प्रदीप सिंह।

राष्ट्रपति का चुनाव अमूमन आम लोगों में बहुत ज्यादा उत्सुकता नहीं जगाता। उसका एक बड़ा कारण तो यही है कि राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता नहीं करती, बल्कि जनता के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं। दूसरे ज्यादातर मौकों की तरह इस बार भी सबको पता है कि सत्तारूढ़ गठबंधन के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का जीतना तय है। इसके बाद भी इस बार के राष्ट्रपति चुनाव ने कई और मुद्दे उठाए हैं। ये मुद्दे किसी उम्मीदवार की जीत-हार से इतर हैं। यह चुनाव दो दलित उम्मीदवारों के बीच नहीं है, जैसा कि इसे पेश करने की कोशिश हो रही है। यह चुनाव इस देश में पिछले सत्तर साल में पनपी नई कुलीन संस्कृति और परंपरागत समाज के बीच है। यह चुनाव संभ्रांत वर्ग की दुनिया में ग्रामीण परिवेश के प्रवेश और पदारोहण का भी है।

रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार, दोनों ही दलित परिवार में पैदा हुए। दोनों के बीच समानता यहीं खत्म हो जाती है। रामनाथ कोविंद को देश की राजधानी के कुलीन वर्ग ने कभी स्वीकार नहीं किया। वरना क्या कारण है कि जो व्यक्ति 40 साल पहले प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई का निजी सहायक रहा हो, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में वकालत की हो, 12 साल राज्यसभा का सदस्य रहा हो, भाजपा संगठन में विभिन्न पदों पर रह चुका हो और करीब दो वर्ष से बिहार का राज्यपाल हो उसे राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाए जाने पर ऐसी प्रतिक्रिया आए कि ये कहां से आ गए?

कोविंद की तुलना में मीरा कुमार दिल्ली के कुलीन वर्ग की संस्कृति में रची-बसी हैं। उन्हें अपना परिचय देने की जरूरत नहीं है। उनका पहला परिचय ही उनके पिता बाबू जगजीवन राम के नाम से होता है। मीरा कुमार को जीवन में वह सब कुछ सहज ही प्राप्त हुआ जो किसी भी राजपरिवार के व्यक्ति को हासिल हो सकता है। उनके मुकाबले रामनाथ कोविंद को सब कुछ संघर्ष, कड़े परिश्रम और लगन से हासिल हुआ है। यह चुनाव केवल राष्ट्रपति चुनने के लिए ही नहीं है। रामनाथ कोविंद का राष्ट्रपति भवन में प्रवेश देशज अस्मिता का प्रवेश है। 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ इसकी शुरुआत हुई थी। देश का कुलीन वर्ग इस परिवर्तन को अभी तक स्वीकार नहीं कर पाया है। राष्ट्रपति चुनाव को विपक्षी दलों ने विपक्षी एकता की ताकत दिखाने और मोदी को चुनौती देने के अवसर में बदलने की कोशिश की, लेकिन हुआ उल्टा। कहते हैं कि हार जब निश्चित लग रही हो तो लड़ने की बजाय पीछे हटकर अगले मौके का इंतजार करने में ही समझदारी है।

राष्ट्रपति चुनाव में विपक्षी दलों के पास यह मौका था, जो उन्होंने गंवा दिया। राजग उम्मीदवार रामनाथ कोविंद का समर्थन करके विपक्ष हार की निराशा से ही नहीं, राजनीति में हो रहे सामाजिक परिवर्तन के विरोध में खड़े होने से बच सकता था। जनतांत्रिक व्यवस्था में चुनाव होने में कोई हर्ज नहीं है, बल्कि अच्छी बात है, लेकिन कभी-कभी आम राय जनतंत्र के स्वास्थ्य के लिए ज्यादा अच्छी होती है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी कानून है। इस ऐतिहासिक कानून को बनाने में हर राज्य और प्रत्येक राजनीतिक दल ने अभूतपर्व ढंग से सहयोग किया। इससे देश में और देश के बाहर यह संदेश गया कि भारतीय राजनीति राष्ट्रीय हित के मामलों में दलगत हित से ऊपर उठ सकती है। भाजपा सरकार के समय यह कानून बन रहा है तो इसमें किसी की हेठी नहीं है।

विपक्षी एकता में पलीता लगा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के रुख से। उन्होंने भाजपा उम्मीदवार के नाम की घोषणा के साथ ही रामनाथ कोविंद का समर्थन करके विपक्षी एकता के किले को ध्वस्त कर दिया। माकपा के महासचिव सीताराम येचुरी का कहना है कि गैर कांग्रेसी विपक्षी दलों ने नीतीश कुमार को 2019 में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने का मन बना लिया था, लेकिन अब वह बात खत्म हो गई। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने नीतीश कुमार पर हमला बोला तो लालू यादव का कहना था कि बिहार की बेटी के नाम पर नीतीश को मीरा कुमार का समर्थन करना चाहिए। नीतीश कुमार ने पलटवार करते हुए कहा कि 2007 और 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में बिहार की बेटी की याद क्यों नहीं आई? राष्ट्रपति चुनाव को विपक्ष अपनी एकजुटता के रूप में पेश करना चाहता था। 2014 लोकसभा चुनाव के बाद विपक्ष के सामने विपक्षी एकता का मॉडल बिहार था। अब तो बिहार का महागठबंधन ही खतरे में नजर आ रहा है। चौबे जी छब्बे बनने के फेर में दूबे रह गए। इस पर गौर करें कि जद-यू महासचिव केसी त्यागी कह रहे हैं कि उनकी पार्टी भाजपा के साथ ज्यादा सहज थी।

राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति में उम्मीदवारों से ज्यादा चर्चा अब बिहार के महागठबंधन और नीतीश कुमार की हो रही है। ऐसा लगता है कि नीतीश कुमार ने वर्तमान राजनीतिक परिस्थिति की वास्तविकता को समझ कर व्यावहारिक कदम उठाया है। विनोबा भावे ने एक बार कहा था कि ज्ञानी वह है जो वर्तमान को ठीक प्रकार से समझो और परिस्थिति के अनुसार आचरण करे। विनोबा की नजर से देखें तो नीतीश कुमार ज्ञानी हैं। बिहार में महागठबंधन के दलों में आपसी विश्वास का दौर खत्म हो चुका है। लालू यादव के परिवार के लोगों की बेनामी संपत्तियों का ब्योरा जिस तरह से सामने आ रहा है उसके मद्देनजर नीतीश कुमार के लिए लालू के साथ रहना दिन पर दिन मुश्किल होता जा रहा है। अभी यह कहना बहुत जल्दबाजी होगी कि नीतीश फिर से राजग के खेमे में वापस लौट रहे हैं, क्योंकि राजनीति में एक दिन भी बहुत होता है। यदि नीतीश फिर से राजग के साथ आते हैं तो भाजपा विरोधी खेमा नेतृत्व विहीन हो जाएगा। उसके पास नीतीश कुमार से ज्यादा विश्वसनीय चेहरा नहीं है। विपक्षी दलों और खासतौर से कांग्रेस को सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हुआ और किसकी वजह से? राहुल गांधी को किनारे करके सोनिया गांधी का खुद मैदान में आना काम नहीं आया।

राष्ट्रपति चुनाव के बहाने भाजपा ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं। रामनाथ कोविंद को उम्मीदवार बनाकर उसने अपना दलित एजेंडा आगे कर दिया है। भाजपा दलित समुदाय के लोगों को पार्टी से जोड़ने का गंभीरता से प्रयास कर रही है। ऐसा नहीं है कि कोविंद को उम्मीदवार बनाने भर से दलित भाजपा के साथ आ जाएगा, लेकिन इससे दलित समुदाय के मन में भाजपा के प्रति एक नरम कोना तो बनेगा ही। विपक्ष ने जवाब में दलित उम्मीदवार देकर भाजपा का काम थोड़ा आसान कर दिया है। दलितों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि कांग्रेस जब अपना उम्मीदवार जिताने की हालत में थी तो उसे मीरा कुमार की याद क्यों नहीं आई? भाजपा ने ऐसे समय दलित उम्मीदवार दिया है जब वह उसे जिताने की हालत में है। नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने एक और काम यह किया है कि विपक्षी एकता में दरार डाल दी। इतना ही नहीं उन्होंने राजग से बाहर भी समर्थन जुटा लिया। यह भाजपा के राष्ट्रपति उम्मीदवार की ही नहीं, पार्टी की राजनीतिक जीत भी है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)