हर्ष वी पंत। पिछले कुछ अर्से से दुनिया बड़े उथल-पुथल भरे दौर से गुजर रही है। रूस-यूक्रेन युद्ध ने इस हलचल को और बढ़ा दिया है। इससे कई पुरानी साझेदारियां दांव पर लग गई हैं तो तमाम नए रिश्ते उभरते नजर आ रहे हैं। वैश्विक ढांचे की जटिलता इतनी बढ़ गई है कि दो मित्र देश एक पड़ाव पर साथ दिखते हैं तो अगले पड़ाव पर उनके हितों में टकराव होने लगता है। ऐसे में सभी देशों को अपनी विदेश नीति में बड़ा बदलाव करना पड़ रहा है। भारत के लिए बदलाव की यह चुनौती इस कारण और विकराल हो गई कि रूस के साथ जहां हमारे ऐतिहासिक प्रगाढ़ रिश्ते हैं, वहीं विगत कुछ दशकों के दौरान अमेरिका सहित पश्चिमी देशों के साथ हमारे संबंध नई ऊंचाई पर पहुंचे हैं। यूरोप में करीब महीने भर से जारी जंग ने इन दोनों ही गुटों में दरार और तकरार कहीं ज्यादा बढ़ा दी है। इसके चलते दुनिया के तमाम देशों को किसी न किसी पाले में खड़ा होना पड़ रहा है। ऐसे धर्मसंकट की स्थिति में भारत किसी पाले में खुलकर खड़े हुए बगैर अपने हितों को पोषित करने में सफल रहा। भारतीय हितों के संरक्षण में संतुलन साधने की हमारी विदेश नीति के पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देशों का कायल होना उसकी कामयाबी को ही बयान करता है। बीते दिनों पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने सार्वजनिक सभा में भारतीय विदेश नीति की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। पाकिस्तान जैसे देश से ऐसी तारीफ दुर्लभ ही मिलती है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि भारतीय विदेश नीति की इस सफलता में भारत के बढ़ते कद की अहम भूमिका रही। भारत गिनती के उन देशों में रहा, जिसके प्रधानमंत्री की रूस और यूक्रेन दोनों के राष्ट्रपतियों से कई बार बात हुई। इस दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने दोनों ही देशों से संवाद के माध्यम से समाधान निकालने की बात कही। इतना ही नहीं जहां भारत रूस पर प्रतिबंध लगाकर उसे अलग-थलग करने के प्रयासों का समर्थन नहीं कर रहा, वहीं उसे रूस को यह हिदायत देने में भी गुरेज नहीं कि वह अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करे। मंगलवार को ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जानसन से वार्ता में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि रूस को संयुक्त राष्ट्र घोषणापत्र का पालन करना चाहिए। भारत के इसी संतुलित रुख का नतीजा है कि रूस के खिलाफ स्पष्ट रुख न अपनाने को लेकर हो रही आलोचनाओं के बावजूद उसे पश्चिमी देशों के कोप का भाजन नहीं बनना पड़ा। अंतरराष्ट्रीय समुदाय नई और बदलती वैश्विक व्यवस्था में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका देखता है। कई देशों को तो यह आभास भी हो रहा है कि रूस-यूक्रेन संघर्ष को समाप्त कराने में भारत रचनात्मक भूमिका निभा सकता है।

जिन्हें लगता था कि रूस का स्पष्ट विरोध न करने का भारत को खामियाजा भुगतना पड़ेगा, उनकी ऐसी धारणाएं भी समय के साथ ध्वस्त हो गईं। ये आशंकाएं भी निर्मूल साबित हो गईं कि यूरोप में युद्ध छिडऩे से हिंद-प्रशांत क्षेत्र के अहम साझेदारों की सक्रियता शिथिल पड़ जाएगी और उसमें भी भारत को किनारे लगा दिया जाएगा। हाल में क्वाड की एक बैठक हुई और उसमें यूक्रेन पर आए प्रस्ताव को लेकर भारत की कोई कटु आलोचना नहीं हुई। अमेरिकी राष्ट्रपति के वक्तव्य से भी यही आभास हुआ कि वह इस मामले में भारत की भावनाओं को समझते हैं। क्वाड के दो सदस्य देशों जापान और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों ने बीते दिनों मोदी से सीधा संवाद किया। जापान के प्रधानमंत्री फुमिओ किशिदा हाल में जब भारत आए तो उस दौरान कई रणनीतिक साझेदारियों पर सहमति बनने के साथ ही जापान ने अगले पांच वर्षों के दौरान भारत में 3.2 लाख करोड़ रुपये के भारी-भरकम निवेश की प्रतिबद्धता जताई। वहीं आस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्काट मारिसन की मोदी से हुई वर्चुअल बातचीत में कई द्विपक्षीय मसलों पर साझेदारी बढ़ाने के अलावा भारत में 1,500 करोड़ रुपये का निवेश करने का एलान भी किया। यह भारत में आस्ट्रेलिया का अभी तक सबसे बड़ा निवेश प्रस्ताव है। इस दौरान जापान और आस्ट्रेलिया दोनों के राष्ट्रप्रमुखों ने यूक्रेन के मसले पर भारतीय रुख की व्यावहारिकता को समझने के संकेत भी दिए।

बात केवल पारंपरिक साझेदारों तक ही सीमित नहीं है। मौजूदा स्थितियों में चीन का रुख भी भारत के प्रति बदला हुआ नजर आ रहा है। इसके पीछे कहीं न कहीं रूस का कोण दिखता है, क्योंकि आज जिस प्रकार रूस अलग-थलग पड़ता जा रहा है, उसमें पुतिन यहीं चाहेंगे कि चीन और भारत जैसे दो बड़े देश उनके साथ खड़े दिखें। ऐसे में भारत एवं चीन बीच कोई भी टकराव रूस के लिए समीकरण और खराब करेगा। यही कारण है कि बीते दिनों ऐसी खबरें आईं कि चीनी विदेश मंत्री भारत दौरे पर आना चाहते हैं। चीन को यूक्रेन युद्ध से उपजी आर्थिक दुश्वारियों का आभास हो रही है तो संभव है कि वह भी नहीं चाहता हो कि यह लड़ाई लंबी खिंचे।

जापान और आस्ट्रेलिया के साथ मेल-मुलाकात के बाद भारत जल्द ही इजरायली प्रधानमंत्री नाफ्ताली बैनेट की मेजबानी करने जा रहा है। वर्तमान परिस्थितियों में यह एक महत्वपूर्ण दौरा होगा, क्योंकि रूस को लेकर भारत और इजरायल का रुख-रवैया कमोबेश एक जैसा है। जिस प्रकार भारत रूस और यूक्रेन से शांतिपूर्वक समाधान निकालने की अपील कर चुका है, उसी प्रकार बैनेट भी दोनों देशों में मध्यस्थता का प्रयास कर चुके हैं। इस कवायद के लिए युद्ध के दौरान ही बैनेट ने रूस की गुप्त यात्रा की, जो सार्वजनिक हो गई। ऐसे में कोई संदेह नहीं कि मोदी-बैनेट वार्ता में रूस का मुद्दा ही केंद्र में होगा। इसके माध्यम से दोनों देश कोई ऐसा स्वीकार्य हल निकालने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं, जिसे अधिक से अधिक देशों का समर्थन मिल सके। हाल के कुछ वर्षों के दौरान भारत और इजरायल के पश्चिम एशियाई देशों के साथ संबंधों में नाटकीय सुधार हुआ है। खाड़ी के देशों के साथ भारत और इजरायल की रणनीतिक भागीदारी भी आकार ले चुकी है। ऐसे में दोनों नेता सहयोगियों को जोड़कर व्यापक लाभ की किसी योजना पर आगे बढ़ सकते हैं।

(लेखक नई दिल्ली स्थित आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक हैं)