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आजमगढ़ लोकसभा सीट : अखिलेश यादव ने क्यों चुनी पूर्वांचल की यह महत्‍वपूर्ण सीट, जानें

2014 में मोदी लहर के बावजूद सपा के संरक्षक और पूर्व सीएम मुलायम सिंह यादव आजमगढ़ सीट बचा पाने में सफल रहे थे। दूसरी तरफ अभी भाजपा ने यहां कोई उम्मीदवार घोषित नहीं किया है।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Tue, 02 Apr 2019 11:10 AM (IST)Updated: Tue, 02 Apr 2019 02:38 PM (IST)
आजमगढ़ लोकसभा सीट : अखिलेश यादव ने क्यों चुनी पूर्वांचल की यह महत्‍वपूर्ण सीट, जानें

लखनऊ [जागरण स्‍पेशल]। लोकसभा चुनावों को लेकर सभी ने अपनी रणनीति बनाई है। उत्‍तर प्रदेश को लेकर जहां भाजपा की अपनी रणनीति है तो सपा-बसपा और आरएलडी ने भी अपनी रणनीति बनाई हुई है। इसी रणनीति के तहत पूर्व सीएम और सपा के अध्‍यक्ष अखिलेश यादव ने आजमगढ़ सीट पर लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है।

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2014 लोकसभा चुनाव में मोदी लहर के बावजूद सपा के संरक्षक और पूर्व सीएम मुलायम सिंह यादव यह सीट बचा पाने में सफल रहे थे। दूसरी तरफ अभी भाजपा ने यहां कोई उम्मीदवार घोषित नहीं किया है। 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के वाराणसी सीट पर लोकसभा चुनाव लड़ने से भाजपा को यह फायदा हुआ कि वह पूर्वांचल की ज्‍यादतर सीटें और बिहार में भी दबदबा कायम करने में कमयाब रही। ठीक इसी रणनीति के तहत अखिलेश यादव को आजमगढ़ लोकसभा सीट पर उतारा गया है, जिसका फायदा पूर्वांचल की अन्‍य सीटों पर मिल सके।

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राजनीति हलचल है काफी कम
आजमगढ़ में फिलहाल राजनीतिक पार्टियों और प्रत्याशियों के पोस्टर्स ना के बराबर हैं। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि भाजपा ने अब तक अपना प्रत्याशी उतारा नहीं है। उधर, भाजपा की तरफ से भोजपुरी फिल्मों के सुपरस्टार दिनेश लाल यादव 'निरहुआ' के मैदान में उतरने की चर्चा जरूर है। आजमगढ़ में अभी राजनीतिक पार्टियों की तरफ से खास हलचल चुनाव को लेकर नहीं दिख रही है। 12 मई को आजमगढ़ में चुनाव है। करीब 136 साल पुराने शिबली कॉलेज के शिक्षकों के एक ग्रुप का मानना है कि अखिलेश की जीत यहां से तय है।

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कहीं चुनाव के बाद धोखा न दे दें उम्‍मीदवार
2011 की जनगणना के अनुसार आजमगढ़ में करीब 16 फीसदी मुसलमान हैं। वहीं करीब 25 फीसदी दलित हैं। अगर चुनावों जातिगत आंकड़े हावी होते हैं तो निश्चित रूप से गठबंधन में साथ आने का फायदा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को मिलना तय है। अब तक चुनावी इतिहास को देखें तो भी इस क्षेत्र में 70 के दशक के बाद सपा-बसपा का बोलबाला रहा है। 2014 के मोदी लहर में भी मुलायम सिंह भी जीत दर्ज कर सपा के गढ़ को बचाए रखने में कामयाब हुए थे। पूरे पूर्वांचल में सपा सिर्फ यही सीट जीत सकी।

हालांकि, कुछ जानकार इस बात को लेकर अभी संशय में हैं कि क्या चुनाव बाद भी सपा-बसपा का गठबंधन बरकरार रहेगा या फिर मौका मिलने पर दोनों अलग हो जाएंगे। शिबली कॉलेज में कानून के शिक्षक खालिद शमीम का कहना है कि ऐसे समय में जब देश में सांप्रदायिक तापमान लगातार बढ़ रहा है, हम दोहरे संशय में हैं। हमें इस बात का भी डर है कि कहीं हम जिन पार्टियों को वोट दे रहे हैं, वही बाद में हमें धोखा ना दे दें।

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लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को देना चाहते हैं समर्थन
एक अन्य शिक्षक एसजेड अली का कहना है कि राष्ट्रीय स्तर के चुनावों (आम चुनाव) में मुस्लिम अक्सर कांग्रेस के साथ जाते हैं, लेकिन हमारे सामने यही सवाल होता है कि क्या कांग्रेस इतनी मजबूत है कि वह जीत सके। हम कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं पर, कई बार हमें लगता है कि कांग्रेस को हमारे वोट से भाजपा की राह आसान हो जाएगी।

पीएम के खिलाफ प्रियंका क्यों नहीं?
उधर, दोनों ही शिक्षक इस बात से निराश दिखे कि वाराणसी सीट से नरेंद्र मोदी के खिलाफ कांग्रेस ने प्रियंका गांधी वाड्रा को मैदान में क्यों नहीं उतारा। उधर, शाह माजिद इसे दूसरे रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि 2004 में भी कुछ ऐसी ही स्थिति थी। मीडिया और सभी सर्वे बता रहे थे कि भाजपा बड़ी जीत दर्ज करने वाली है। पर, हुआ क्या कांग्रेस की सरकार बनी। इस बार भी वैसा ही कुछ हो रहा है। मुझे भाजपा के खिलाफ एक लहर दिख रही है।

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अखिलेश के सामने कौन, लोगों के बीच है चर्चा
उधर, पूर्व सरकारी कर्मचारी विजय बहादुर सिंह का कहना है कि इस बार इस सीट पर कड़ा मुकाबला तय है। मुझे शक है कि दलित यादवों के लिए वोट करेंगे। वह खुद ठाकुर हैं और वह साफ कहते हैं कि उनका वोट भाजपा के लिए तय है। आजमगढ़ में यह अभी तक साफ नहीं है कि यहां अखिलेश के सामने मैदान में कौन होगा।

भाजपा की तरफ से उम्मीदवारों में रमाकांत यादव का भी नाम चल रहा है जो कि 2009 में भाजपा से सांसद रह चुके हैं। पर, रमाकांत यादव इससे पहले सपा और बसपा से भी सांसद रहे हैं। ऐसे में उन पर भाजपा कितना भरोसा करती है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा।

निरहुआ है मदारी
भोजपुरी स्टार दिनेश लाल को लेकर भी लोग बंटे हुए हैं। सब्जी व्यापारी राकेश यादव निरहुआ को मदारी कहते हैं। राकेश का कहना है कि कई बार सड़क पर कुछ लोग करतब दिखाते हैं। आप रूककर उसे देखते भी हैं लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि उन्हें पैसा भी दें। दूसरे शब्दों में वह कहते हैं कि इसका यह मतलब है कि दिनेश लाल को देखने के लिए भीड़ तो उमड़ सकती है लेकिन वह वोटों में तब्दील नहीं होगी।

सपा अध्‍यक्ष की जीत लगभग तय
एक स्थानीय पत्रकार का कहना है कि सपा-बसपा कार्यकर्ताओं के बीच संबंध पहले से बेहतर हुए हैं। यह स्थिति अखिलेश के पक्ष में है। हालांकि भाजपा कैडर भी यहां मेहनत से जुटा हुआ है। शमीम का मानना है कि अखिलेश की जीत तय है।

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