यह चिंताजनक है और निराशाजनक भी कि देश के कुछ हिस्सों में चुनावी हिंसा नए सिरे से सिर उठाती दिख रही है। इनमें से कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं, जहां लंबे समय से चुनावी हिंसा देखने को नहीं मिली, जैसे बिहार। एक समय था, जब बिहार चुनावी हिंसा के लिए कुख्यात था। वहां चुनाव के पहले ही हिंसा शुरू हो जाती थी, जो चुनाव बाद तक चलती रहती थी। गत दिवस छपरा में फिर से ऐसा ही देखने को मिला।

पांचवें चरण के मतदान वाले दिन छपरा में राजद प्रत्याशी रोहिणी आचार्य के एक मतदान केंद्र पर पहुंचने के बाद उनके और भाजपा समर्थकों के बीच जो विवाद हुआ, उसके चलते अगले दिन दोनों पक्षों में हिंसक झड़प हुई। इस झड़प के दौरान गोली चली, जिसमें एक व्यक्ति की मौत हो गई और दो अन्य घायल हो गए। राजद और भाजपा नेता एक-दूसरे पर आरोप लगा रहे हैं।

कहना कठिन है कि सच क्या है, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकतंत्र में इस तरह की हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। छपरा में राजद और भाजपा समर्थकों के बीच हिंसक झड़प के बाद तनाव इतना अधिक है कि पुलिस बल की तैनाती बढ़ाने के साथ इंटरनेट सेवा दो दिन के लिए बंद करनी पड़ी है। चूंकि बिहार में अभी कुछ सीटों पर मतदान होना शेष है, इसलिए प्रशासन को सजग रहना होगा। चुनावी हिंसा की वापसी शुभ संकेत नहीं।

देश के अन्य राज्यों में भले ही चुनावी हिंसा पर लगाम लग गई हो, लेकिन बंगाल में पंचायत चुनावों से लेकर लोकसभा चुनावों तक हिंसा होती है। कई बार तो यह हिंसा बड़े भयावह रूप में होती है, जैसे कि पिछले विधानसभा चुनावों के बाद हुई थी। इस लोकसभा चुनाव में बंगाल में मतदान का कोई भी ऐसा चरण नहीं रहा, जब परस्पर विरोधी दलों के कार्यकर्ता टकराए न हों अथवा उनमें बम न चले हों।

बंगाल में यह सिलसिला कायम है तो इसीलिए, क्योंकि कुछ दलों ने चुनावी हिंसा को अपनी राजनीतिक संस्कृति का हिस्सा बना लिया है। बंगाल चुनावी हिंसा से इसीलिए मुक्त नहीं हो पा रहा है, क्योंकि यहां राजनीतिक दल बाहुबल पर यकीन रखने वाले अपने नेताओं को संरक्षण प्रदान करते हैं। यह परंपरा वामपंथी दलों ने शुरू की थी, जिसे तृणमूल कांग्रेस ने भी अपना लिया।

आज स्थिति यह है कि तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं और समर्थकों के निशाने पर सभी विरोधी दल के नेता एवं कार्यकर्ता रहते हैं। गत दिवस पूर्व मेदिनीपुर में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा कार्यकर्ताओं में झड़प हुई, जिसमें तीन भाजपा कार्यकर्ता जख्मी हुए। इसी तरह कोलकाता में माकपा प्रत्याशियों के प्रचार में लगे वाहन पर पथराव किया गया। चूंकि यह स्पष्ट है कि ममता सरकार की चुनावी हिंसा को थामने में कोई दिलचस्पी नहीं, इसलिए चुनाव आयोग को और अधिक सतर्कता का परिचय देना होगा।