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    उत्तराखंड विधासभा चुनावः दोनों मंडलों में खम ठोक दम दिखाएंगे सीएम

    By BhanuEdited By:
    Updated: Tue, 24 Jan 2017 02:00 AM (IST)

    उत्तराखंड विधासनभा चुनाव 2017 में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ऐन मौके पर दो-दो विधानसभा सीटों से चुनाव मैदान में उतर चौंकाने वाला दांव चल दिया।

    उत्तराखंड विधासभा चुनावः दोनों मंडलों में खम ठोक दम दिखाएंगे सीएम

    देहरादून, [विकास धूलिया]: उत्तराखंड विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री हरीश रावत ने ऐन मौके पर दो-दो विधानसभा सीटों से चुनाव मैदान में उतर चौंकाने वाला दांव चल दिया। हरिद्वार हरदा का पुराना लोकसभा क्षेत्र रहा है, लिहाजा उन्होंने इसके अंतर्गत हरिद्वार ग्रामीण सीट को खुद के लिए चुना तो तराई की किच्छा सीट पर खम ठोक कर संकेत साफ कर दिए कि दिग्गज यशपाल आर्य के कांग्रेस छोड़ने के बाद वह स्वयं ऊधमसिंह नगर में पार्टी के अभियान की बागडोर अपने हाथों में लेने जा रहे हैं। इसके अलावा, मुख्यमंत्री के इस फैसले में भविष्य के भी निहितार्थ छिपे हैं, अगर वह दोनों सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रहते हैं तो।

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    मुख्यमंत्री हरीश रावत ने आखिर तक इस बात को छिपाए रखने की कोशिश की कि वह किस सीट से चुनाव मैदान में उतरेंगे। हालांकि पिछले तीन सालों से सक्रियता के लिहाज से हरदा के हरिद्वार के साथ ही केदारनाथ सीट से चुनाव लड़ने के कयास लगाए जाते रहे।

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    बाद में इनमें देहरादून की सहसपुर और नैनीताल जिले की रामनगर सीट भी शामिल हो गई। दरअसल, पिछले काफी समय से कांग्रेस इस लिहाज से इन चारों सीटों पर किलेबंदी कर चल रही थी कि जैसा मौका बनेगा, उसी के हिसाब से फैसला ले लिया जाए। अब टिकट बंटवारे के बाद इसकी पुष्टि भी हो गई।

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    कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के लिए तैयार की गई सहसपुर सीट पर प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को मैदान में उतार दिया तो रामनगर सीट पर मुख्यमंत्री के अत्यंत विश्वस्त माने जाने वाले पूर्व विधायक और प्रधान सलाहकार रणजीत रावत को टिकट दिया।

    हरीश रावत ने पिछली लोकसभा में हरिद्वार का प्रतिनिधित्व किया और केंद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। इस लिहाज से हरिद्वार लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली सभी विधानसभा सीटों से हरीश रावत का पुराना नाता माना जा सकता है।

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    हरिद्वार ग्रामीण सीट पर उनकी पुत्री अनुपमा रावत दावेदारी कर रही थीं और उन्होंने तथा स्वयं मुख्यमंत्री हरीश रावत ने भी इसके लिए वहां पुख्ता सियासी जमीन तैयार की।

    वह तो हाईकमान से पड़े दबाव और परिवारवाद के आरोपों से बचने के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत को अनुपमा को मैदान से हटाना पड़ा। अब जिस सीट को पिछले तीन सालों से पालापोसा, भला उससे मुफीद और सुरक्षित सीट हरदा के लिए कोई और कैसे हो सकती थी।

    ऐसा नहीं है कि उन्हें हरिद्वार ग्रामीण सीट पर पूरा भरोसा नहीं था, इसलिए किच्छा से भी चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया। दरअसल, किच्छा को चुनने का फैसला पिछले एक हफ्ते के राजनैतिक घटनाक्रम की परिणति रही। इसे कांग्रेस की सियासी मजबूरी और रावत की रणनीति का हिस्सा भी कहा जा सकता है।

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    18 मार्च 2016 को कांग्रेस में बगावत के बाद कुल नौ विधायकों ने कांग्रेस से दामन छुड़ा लिया। इनमें से पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ऊधमसिंह नगर की सितारगंज और डॉ. शैलेंद्र मोहन सिंघल जसपुर सीट से विधायक थे।

    साफ है कि इनके भाजपा में शामिल हो जाने से कांग्रेस जिले में खासी कमजोर हुई। इसके बावजूद यशपाल आर्य जैसा कद्दावर नेता तराई में कांग्रेस के पास था और पार्टी को भरोसा था कि आर्य के बूते दो बड़े नेताओं के चले जाने से उत्पन्न शून्य को काफी हद तक भर लिया जाएगा।

    कांग्रेस को तब आकस्मिक और तगड़ा झटका लगा जब पिछले हफ्ते यशपाल आर्य अपने पुत्र संजीव के साथ भाजपा में शामिल हो गए भाजपा टिकट पर मैदान में आ डटे। इससे कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं पर गहरा असर पड़ा।

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    पिछले विधानसभा चुनाव में ऊधमसिंह नगर की नौ विधानसभा सीटों में से कांग्रेस को केवल दो सीटें जसपुर व बाजपुर मिली थीं, जबकि भाजपा को सात। इनमें से सितारगंज सीट से जीते भाजपा विधायक किरण मंडल का इस्तीफा करा तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने उपचुनाव जीत कांग्रेस के विधायकों का आंकड़ा तीन तक पहुंचाया। लेकिन, पहले मार्च 2016 में इनमें से दो बहुगुणा और सिंघल कांग्रेस से भाजपा में चले गए और अब तीसरे यशपाल आर्य भी उनकी राह पर चल निकल भाजपाई हो गए। इससे ऊधमसिंह नगर कांग्रेस विधायकों के लिहाज से शून्य हो गई।

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    यही बड़ी वजह रही कि इस शून्य की भरपाई के लिए मुख्यमंत्री हरीश रावत ने स्वयं मोर्चा संभालने का फैसला किया। हालांकि पार्टी के पास इसके अलावा कोई चारा भी नहीं था क्योंकि आर्य के मुकाबले के लिए एकमात्र हरीश रावत ही कांग्रेस के पास बड़ा चेहरा हैं।

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    मुख्यमंत्री के फैसले को इस रणनीति के तौर पर भी देखा जा सकता है कि इससे उन्होंने हाईकमान तक संदेश पहुंचा दिया कि उनकी पूरे प्रदेश में स्वीकार्यता है और गढ़वाल या कुमाऊं, वह कहीं से भी चुनाव लड़कर जीत सकते हैं।

    वैसे हरदा के इस कदम के भविष्य के लिहाज से गहरे सियासी निहितार्थ भी हैं। अगर वह दोनों सीटें जीत लेते हैं तो बाद में उन्हें एक सीट से इस्तीफा देना पड़ेगा। अब यह तो स्वयं हरदा तय करेंगे कि वह किस सीट को रखेंगे और किस सीट को छोड़ेंगे, लेकिन तब होने वाले उपचुनाव में वह किसी अपने को एडजस्ट करने का मौका हासिल कर लेंगे। अब आप स्वयं आंकलन करिए, हरदा का इस मामले में क्या फैसला रहेगा।

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