नई दिल्ली। संदीप राजवाड़े।

कोरोना की पहली-दूसरी लहर का नाम आते ही आंखों के सामने लॉकडाउन, अस्पतालों में आईसीयू और ऑक्सीजन सिलेंडर की जद्दोजहद के साथ एक के बाद एक हो रही मौत का दृश्य नजर आने लगता है। कोरोना का शारीरिक के साथ मानसिक स्तर पर भी बुरा असर पड़ा है। इसका डर और तनाव सिर्फ कोविड मरीजों ने नहीं, बल्कि उनका इलाज कर रहे हेल्थ वर्कर्स ने भी सहा है जिससे उनका स्ट्रेस बढ़ गया था। यह खुलासा भोपाल एम्स और इंडियन रेलवे हेल्थ सर्विसेज बीकानेर की एक स्टडी में सामने आया है। लंदन की जर्नल ऑफ एक्यूट डिजीज में यह स्टडी प्रकाशित हुई है। 

इसमें बताया गया है कि कोरोना की लहर के दौरान कोविड मरीजों का इलाज कर रहे डॉक्टर, नर्स और अन्य मेडिकल स्टॉफ में तनाव का स्तर काफी बढ़ गया था। स्टडी में शामिल कुल हेल्थ वर्कर्स में से 93 फीसदी (93.37%) ने यह स्ट्रेस उस दौरान महसूस किया। इनमें से करीबन 20 फीसदी (19.88%) को तो हाई स्ट्रेस रहा। शादीशुदा हेल्थकर्मियों में से 95 फीसदी स्ट्रेस में थे। हेल्थकर्मियों ने कैसे उस दौरान अपना स्ट्रेस कम किया और मरीजों का इलाज करने में लगे रहे, यह भी इस स्टडी का हिस्सा है। 

स्टडी में 694 मेडिकल स्टॉफ का आकलन

भोपाल एम्स के नर्सिंग ऑफिसर- सुपरिटेंडेंट की टीम ने इंडियन रेलवे हेल्थ सर्विसेज बीकानेर के साथ मिलकर कोविड के पहले और दूसरे फेस के दौरान कोविड मरीजों के इलाज में लगे मेडिकल स्टॉफ में तनाव की स्टडी की। स्टडी में शामिल भोपाल एम्स के असिस्टेंट नर्सिंग सुपरिटेंडेंट (साइकेट्रिक नर्सिंग एक्सपर्ट) दिगपाल सिंह चुंडावत और भोपाल एम्स की असिस्टेंट नर्सिंग सुपरिटेंडेंट (साइकेट्रिक नर्सिंग एक्सपर्ट) मुदिता शर्मा ने बताया कि महामारी के पहले फेस के दौरान हर आदमी डरा हुआ था। मरीजों की संख्या बढ़ रही थी और वे अस्पताल में भर्ती हो रहे थे। वह समय हेल्थकर्मियों के लिए बहुत ही तनाव भरा था। कई रिसर्च में सामने आया है कि ठीक होने के बाद भी कई कोविड मरीज मानसिक बीमारियों का शिकार हुए। इसका असर बच्चों, महिलाओं व बुजुर्गों सब पर पड़ा। एंजाइटी, डिप्रेशन और स्ट्रेस का लेवल बढ़ गया था। 

पहले फेस के दौरान कोविड वैक्सीन और इलाज के लिए कोई तय दवाई भी नहीं थी। उन हालात में हेल्थकर्मियों को 10-12 घंटे पीपीई किट पहनकर लगातार काम करना पड़ रहा था। दिगपाल के अनुसार, हमने भोपाल एम्स में उस दौरान कोविड की ड्यूटी में लगे 694 मेडिकल स्टॉफ का आकलन किया। इसमें 64 फिजिशियन, 606 नर्स और 24 अन्य हेल्थकर्मी शामिल थे। इन सभी की आयु 20 से 52 वर्ष थी। इस स्टडी के डेटा कलेक्शन और उसके विश्लेषण में इंडियन रेलवे हेल्थ सर्विस, बीकानेर के सीनियर नर्सिंग सुपरिटेंडेंट शत्रुघन पारिक, भोपाल एम्स के नर्सिंग ऑफिसर सुनील कुमार टेलर और रोहित रिछारिया शामिल थे। यह स्टडी मई से जुलाई 2021 के दौरान की गई थी। लंदन की जर्नल ऑफ एक्यूट डिजीज ने फरवरी 23 में स्टडी को स्वीकृत मिली और 26 अप्रैल 23 में इसे पब्लिश किया।  

कम आयु वालों में भी दिखा ज्यादा तनाव

डेटा विश्लेषक शत्रुघन और सुनील ने बताया कि स्टडी में शामिल सभी 694 मेडिकल स्टॉफ को उम्र, एजुकेशन, लिंग, प्रोफेशन, हेल्थ सेक्टर में काम के अनुभव, काम के क्षेत्र के अनुसार बांटा गया। इसमें शामिल सभी के स्ट्रेस का आकलन 32 सवालों के आधार पर किया गया। पहले उनसे स्ट्रेस लेवल से जुड़े सवाल पर जवाब मांगे गए। उसके बाद मिले जवाब से तय फॉर्मूले के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया। स्टडी में आयु वर्ग के हिसाब से 694 में सबसे ज्यादा 20-30 साल के 522 युवा थे। 31- 40 आयु वर्ग के 158 और 41- 50 आयु वर्ग के 12 और 51 से ज्यादा उम्र के 2 हेल्थकर्मी शामिल थे। स्टडी में पाया गया कि 93 फीसदी युवा हेल्थकर्मी, जिनकी उम्र 20 से 30 साल के बीच थी, उनका भी स्ट्रेस का स्तर बड़ी आयु वाले कर्मियों के बराबर था। इस युवा वर्ग में शामिल कुल 522 में 386 हेल्थकर्मियों को मध्यम स्ट्रेस और 102 को हाई स्ट्रेस था। सिर्फ 34 लोगों में स्ट्रेस का स्तर कम मिला, जबकि 31- 40 आयु वर्ग वाले 158 लोगों में से 148 स्ट्रेस में थे।  

महिलाओं से अधिक पुरुषकर्मियों में बढ़ा लेवल

डेटा विश्लेषक रोहित रिछारिया के अनुसार पुरुष हेल्थकर्मियों में महिलाओं की तुलना में ज्यादा स्ट्रेस था। कुल 476 पुरुष स्वास्थ्यकर्मियों में से 456 (95.79%) और कुल 218 महिलाकर्मियों में से 192 (88.07%) का स्ट्रेस बढ़ा था। नए हेल्थकर्मियों से ज्यादा स्ट्रेस व डर 3-6 साल से काम कर रहे वर्कर में मिला। 3-6 साल का काम अनुभव रखने वाले 97.3 फीसदी कर्मियों ने अपना स्ट्रेस बढ़ा हुआ महसूस किया। कुल 432 कर्मी ऐसे थे, जिन्हें एक से तीन साल के बीच का अनुभव था, उनमें से 402 लोगों (93.05%) में स्ट्रेस का स्तर बढ़ा था। इनमें मध्यम स्ट्रेस वाले 322 और हाई स्ट्रेस वाले 80 लोग थे। सिर्फ 30 लोगों में स्ट्रेस लेवल कम था। वहीं स्टडी में यह भी सामने आया कि कोविड आईसीयू में काम करने वाले हेल्थकर्मियों से ज्यादा वार्ड में ड्यूटी करने वाले कर्मचारियों में ज्यादा स्ट्रेस था। वार्ड में ड्यूटी कर रहे 93 फीसदी कर्मियों को तनाव था। 

शादीशुदा मेडिकल स्टॉफ में से 95 फीसदी में स्ट्रेस ज्यादा

भोपाल एम्स के असिस्टेंट नर्सिंग सुपरिटेंडेंट दिगपाल ने बताया कि स्टडी में शामिल कुल स्वास्थ्यकर्मियों में से शादीशुदा कर्मचारियों में स्ट्रेस कुछ ज्यादा था। शादीशुदा 418 मेडिकल स्टॉफ में से 398 (95.21%) में स्ट्रेस मिला। इनमें से 308 को मध्यम और 90 को हाई स्ट्रेस था। अविवाहित 266 हेल्थकर्मियों में से 242 (90.97%) में स्ट्रेस का लेवल अधिक था। स्टडी में शामिल फिजिशियन, नर्स व अन्य मेडिकल स्टॉफ में सबसे ज्यादा स्ट्रेस नर्सों में देखा गया। कोरोना के दौरान उनकी ड्यूटी आईसीयू व वार्ड में लगती थी और दोनों जगहों पर उन्हें मरीजों के संपर्क में रहना पड़ता था। 606 नर्स में से 574 (94.71%) में स्ट्रेस देखा गया। इनमें से 454 में मध्यम और 120 में हाई स्ट्रेस रहा। वहीं कुल 64 फिजिशियन में से 50 में स्ट्रेस मिला। इनमें 38 को मध्यम और 12 को हाई लेवल का तनाव रहा।   

स्ट्रेस से उबरने में महिला-पुरुष बराबर रहे, परिवार-योग ने संभाला

स्टडी करने वाले दिगपाल और सुनील ने बताया कि कोविड में ड्यूटी पर रहे मेडिकल स्टॉफ के स्ट्रेस के साथ उससे उबरने के स्तर का भी आकलन किया गया। इसमें पाया गया कि स्ट्रेस का स्तर कम करने में परिवार-दोस्तों की भूमिका बड़ी थी। इसके अलावा योग-कसरत से लोगों का तनाव कम हुआ। स्टडी में स्ट्रेस से उबरने की चार कैटगरी बनाई गई थीं- औसत से कम, औसत, औसत से अधिक और सुपेरियर। स्ट्रेस से उबरने में 20-30 आयु वर्ग के कुल 522 हेल्थकर्मियों में से 504 (96.55%) और 31-40 आयु वर्ग के 158 में से 154 (97.46%) औसत से ज्यादा और सुपेरियर कैटगरी के थे। इसी तरह, 1-3 साल के बीच अनुभव वाले कर्मियों में से 96.75 फीसदी स्ट्रेस से उबरने में औसत से ज्यादा व अच्छे रहे। अधिकतर का मानना था कि परिवार के साथ बिताए समय व पॉजिटिव बातचीत से उन्हें राहत मिली। इसके अलावा अध्यात्म, योग, कसरत के साथ आराम व पूरी नींद से भी स्ट्रेस का स्तर कम हुआ।

कोविड के बाद 26 से 28% बढ़ा मेंटल डिस्ऑर्डर: डब्ल्यूएचओ रिपोर्ट

डब्ल्यूएचओ की वर्ल्ड मेंटल हेल्थ रिपोर्ट 2022 के अनुसार कोविड-19 के बाद मेंटल डिस्ऑर्डर के केस बढ़े हैं। रिपोर्ट में बताया गया कि कोविड के पहले दुनिया में 193 मिलियन (प्रति एक लाख में 2471 पेशेंट) मरीज मेजर डिप्रेशिव डिस्ऑर्डर और 298 मिलियन (प्रति एक लाख में 3825 पेशेंट) मरीज एंग्जाइटी डिस्ऑर्डर से पीड़ित थे। 2020 में कोविड के बाद यह स्थिति पूरी तरह से बदल गई। 2020 में 246 मिलियन (प्रति लाख 3153 लोग) मरीज मेजर डिप्रेशिव डिस्ऑर्डर और 374 मिलियन (प्रति लाख में 4802 लोग)  एंग्जाइटी डिस्ऑर्डर से पीड़ित थे। कोविड के एक साल से कम समय के दौरान ही डिप्रेशन में 28 फीसदी और एंग्जाइटी में 26 फीसदी मरीजों की संख्या बढ़ गई।

90% को नहीं पता कि उन्हें स्ट्रेस-डिप्रेशन है, तत्काल जांच कराएं- मनोचिकित्सक

भोपाल की मनोचिकित्सक डॉ. समीक्षा साहू ने बताया कि कोरोना के बाद मानसिक रोगी बढ़े हैं। तनाव व डिप्रेशन के मामले अब हर आयु वर्ग में देखा जा रहा है। इससे कोई वर्ग अछूता नहीं रहा है। फ्रंट लाइन वर्कर, हेल्थ वर्कर्स में भी इसके केस बढ़े हैं। 80-90 फीसदी मरीजों को पता ही नहीं होता है कि उन्हें स्ट्रेस या डिप्रेशन है। उनके बदलते स्वभाव, कम होती नींद, प्रभावित होती कार्यक्षमता- पढ़ाई को वे अन्य कारणों से जोड़ लेते हैं। उनके परिवारवालों को यह बदलाव दिखाई देता है, लेकिन वे भी इसे बीमारी नहीं मानते हैं। 

डॉ. समीक्षा ने बताया कि बुखार-सर्दी की तरह ही स्ट्रेस, डिप्रेशन और एंग्जाइटी का इलाज संभव है। परिवार के किसी भी सदस्य, चाहे वह किसी भी उम्र का हो, उसके व्यवहार में पिछले कुछ दिनों से हो रहे बदलाव, चिड़चिड़ापन, कम भूख या कम नींद के साथ कुछ अलग लक्षण दिखाई दे तो उससे बात करें और विशेषज्ञ डॉक्टर को दिखाएं। ऐसे मामलों में लक्षण नजर आने के बाद भी अधिकतर लोग इसकी अनदेखी कर देते हैं। इससे यह समस्या बढ़ जाती है। परिवार-दोस्तों से बात करना, उनसे अपनी समस्या- परेशानी साझा करना, परिवार- बच्चों के साथ घूमना, समय बिताना, योग व कसरत करने के साथ नशा से दूर रहकर स्ट्रेस व डिप्रेशन कम होता है।