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Kasoombo Hindi Review: धर्म की रक्षा के लिए गांव के बलिदान से कांप गया था खिलजी, हिंदी में आई गुजराती फिल्म

मुगलों से जुड़े इतिहास को कई बार कहानियों के जरिए पर्दे पर दिखाया गया है। इनमें अनगिनत कहानियां ऐसी हैं जिनमें अपने धर्म सम्मान और संस्कृति की रक्षा के लिए देशवासियों ने बलिदान दिये। आक्रांताओं के सामने सीना ठोककर खड़े रहे। सिर कटा दिया लेकिन अपने धर्म को नहीं छोड़ा। ऐसी ही एक कहानी कसूंबो है जो गुजराती के बाद हिंदी में रिलीज हुई है।

By Jagran News Edited By: Manoj Vashisth Published: Mon, 06 May 2024 08:39 PM (IST)Updated: Mon, 06 May 2024 08:39 PM (IST)
कसूंबो हिंदी में अब रिलीज हुई है। फोटो- स्क्रीनशॉट

स्मिता श्रीवास्तव, मुंबई। क्षेत्रीय सिनेमा लगातार बेहतरीन कहानियां सामने ला रहा है। कम बजट में बनी यह फिल्‍में न सिर्फ शानदार कंटेंट ला रही है, बल्कि जनमानस को झकझोरने का काम भी कर रही है। इस कड़ी में मूल रुप से गुजराती में बनीं और हिंदी में डब हो कर रिलीज हुई फिल्‍म कसूंबो आई है।

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यह उस गांव की कहानी है जिसने अपने देवालयों की रक्षा की खातिर खुद ही अपना सिर कलम कर दिया। सिनेमा में इन कहानियों को बढ़ावा देने की जरूरत है।

धर्म रक्षा के लिए बलिदान की कहानी 

कसूंबो 14वीं सदी के उत्‍तरार्द्ध की कहानी है, जब दूसरा सिकंदर बनने का ख्‍वाब देख रहा मुगल शासक अलाउद्दीन खिलजी (दर्शन पंड्या) की तलवारें हिंद की सरजमीं पर खून की स्‍याही से नई सरहदें बुलंद कर रहीं थीं। गुज्‍जर भूमि के अंतिम राजा करण सिंह बाघेला को कपट से हराकर खिलजी की नजर सौराष्‍ट्र की समृद्धि पर थी।

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गो‍हिलवाड के शत्रुंजय क्षेत्र में आदिनाथ दादा का धाम पर्वत के शिखर पर शोभित है। पर्वत की तलहटी में बसे आदिपुर गांव के निवासी उसकी रक्षा करते हैं। गांव के लोग लूटपाट और डकैतों से त्रस्‍त होते हैं। गांव के मुखिया दादु बारोट (धर्मेंद्र गोहिल) के आदेश का सभी पालन करते हें।

बारोट की बेटी गांव के साहसी युवक अमर (रौनक कामदार) से प्रेम करती है। एक कुख्‍यात डाकू को पकड़ने के बाद बारोट अपनी बेटी सुजान (श्रद्धां डांगर) के साथ अमर की शादी करा देता है। उधर खिलजी को इस गांव के देवालयों और संपत्ति के बारे में पता चलता है। वह गांव पर हमले की योजना बनाता है।

गांववासी उसके पास शांति प्रस्‍ताव लाते हैं, लेकिन मंदिर को देखने के बाद उसकी नीयत बदल जाती है। आखिर में अपने मंदिरों और धर्म की रक्षा की खातिर गांववासी खुद का बलिदान दे देते हैं। यह देखकर निर्मम खिलजी भी सिहर जाता है।

धामी के उपन्यास से प्रेरित है फिल्म की कहानी

सत्‍य घटना पर आधारित कसूंबो की कहानी विमल कुमार धामी के उपन्‍यास अमर बलिदान पर आधारित है। साधारण तरीके से बनी इस फिल्‍म की भव्‍यता विशाल सेट नहीं, बल्कि उसके संवाद और ट्रीटमेंट है। फिल्‍म सरल सहज तरीके से ग्रामीणों की सादगी, देशप्रेम और धर्म के प्रति अटूट आस्‍था और भक्ति को दर्शाती है।

यह खिलजी संजय लीला भंसाली की फिल्‍म पद्मावत के खिलजी की तरह ग्‍लैमरस नहीं है, लेकिन क्‍लाइमेक्‍स में ग्रामीणों की एकजुटता और धर्म के प्रति आस्‍था जिस तरह से खि‍लजी को घुटने टेकने को मजबूर करती है, वो रोंगटे कर देने वाला दृश्‍य है। फिल्‍म में भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति को खबसूरती से ना सिर्फ पेश किया गया है, बल्कि उसका बखान खिलजी के किरदार के जरिए करवाया भी है।

मुगल आक्रांताओं ने किस प्रकार सनातम धर्म को खत्‍म करने की कोशिश की। हिंदुओं पर किस प्रकार के जुल्‍म ढहाए उसकी बानगी फिल्‍म में देखने को मिलती है। निर्देशक विजय बावा गांव की सरल सहज जिंदगी की झलक देते हुए खिलजी की दुनिया में ले जाते हैं।

यह खिलजी चीखता चिल्‍लाता नहीं है, लेकिन अपने संवादों और भाव भंगिमाओं से अपने इरादों को व्‍यक्‍त कर देता है। यही किरदार की जीत है। राम गोरी और विजयगीरी बावा द्वारा लिखी गई पटकथा धर्म में वर्णित असली शिक्षाओं का बिना भाषणबाजी के उल्‍लेख करती है। मुखिया की भूमिका में धर्मेंद्र गोहिल द्वारा गांववासियों के समक्ष अपनी प्रतिभा के प्रदर्शन का दृश्‍य शानदार है।

अभिनय से असरदार हुई पटकथा

दादा बरोट के ठहराव और धैर्य को धर्मेंद्र में बहुत सहजता से आत्‍मसात किया है। वह काबिले तारीफ है। अमर बने रौनक कामदार और सुजान बनीं श्रद्धा डांगर की प्रेम कहानी के साथ आप जुड़ाव महसूस करते हैं। दोनों अपने किरदार में रमे नजर आए हैं।

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यहां पर सुजान के पात्र के जरिए महिला सशक्‍तीकरण भी नजर आता है। खिलजी बने दर्शन पंड्या का काम प्रशंसनीय हैं। फिल्‍म की अवधि को चुस्‍त संपादन से कम करने की पूरी गुंजाइश थी। बाकी फिल्म का गीत संगीत कहानी साथ सुसंगत है। मातृभूमि के प्रति निष्‍ठा और समर्पण, धर्म की रक्षा के लिए अपनी प्राण न्‍योछावर करने की यह कहानी प्रेरणादायक है।


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