यह स्वागतयोग्य है कि केंद्र सरकार डाटा संरक्षण नियमावली को अंतिम रूप देने के पहले जनता के सुझावों से अवगत होना चाहती है। इसी दृष्टि से उसने इस नियमावली का मसौदा जारी किया है। आज डाटा सुरक्षा एक अनिवार्य आवश्यकता है, क्योंकि लोगों के निजी डाटा की चोरी और उसके दुरुपयोग के मामले बढ़ रहे हैं।

कई बार तो सोशल मीडिया कही जाने वाली इंटरनेट कंपनियां ही इस डाटा का दुरुपयोग करती हैं। लोगों का डाटा चोरी होता ही रहता है। जब ऐसा होता है तो संबंधित कंपनी आगे और सतर्कता बरतने का आश्वासन देकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है।

चिंताजनक केवल यह नहीं है कि लोगों की सहमति के बिना उनके व्यक्तिगत डाटा का इस्तेमाल विभिन्न कंपनियां मनमाने तरीके से करती हैं, बल्कि यह भी है कि उसके जरिये उनके विचारों को प्रभावित करने की भी कोशिश की जाती है।

ऐसे में ऐसी कोई व्यवस्था बननी ही चाहिए, जिससे लोगों को यह पता चल सके कि इंटरनेट कंपनियां उनकी व्यक्तिगत जानकारी का इस्तेमाल किस तरह कर रही हैं। यह भी जरूरी है कि देश के लोगों का डाटा देश में ही रहे।

डिजिटल व्यक्तिगत डाटा संरक्षण संबंधी प्रस्तावित नियमावली में एक प्रविधान यह भी है कि सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म पर अकाउंट खोलने वाले 18 साल से कम आयु के बच्चों को माता-पिता की सहमति लेनी होगी। यह प्रविधान उपयुक्त तो दिखता है, लेकिन इसमें संदेह है कि इस पर प्रभावी ढंग से अमल हो सकेगा, क्योंकि माता-पिता की सहमति की नौबत तो तब आएगी, जब बच्चा अपनी आयु 18 से वर्ष से कम बताएगा।

यदि वह ऐसा नहीं करता और अपनी उम्र 18 वर्ष या इससे अधिक बताता है, जिसकी संभावना भी है तो बहुत आसानी से सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म पर अपना अकाउंट खोलने में समर्थ हो जाएगा। यह किसी से छिपा नहीं कि ऐसे प्लेटफार्मों पर बहुत सी सामग्री ऐसी होती है, जो बच्चों के लिए उपयुक्त नहीं होती।

ऐसे प्लेटफार्म बच्चों के स्वाभाविक विकास में बाधक बनने के साथ ही उन्हें मोबाइल का लती भी बना रहे हैं। इसके चलते ही आस्ट्रेलिया ने अभी हाल में बच्चों को सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए यह कानून बना दिया है कि कोई भी सोशल नेटवर्क प्लेटफार्म 16 वर्ष से कम आयु के किसी बच्चे का अकाउंट नहीं खोल सकता। यह बहस का विषय है कि क्या भारत को भी ऐसा करना चाहिए?

इस बहस के बीच यह भी समझा जाना चाहिए कि बच्चों को सोशल नेटवर्क साइट्स के दुष्प्रभावों से बचाने की जिम्मेदारी केवल सरकार पर नहीं डाली जा जा सकती। यह जिम्मेदारी अभिभावकों को खुद भी उठानी होगी। उन्हें यह देखना होगा कि यदि उनका बच्चा मोबाइल फोन का उपयोग कर रहा है तो वह किस तरह की सामग्री देख रहा है।