम्लीय होने से अगले 30 वर्षों में मिट्टी की ऊपरी 0.3 मीटर सतह से 3.3 बिलियन टन मृदा अकार्बनिक कार्बन (SIC) की हानि हो सकती है। चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ सॉयल के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए एक अध्ययन में कहा गया है कि आने वाले समय में मिट्टी में मौजूद कार्बन के नुकसान के सबसे ज्यादा मामले भारत और चीन में देखे जा सकते हैं। इन देशों में नाइट्रोजन की मात्रा के कारण मिट्टी में अम्लता भी बढ़ रही है।
भारत में ज्यादा मिनरल सॉयल पाई जाती है। इसमें पोटेशियम भरपूर होता है। लेकिन खेती, औद्योगिकीकरण और अन्य कारणों से मिट्टी में पोटेशियम की कम होने लगी है। आज हमारे किसान मिट्टी में पोषक तत्व के तौर पर नाइट्रोजन खूब डालते हैं क्योंकि नाइट्रोजन की कमी पौधे में लक्षण या बीमारी दिखने लगती है। लेकिन कई ऐसे पोषक तत्व हैं जिनकी कमी पौधे को देख कर पता नहीं लगाई जा सकती है। किसान खेतों में मुख्य रूप से फर्टिलाइजर के तौर पर नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटेशियम डालते हैं। लेकिन मिट्टी में बोरॉन, कोबाल्ट, निकल जैसे कई ऐसे सूक्ष्म पोषक तत्व होते हैं जिनके बिना इन फर्टिलाइजर का पूरी तरह से फायदा पौधे को नहीं मिलता। उदाहरण के तौर पर पर अगर मिट्टी में निकल कम है तो बहुत से फर्टिलाइजर मिट्टी में अच्छे से काम नहीं करेंगे। हम जो भी पोषक तत्व या ऑर्गेनिक मैटर मिट्टी में डालते हैं उसका मात्र 3 फीसदी ही मिट्टी में मिल पाता है। बाकी पानी, हवा या अन्य माध्यमों से चला जाता है। ऐसी स्थिति में हमें संतुलित मात्रा में पोषक तत्व मिट्टी में डालने की जरूरत है जो देश में अलग अलग हिस्सों में अलग अलग है। मिट्टी में किस पोषक तत्व की कमी है इसका पता हम मिट्टी की जांच के जरिए लगा सकते हैं। भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान के प्रिंसिपल साइंटिस्ट और सॉयल केमिस्ट्री एंड फर्टिलिटी के विभाग प्रमुख डॉक्टर एके विश्वास कहते कहते हैं कि किसी भी पौधे के विकास के लिए कुल 17 पोषक तत्वों की जरूरत होती है। इसमें से 14 मिट्टी से आते हैं। बाकी पानी, धूप और हवा से आते हैं। 14 पोषक तत्वों के अलावा भी पौधे को कई तरह के माइक्रो न्यूट्रिएंट्स की जरूरत होती है।
-1761818821332.webp)

यूरोप में जिन कीटनाशकों के इस्तेमाल पर पाबंदी, यूरोपीय कंपनियां धड़ल्ले से कर रहीं उनका निर्यात

वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने बताया, कैसे खेती में गेम-चेंजर बन सकता है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस

फिर जलाई जाने लगी पराली, थोड़े मुनाफे के लिए किसान छीन रहे मिट्टी का जीवन

खेतों में घटते आर्गेनिक कार्बन से बिगड़ रही मिट्टी की सेहत, खाद्यान्न सुरक्षा के लिए बढ़ेगी चुनौती
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।