एस.के. सिंह, नई दिल्ली। मजबूत इन्फ्रास्ट्रक्चर टिकाऊ विकास की पहली शर्त है। बिजली, सड़क, रेल, पोर्ट, एयरपोर्ट, शहरी इन्फ्रा आदि में सुधार होने से दूसरे सेक्टर को गति मिलती है। माना जाता है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर में जीडीपी का एक प्रतिशत निवेश किया जाए तो जीडीपी दो प्रतिशत बढ़ेगी। थोड़ी देर से सही, भारत में इन्फ्रास्ट्रक्चर पर फोकस बढ़ा है और इसके नतीजे भी दिखने लगे हैं। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 31 जनवरी को संसद के संयुक्त सत्र में कहा कि भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा एविएशन मार्केट बन चुका है। इंटरनेशनल एनर्जी एसोसिएशन (IEA) के इंडिया एनर्जी आउटलुक 2021 के अनुसार भारत दुनिया का तीसरा सबसे अधिक ऊर्जा खपत वाला देश है। भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कंस्ट्रक्शन बाजार बन चुका है और यहां लॉजिस्टिक्स मार्केट 2025 तक 320 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर में तो गिने-चुने देश ही भारत से आगे हैं।

उद्योग संवर्धन और आंतरिक व्यापार विभाग (DPIIT) की विशेष सचिव सुमिता डावरा ने पिछले दिनों कहा कि मौजूदा वित्त वर्ष में विभिन्न मंत्रालयों के पांच लाख करोड़ रुपये के 66 बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट के लिए आवेदन आए हैं। डावरा के अनुसार केंद्र सरकार ने करीब 100 इंडस्ट्रियल क्लस्टर का चयन किया है जिनका राज्यों के साथ मिलकर समग्र विकास किया जाएगा। गति शक्ति मास्टर प्लान के तहत क्लस्टर के 150 से 200 किलोमीटर के दायरे में इन्फ्रास्ट्रक्चर की खामियां दूर की जाएंगी।

हाल के वर्षों में इन्फ्रास्ट्रक्चर के सभी क्षेत्रों पर केंद्र सरकार का फोकस बढ़ा है। ट्रेड, इनवेस्टमेंट और इन्फ्रास्ट्रक्चर पर उद्योग चैंबर सीआईआई (CII) के टास्कफोर्स के चेयरमैन और देश के जाने-माने इन्फ्रा विशेषज्ञ विनायक चटर्जी जागरण प्राइम से कहते हैं, “सरकार 2014 से इन्फ्रास्ट्रक्चर पर लगातार खर्च बढ़ा रही है। इसके लिए बजट आवंटन दो लाख करोड़ से बढ़कर (2023-24 के लिए) 10 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गया है। थंब रूल यह है कि केंद्र सरकार बजट में इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए जितना प्रावधान करती है, उतनी ही राशि तीन अन्य स्रोतों से आती है- राज्य सरकारों से, निजी क्षेत्र से और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों से।” कह सकते हैं कि इस वर्ष इन्फ्रा के लिए 20 लाख करोड़ रुपये की पूंजी उपलब्ध होगी। यह हमारी जीडीपी का 8-9% है जो विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ज्यादा है।

वित्त वर्ष 2014-15 के अंतरिम बजट में तत्कालीन यूपीए सरकार के वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए 1,81,134 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। वर्ष 2023-24 के बजट में पूंजीगत व्यय के लिए 10 लाख करोड़ से तुलना करें तो इन नौ वर्षों में बजट आवंटन 5.5 गुना बढ़ा है।

उद्योग चैंबर फिक्की (FICCI) और प्रॉपर्टी कंसल्टेंट एनारॉक (ANAROCK) की एक रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाने की दिशा में कई बड़े कदम उठाए हैं। वेयरहाउस, इंडस्ट्रियल और लॉजिस्टिक्स (WIL) पर फोकस किया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की चाइना प्लस वन नीति के चलते अनेक कंपनियां भारत में अपना बेस बना रही हैं। इससे भी WIL सेक्टर को बूस्ट मिलेगा। रिपोर्ट में रिटेल सेक्टर को इन्फ्रा में मजबूती का प्रमुख आधार बताया गया है। भारत का रिटेल सेक्टर 2019 से 2030 तक सालाना 9% औसत की दर से बढ़ने का अनुमान है। यह 2030 में 1.8 ट्रिलियन डॉलर का हो जाएगा, जो 2020 में 705 अरब डॉलर का था। WIL सेक्टर को कंज्यूमर प्रोडक्ट, अपैरल, ड्यूरेबल, हेल्थकेयर, फुटवियर तथा अन्य क्षेत्रों से मांग का फायदा मिलेगा।

निजी निवेश के लिए प्रयास

इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए भारी-भरकम आवंटन की घोषणा करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले बजट भाषण में कहा, “महामारी में गिरावट आने के बाद निजी निवेश फिर बढ़ रहा है। सरकारी संसाधनों पर निर्भर विभिन्न इन्फ्रा सेक्टर में निजी निवेश आकर्षित करने के लिए नवगठित इन्फ्रास्ट्रक्चर फाइनेंस सचिवालय सभी पक्षों की मदद करेगा।”

2022-23 के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार सड़क, रेलवे और जल परिवहन में बीते 8 वर्षों के दौरान काफी विस्तार देखा गया। मल्टीमोडल ट्रांसपोर्टेशन विकसित होने से निजी क्षेत्र के लिए भी निवेश के मौके बने हैं। निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाने के लिए सरकार पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (PPP), नेशनल इन्फ्राट्रक्चर पाइपलाइन (NIP) और नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन (NMP) लेकर आई। एफिशिएंसी बढ़ाने और लागत कम करने के उद्देश्य से गति शक्ति और नेशनल लॉजिस्टिक्स पॉलिसी (NLP) भी लांच की गई है। इन्फ्रा प्रोजेक्ट की फाइनेंसिंग के लिए सरकार ने नेशनल बैंक फॉर फाइनेंसिंग इन्फ्राट्रक्चर एंड डेवलपमेंट (NaBFID) का गठन किया है। एनआईपी में अभी तक 47 सब-सेक्टर में 8965 प्रोजेक्ट मंजूर हो चुके हैं, जिन पर 1.8 लाख करोड़ डॉलर खर्च आने का अनुमान है। अभी दो हजार से ज्यादा प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है।

इसमें दो राय नहीं कि इन्फ्रास्ट्रक्चर मजबूत बनाने के लिए सरकार की तरफ से गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन क्या निजी क्षेत्र भी उतनी रुचि दिखा रहा है?

विनायक चटर्जी कहते हैं, “सरकार की नीति है ईपीसी (इंजीनियरिंग, प्रोक्योरमेंट और कंस्ट्रक्शन) के जरिए ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट तैयार करना और ब्राउनफील्ड प्रोजेक्ट का मॉनेटाइजेशन। इसे मैं जुगलबंदी पॉलिसी कहता हूं। ग्रीनफील्ड (नया) प्रोजेक्ट में प्राइवेट सेक्टर जल्दी नहीं जाना चाहता, लेकिन बहुत से देसी-विदेशी निवेशक तैयार हाइवे टोल, रिन्यूएबल एनर्जी प्रोजेक्ट या ट्रांसमिशन लाइन जैसे ऑपरेशनल (ब्राउनफील्ड) प्रोजेक्ट में निवेश कर सकते हैं।”

वे कहते हैं, “तबला दोनों हाथों से बजना चाहिए। समस्या है कि बजट आवंटन हो रहा है, ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट बन रहे हैं, लेकिन मॉनेटाइजेशन का लक्ष्य पूरा नहीं हो रहा। इस साल सरकार ने 1.62 लाख करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा था, वह मुश्किल से 50,000 करोड़ तक पहुंचेगा। मौजूदा नीति की सबसे बड़ी समस्या यही है।”

पीएमओ की सक्रियता से तेजी

ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट में तेजी की वजह बताते हुए विनायक कहते हैं, प्रधानमंत्री के स्तर पर इस पर काफी ध्यान दिया जा रहा है। तीन स्तर पर मॉनिटरिंग हो रही है। प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के स्तर पर प्रगति प्लेटफॉर्म (Pro-Active Governance and Timely Implementation-PRAGATI) है, जहां प्रधानमंत्री सीधे जिला मजिस्ट्रेट से पूछते हैं कि क्या दिक्कत आ रही है। उसके बाद नीति आयोग को भी धीमे चल रहे प्रोजेक्ट के आकलन की जिम्मेदारी दी गई है। आयोग ने करीब तीन लाख करोड़ रुपये के प्रोजेक्ट छोड़ने की सलाह दी जो अच्छा कदम है। जहां काम नहीं बढ़ रहा है, वहां पैसे क्यों बर्बाद किए जाएं। तीसरा है वाणिज्य मंत्रालय का प्रोजेक्ट मॉनिटरिंग ग्रुप (PMG) जो यूपीए सरकार के समय से चला आ रहा है। यह ग्रुप भी निगरानी रखता है कि प्रोजेक्ट में कहां देरी हो रही है। पीएम गति शक्ति प्लेटफॉर्म के रूप में उनके पास निगरानी का बड़ा हथियार है।

लॉजिस्टिक्सः गति शक्ति से गति

मैन्युफैक्चरिंग और ईकॉमर्स के विकास के लिए लॉजिस्टिक्स मजबूत होना जरूरी है। इसकी जरूरत को हमने कोरोना के समय भी महसूस किया। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में लॉजिस्टिक्स का खर्च जीडीपी के 14% से 18% तक रहा है जबकि वैश्विक औसत 8% का है। इसे कम करने के लिए उड़े देश का आम नागरिक (UDAN), भारतमाला, सागरमाला, पर्वतमाला, नेशनल रेल प्लान, ई-संचित, आइसगेट (Indian Customs Electronic Data Interchange Gateway) जैसी योजनाएं शुरू की गई हैं। इन्हें इंटीग्रेट करने के मकसद से 17 सितंबर 2022 को नेशनल लॉजिस्टिक्स पॉलिसी लांच की गई। इसके तीन उद्देश्य हैं। पहला, 2030 तक लॉजिस्टिक्स का खर्च विश्व औसत के बराबर लाना, दूसरा, लॉजिस्टिक परफॉर्मेंस इंडेक्स रैंकिंग में 2030 तक शीर्ष 25 देशों में स्थान हासिल करना (वर्ल्ड बैंक के 2018 के इंडेक्स में भारत 160 देशों की सूची में 44वें स्थान पर था) और तीसरा, एक सक्षम लॉजिस्टिक्स इकोसिस्टम के लिए डाटा आधारित सपोर्ट मेकैनिज्म तैयार करना।

विकसित देशों का अनुभव बताता है कि वहां विकास में मल्टीमोडल ट्रांसपोर्ट की बड़ी भूमिका रही है। इसी दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त 2021 को गति शक्ति योजना की घोषणा की और 13 अक्टूबर 2021 को इसे लांच किया गया। गति शक्ति प्रोग्राम में 7 इंजन हैं- रोड, एयरपोर्ट, रेलवे, मास ट्रांसपोर्ट, लॉजिस्टिक्स, इन्फ्रास्ट्रक्चर और वाटर वे। इसके तहत मल्टीमोडल कनेक्टिविटी विकसित की जाएगी ताकि लॉजिस्टिक्स की लागत कम की जा सके। इस योजना से उत्पादकता बढ़ाने और विकास को गति देने में मदद मिलेगी। फिक्की-एनारॉक रिपोर्ट के मुताबिक 250 अरब डॉलर का लॉजिस्टिक्स सेक्टर 2025 तक 380 अरब डॉलर का हो जाएगा।

पीएम गति शक्ति नेशनल मास्टर प्लान के तहत मुंबई स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग (NITIE) को लॉजिस्टिक्स तथा सप्लाई चेन मैनेजमेंट में क्षमता निर्माण के लिए नोडल हब बनाया गया है। संस्थान के डायरेक्टर प्रो. मनोज तिवारी और उनकी सहयोगियों ने बताया, “गति शक्ति मास्टर प्लान के तहत एक डिजिटल प्लेटफॉर्म तैयार किया गया है, जिससे 16 से ज्यादा मंत्रालय एक प्लेटफॉर्म पर आ जाएंगे। इससे मास ट्रांसपोर्टेशन के साथ मल्टीमोडल लॉजिस्टिक्स पार्क का भी विकास होगा। हर मोड के बीच डाटा एक्सचेंज होने से मैन्युफैक्चरिंग को भी बढ़ावा मिलेगा।”

वे कहते हैं, लॉजिस्टिक्स खर्च कम होने से मैन्युफैक्चरिंग लागत कम होगी। इस पॉलिसी का उद्देश्य भारत में निर्मित वस्तुओं को प्रतिस्पर्धी बनाना है। इससे नए इकोनॉमिक जोन भी विकसित होंगे। पीएम गति शक्ति के साथ यह पॉलिसी मैन्युफैक्चरिंग और रोजगार सृजन में बड़ा बदलाव ला सकती है। गति शक्ति के सभी सात इंजन को अहमदाबाद स्थित भास्कराचार्य इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस एप्लिकेशंस एंड जियोइन्फॉर्मेटिक्स (BISAG) के जरिए साथ लाया गया है। BISAG के यूनिफाइड प्लेटफॉर्म पर सबका डाटा उपलब्ध होगा। इसके पीछे विचार यह है कि अगर कोई मैन्युफैक्चरिंग हब डेवलप करना चाहता है तो उसे इस प्लेटफॉर्म से सभी तरह के आंकड़े उपलब्ध हो जाएंगे। इससे प्रक्रिया में लगने वाला समय बचेगा।

शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर पर बढ़ता दबाव

सीआईआई की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2031 तक भारत के शहरों की आबादी 60 करोड़ पहुंचने का अनुमान है। अभी देश की 30% आबादी शहरों में रहती है। चीन में यह अनुपात 45%, इंडोनेशिया में 54%, मेक्सिको में 78% और ब्राजील में 87% है। फिक्की-एनारॉक रिपोर्ट के अनुसार भारत के शहर देश की इकोनॉमी में 60% योगदान करते हैं, लेकिन भौगोलिक क्षेत्र सिर्फ तीन प्रतिशत है। इस तरह शहरीकरण भविष्य में विकास का मुख्य आधार हो सकता है। 2011 से 2013 के दौरान शहरीकरण की दर 31.2% से 31.9% थी, 2021 में यह 34.5% हो गई। 2036 तक इसके 39.15% तक पहुंचने का अनुमान है। शहरीकरण बढ़ने से अर्बन मार्केट बढ़ेगा और वेयरहाउसिंग, इंडस्ट्रियल तथा लॉजिस्टिक्स की क्षमता बढ़ाने की जरूरत पड़ेगी।

लेकिन इस मामले में प्रगति कमजोर है। विनायक चटर्जी कहते हैं, “अर्बन इन्फ्राट्रक्चर निश्चित रूप से समस्या वाला क्षेत्र है। इसे लेकर दो रिपोर्ट आई हैं और दोनों निगेटिव हैं। एक वर्ल्ड बैंक की और दूसरी रिजर्व बैंक की। इनमें कहा गया है कि भारतीय शहरों की जरूरतों को देखते हुए उतने प्रयास नहीं किए गए, जितने की जरूरत थी। शहरों को आर्थिक संसाधन जुटाने की अपनी क्षमता बढ़ाने और अपने इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश करने की जरूरत है।”

वर्ल्ड बैंक की नवंबर 2022 की रिपोर्ट के अनुसार भारत अगर अपनी तेजी से बढ़ती शहरी आबादी की जरूरतों को प्रभावी तरीके से पूरा करना चाहता है तो अगले 15 वर्षों के दौरान अर्बन इन्फ्रास्ट्रक्चर पर 840 अरब डॉलर के निवेश की जरूरत पड़ेगी। यानी हर साल 55 अरब डॉलर। इसमें आर्थिक संसाधनों की कमी पूरी करने के लिए निजी निवेश पर जोर देने की बात कही गई है।

रिपोर्ट के अनुसार, अभी केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर सिटी इन्फ्रास्ट्रक्चर की 75% फाइनेंसिंग करती हैं, स्थानीय निकाय 15% योगदान करते हैं। निजी क्षेत्र सिर्फ 5% का योगदान करता है। वर्ल्ड बैंक के कंट्री डायरेक्टर ऑगस्ते तानो कोउमी (Auguste Tano Kouamé) के अनुसार भारत में ग्रीन, स्मार्ट, इनक्लूसिव और सस्टेनेबल अर्बनाइजेशन के लिए काफी धनराशि की जरूरत है। ऐसा वातावरण तैयार करना जरूरी है, जिसमें शहरी स्थानीय निकाय प्राइवेट स्रोतों से अधिक धन जुटा सकें।

शहरी इन्फ्रा पर बढ़ते दबाव की बात करते हुए फिक्की महासचिव शैलेश पाठक कहते हैं, “हम जिस शहर में पैदा हुए उसका क्षेत्रफल और आबादी दोनों दोगुना हो गई है, 30 साल बाद वह फिर दोगुनी हो जाएगी।” निजी निवेश के सवाल पर वे कहते हैं, “अर्बन इन्फ्राट्रक्चर में दो तरह के निवेश होते हैं। एक है सड़क, बिजली, पानी, ट्रीटमेंट प्लांट आदि पर निवेश और दूसरा है ऑफिस बिल्डिंग जैसे क्षेत्र। बिल्डिंग तो प्राइवेट सेक्टर बनाएगा लेकिन पब्लिक को सुविधाएं देने वाला इन्फ्रास्ट्रक्चर सरकार बनाएगी।”

वे कहते हैं, समस्या फंड की है। फेडरल ढांचा वाले अनेक देशों में लोग सबसे ज्यादा अपने शहर को टैक्स देते हैं, उसके बाद राज्य को और सबसे कम केंद्र को। हमारे यहां शहरों का टैक्स बहुत कम है। मकान भले करोड़ों का हो, लेकिन साल भर में उसका प्रॉपर्टी टैक्स दो हजार रुपये के आसपास होगा। निकायों के अपने संसाधन कम होने के कारण ही उन्हें धन जुटाने में परेशानी आती है। प्राइवेट सेक्टर निवेश करने से पहले देखता है कि सरकार उस पर गारंटी दे रही है या नहीं।

शैलेश के अनुसार अगले 20-25 वर्षों के दौरान भारत में जो इन्फ्रास्ट्रक्चर बनेगा वह शहरों में ही बनेगा। पूर्वांचल एक्सप्रेस जैसे प्रोजेक्ट कम ही होंगे। जैसे, मुंबई-पुणे एक्सप्रेसवे 1997 में बना था। तब से मुंबई और पुणे की आबादी दोगुनी हो चुकी है, लेकिन एक्सप्रेसवे एक ही है। इसलिए चुनौती शहर की सरकारों को ज्यादा सक्षम बनाने की है। 74वें संविधान संशोधन में स्थानीय निकायों को सशक्त करने की बात थी, लेकिन उसमें कुछ खास हुआ नहीं।

टियर-2 शहरों पर फोकस

दुनिया की सबसे बड़ी कॉमर्शियल रियल एस्टेट सर्विसेज और इन्वेस्टमेंट फर्म सीबीआरई (CBRE) के इंडिया, साउथ-ईस्ट एशिया, मिड-ईस्ट और अफ्रीका के चेयरमैन और सीईओ अंशुमन मैगजीन के मुताबिक, महानगरों से इतर अन्य जगहों पर भी शहरीकरण बढ़ रहा है। इसे देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों ने पॉलिसी सुधार और इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में रणनीतिक पहल की हैं। नॉन मेट्रो शहर भी लोगों की पसंद बनने लगे हैं। इससे चंडीगढ़, जयपुर, लखनऊ, अहमदाबाद, इंदौर, कोच्चि, कोयंबटूर, तिरुवनंतपुरम और विशाखापत्तनम जैसे टियर-2 शहरों का आर्थिक महत्व बढ़ा है। वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास हो रहा है, कनेक्टिविटी बेहतर हो रही है। इन शहरों में औद्योगिक इकाइयों की संख्या और बिजनेस क्लस्टर बढ़ने से यह बात साबित होती है।

इसके अलावा, मेट्रो, रेल, रोड, एयरपोर्ट नेटवर्क का विस्तार भी टियर-2 शहरों का डायनामिक्स बदल रहा है। आने वाले वर्षों में ये शहर भारत के नए ग्रोथ वेक्टर बनेंगे। खासकर वहां रियल एस्टेट, काम का माहौल, जीवन शैली की गुणवत्ता और सस्टेनेबिलिटी में बेहतरी को देखते हुए। मेट्रो से बाहर विकास की मौजूदा गति को बनाए रखने के लिए सरकार को टियर-2 शहरों के महत्व को स्वीकार करना चाहिए और संतुलित विकास के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर की कमियों को पूरा करना चाहिए।

शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म दोनों उपाय जरूरी

भारत के शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर में कमी को कैसे दूर किया जा सकता है, यह पूछने पर प्रॉपर्टी कंसलटेंट एनारॉक ग्रुप के चेयरमैन अनुज पुरी कहते हैं, “इसके लिए शॉर्ट टर्म और लॉन्ग टर्म के मिले-जुले उपाय अपनाने होंगे। शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और मेंटनेंस के लिए फंडिंग अहम है। सरकार इसके लिए बजट आवंटन बढ़ा सकती है और पीपीपी के जरिए निजी क्षेत्र को शामिल कर सकती है। इस तरह निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता और संसाधनों का इस्तेमाल इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और सर्विसेज की डिलीवरी में हो सकेगा। प्राइवेट रियल एस्टेट डेवलपर जलापूर्ति, बिजली और साफ-सफाई की बुनियादी सुविधाएं तथा कम लागत वाले हाउसिंग प्रोजेक्ट का निर्माण कर सकते हैं।

शहरी इन्फ्रा मजबूत बनाने के लिए अनुज स्मार्ट सिटी स्कीम पर भी फोकस बढ़ाने की बात कहते हैं। स्मार्ट सिटी में इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने और सर्विसेज की डिलीवरी में टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से क्षमता बढ़ेगी, लागत कम होगी और नागरिकों का जीवन बेहतर होगा।

वे कहते हैं, प्रभावी इन्फ्राट्रक्चर डेवलपमेंट और उसके प्रबंधन के लिए शहरी स्थानीय निकायों और नगर निगमों की क्षमता बढ़ाना भी आवश्यक है। इसके लिए सरकार स्थानीय निकायों को प्रशिक्षण देने के साथ तकनीकी सहायता भी उपलब्ध करा सकती है। नागरिकों की भागीदारी भी शहरी इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और मेंटनेंस में अहम भूमिका निभा सकती है। सरकार को प्रोजेक्ट की प्लानिंग, उस पर अमल और निगरानी में नागरिकों को शामिल करना चाहिए।

निजी निवेश कैसे आएगा

निजी निवेश कैसे बढ़ेगा, यह पूछने पर विनायक चटर्जी कहते हैं, “यह तभी संभव है जब निजी क्षेत्र को समान अवसर का भरोसा मिलेगा। कई कारणों से उनका मोहभंग हुआ है। एक बड़ी वजह है स्वतंत्र रेगुलेटरी अथॉरिटी का अभाव। विवाद होने पर निष्पक्ष फैसला देने वाली कोई अथॉरिटी नहीं है। दिल्ली मेट्रो का उदाहरण हमारे सामने है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद सरकार की तरफ से पैसे जारी नहीं किए जा रहे हैं।”

चटर्जी के अनुसार सरकार की तरफ से जल्दी भुगतान के लिए कई कदम उठाए गए हैं। वित्त मंत्रालय का 29 अक्टूबर 2021 को जारी सर्कुलर इस दिशा में अब तक का सबसे अच्छा कदम कहा जा सकता है। मंत्रालय के व्यय विभाग की तरफ से जारी ‘जनरल इंस्ट्रक्शन ऑफ प्रोक्योरमेंट एंड प्रोजेक्ट मैनेजमेंट’ में स्पष्ट कहा गया है कि केंद्र सरकार की सभी एजेंसियों को बिल जमा होने के 10 दिन के भीतर 75% रकम और 28 दिनों में पूरी रकम का भुगतान करना होगा।

हालांकि इस आदेश के बावजूद दिल्ली मेट्रो का उदाहरण सामने हैं। चटर्जी कहते हैं, “सरकारी एजेंसियां धीरे-धीरे इस वास्तविकता को स्वीकार कर रही हैं और इस पर अमल कर रही हैं। आने वाले दिनों में सीएजी (CAG) की ऑडिटिंग में भी देखा जाएगा कि किसी एजेंसी ने भुगतान में देरी क्यों की। हालांकि यह सिर्फ केंद्र सरकार की एजेंसियों तक सीमित है, राज्यों ने इस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाया है।”

चटर्जी सरकार द्वारा गठित विजय केलकर समिति की दिसंबर 2015 में पीपीपी मॉडल पर इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट रिपोर्ट का भी हवाला देते हैं। उसमें कहा गया था, “इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने में पीपीपी को एक महत्वपूर्ण इंस्ट्रूमेंट के तौर पर इस्तेमाल करने की सफलता उन सभी अथॉरिटी के एटीट्यूड और माइंडसेट बदलने पर निर्भर करेगी जो पीपीपी प्रोजेक्ट को डील करते हैं। इनमें प्राइवेट सेक्टर के साथ साझेदारी करने वाली सरकारी एजेंसियां, प्रोजेक्ट की निगरानी करने वाले सरकारी विभाग तथा ऑडिटिंग और विधायी संस्थान भी शामिल हैं।”

चटर्जी कहते हैं, “निजी निवेश वापस लाने के लिए समिति की रिपोर्ट में कई सिफारिशें की गईं, लेकिन उनमें से बहुत कम पर सरकार ने अमल किया है। इसलिए पीपीपी अभी तक बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है।”

फिक्की के शैलेश पाठक के अनुसार निजी कंपनी तभी आएगी जब बिजली-सड़क-पानी जैसा बेसिक इन्फ्राट्रक्चर उपलब्ध होगा। वे कहते हैं, “इन्फ्रास्ट्रक्चर चाहे सरकारी क्षेत्र से बने या निजी क्षेत्र से, उसका सबसे ज्यादा लाभ तो निजी क्षेत्र को ही मिलेगा। लखनऊ से बलिया तक पूर्वांचल एक्सप्रेस पर सरकार ने जो भी खर्च किया हो, उसकी वजह से प्राइवेट सेक्टर कम से कम 50 गुना निवेश करेगा।”

वे बताते हैं, शुरुआत में भारतीय रेल पूरी तरह प्राइवेट इन्वेस्टमेंट से ही बनी थी। 1850 से 1880 के बीच प्राइवेट सेक्टर ने रेलवे को बनाया। तब सरकार ने पूंजी निवेश पर 5% रिटर्न की गारंटी दी थी। 1920 के बाद भारतीय रेल का सरकारीकरण हुआ। वे स्पष्ट कहते हैं, “बिना अच्छे रिटर्न के प्राइवेट सेक्टर क्यों निवेश करेगा? इसलिए अब मॉडल थोड़ा बदला है। बनाने में ज्यादा जोखिम है, चलाने में कम। उदाहरण के लिए, हमें मालूम है कि जब गाड़ियां चल रही हैं, तो टोल कलेक्शन हो ही जाएगा। इस तरह सरकार और प्राइवेट सेक्टर दोनों फायदे में हैं।”

विनायक चटर्जी के मुताबिक रिन्यूएबल एनर्जी, रेलवे, अर्बन मेट्रो, रोड जैसे सेक्टर में अच्छा काम हो रहा है लेकिन स्मार्ट सिटी, अंतर्देशीय जल परिवहन जैसे क्षेत्रों में प्रगति बहुत धीमी है।

रिन्यूएबल बिजली की बढ़ती हिस्सेदारी

भारत दुनिया का तीसरा सबसे अधिक ऊर्जा खपत वाला देश बना है तो इसकी बड़ी वजह उत्पादन क्षमता का बढ़ना है। यह एक दशक में 95% बढ़ी है। ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार बिजली उत्पादन क्षमता जनवरी 2013 में 211 गीगावाट थी, जो जनवरी 2023 में 411 गीगावाट हो गई। उज्ज्वल डिस्कॉम एश्योरेंस योजना (UDAY) से बिजली वितरण कंपनियों की आर्थिक सेहत मजबूत करने में मदद भी मिली है।

हालांकि अभी कई चुनौतियां हैं। IEA इंडिया एनर्जी आउटलुक 2021 के अनुसार देश में प्रति व्यक्ति ऊर्जा खपत विश्व औसत का आधा है। अब भी आधी बिजली कोयला से बनती है। वर्ष 2021-22 में 50.47% बिजली उत्पादन कोयला से, 30.01% रिन्यूएबल से 11.57% हाइड्रो से, 6.13% गैस से, 1.67% न्यूक्लियर से और 0.15% डीजल से हुआ। सीआईआई के अनुसार कुछ समय तक कोयला ही ऊर्जा का मुख्य स्रोत बना रहेगा, लेकिन 2027 तक 57% बिजली रिन्यूएबल स्रोतों से आने का अनुमान है। IEA ने वर्ल्ड एनर्जी आउटलुक 2022 में कहा है कि भारत 2030 तक रिन्यूएबल की क्षमता 500 गीगावाट तक करने की दिशा में बढ़ रहा है।

1.4 लाख किमी का हाइवे नेटवर्क

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार 63.73 लाख किलोमीटर रोड नेटवर्क के साथ भारत दुनिया में दूसरे स्थान पर है। 2014-15 में देश में 97,830 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग था, 2022-23 में यह 30 नवंबर 2022 तक 1,44,634 किमी हो गया। आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि 2015-16 में 6,061 किलोमीटर नेशनल हाइवे और सड़कें बनी थीं। 2021-22 में 10,457 किलोमीटर सड़कें बनीं। मंत्रालय के कैबिनेट अपडेट के अनुसार 2022-23 में जनवरी तक 6,803 किमी हाइवे का निर्माण किया गया, जबकि पिछले साल इसी अवधि में 6,684 किमी हाइवे बना था। पूरे साल में 12,000 किमी हाइवे बनाने का लक्ष्य है।

मध्य वर्ग से सिविल एविएशन को बूस्ट

इन्फ्रास्ट्रक्चर के जिन क्षेत्रों में तेज प्रगति हुई है, उनमें नागरिक उड्डयन भी है। मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पिछले दिनों एक कार्यक्रम में कहा कि 2014 तक देश में 74 एयरपोर्ट थे, अब इनकी संख्या (हेलीपोर्ट और वाटर एयरोड्रोम समेत) दोगुनी यानी 148 हो गई है। आर्थिक सर्वेक्षण (2022-23) के अनुसार मध्य वर्ग की डिमांड बढ़ने, आबादी और पर्यटन में वृद्धि, लोगों की डिस्पोजेबल आय में वृद्धि, आबादी में युवाओं की संख्या जैसे कारणों से भारत में नागरिक उड्डयन क्षेत्र के विकास की काफी संभावनाएं हैं। एयरपोर्ट अथॉरिटी के अनुसार जनवरी 2014 में घरेलू विमान यात्रियों की संख्या 1.02 करोड़ थी, जो जनवरी 2023 में लगभग ढाई गुना, 2.49 करोड़ हो गई। हालांकि पूरे साल का आंकड़ा देखें तो एक दशक में घरेलू विमान यात्री 90% बढ़े हैं।

बंदरगाह और अंतर्देशीय जल परिवहन

भारत का अंतरराष्ट्रीय व्यापार मात्रा के लिहाज से 90% और मूल्य के लिहाज से लगभग 80% बंदरगाहों के जरिए होता है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार मार्च 2014 में देश के प्रमुख बंदरगाहों की क्षमता 87.15 करोड़ टन सालाना थी, जो मार्च 2022 तक 153.49 करोड़ टन हो चुकी थी। वर्ष 2014 में 7.49 करोड़ टन का माल परिवहन बंदरगाहों से किया गया था, जो 2022 में 13.3 करोड़ टन हो गया। देश में नदियों-नहरों के 14,850 किलोमीटर लंबे जलमार्ग में यातायात संभव है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार देश में कुल 111 राष्ट्रीय जलमार्ग हैं। 2021-22 में इनसे रिकॉर्ड 10.88 करोड़ टन माल परिवहन किया गया।

डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर में आगे भारत

नए भारत में डिजिटल इंडिया पर जोर देने से डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर भी मजबूत हो रहा है। यूपीआई, ई-रुपया, ई-वे बिल, एमएसएमई के लिए TReDS डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने वाले कदम हैं। सरकार ने 2025 तक भारत की डिजिटल इकोनॉमी को एक लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। डिजिटल इन्फ्रा में भारत की न सिर्फ तारीफ हो रही है, बल्कि यहां के इनोवेशन को दूसरे देश भी अपना रहे हैं। बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटेलमेंट्स (BIS) ने एक वर्किंग पेपर में कहा है कि फाइनेंशियल इनक्लूजन के लिए भारत में उठाए गए कदमों के कारण जो चीजें सामान्य गति से आधी सदी में हासिल की जातीं, वह 10 साल में हो गईं। वैसे भी फाइनेंशियल टेक्नोलॉजी अपनाने में भारतीय अनेक देशों से आगे हैं। आईबीईएफ के अनुसार, इसका विश्व औसत 64% है जबकि भारत में यह 87% है। यही कारण है कि डिजिटल पेमेंट में अमेरिका और चीन के बाद भारत तीसरे स्थान पर पहुंच गया है।

मजबूत डिजिटल इन्फ्रा के कारण भारत फिनटेक इंडस्ट्री के ग्लोबल हब के रूप में उभर रहा है। आईबीईएफ के मुताबिक, 2025 तक इसका मार्केट 1.3 लाख करोड़ डॉलर हो जाने की उम्मीद है। इंडिया स्टैक (किसी एप्लिकेशन के लिए प्रोग्रामिंग लैंग्वेज से लेकर यूजर इंटरफेस तक जरूरी सभी तरह की टेक्नोलॉजी) डिजिटल इन्फ्रा में नई क्रांति बन सकता है। ओपन नेटवर्क ऑफ डिजिटल कॉमर्स (ONDC), यूपीआई तथा टेक्नोलॉजी में अन्य विकास से भारत में सप्लाई चेन पूरी तरह बदल जाएगा। रिजर्व बैंक के एकाउंट एग्रीगेटर सिस्टम से कर्ज व्यवस्था में भी काफी बदलाव की उम्मीद है।

एनारॉक चेयरमैन अनुज पुरी तो यहां तक कहते हैं कि शहरों का इन्फ्रास्ट्रक्चर सुधारने में डिजिटाइजेशन की बड़ी भूमिका हो सकती है। इसके लिए स्मार्ट टेक्नोलॉजी, रियल-टाइम मॉनिटरिंग, नागरिकों की साझेदारी, प्रेडिक्टिव मेंटनेंस, सर्विसेज में सुधार और डाटा आधारित फैसले लिया जाना जरूरी है।

पिछली शताब्दी में दक्षिण कोरिया और चीन में कई मल्टीमोडल कॉरिडोर का विकास किया गया। इसका असर वहां आर्थिक विकास पर दिखा। भारत में भी गति शक्ति परियोजना के तहत मल्टीमोडल कनेक्टिविटी पर फोकस किया जा रहा है। इससे वस्तुओं का ट्रांसपोर्ट आसान होगा, दूरदराज तक कनेक्टिविटी उपलब्ध होगी, लोगों की यात्रा का समय कम होगा, लॉजिस्टिक्स का खर्च घटेगा तथा निर्यात में हम ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो सकेंगे। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार भारत ने COP 27 में उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य रखा है। इसलिए एडवांस इन्फ्रास्ट्रक्चर की दिशा में कदम उठाए जाएंगे, जो ज्यादा ऊर्जा सक्षम होंगे और सर्कुलर इकोनॉमी तथा लो कार्बन डेवलपमेंट पर आधारित होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में भौतिक और डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के बीच बेहतर समन्वय होगा, जिससे विकास की गति भी बढ़ेगी।