तरुण गुप्त। संसदीय चुनावों की गहमागहमी के बीच स्थानीय निकायों की कार्यप्रणाली की चर्चा कुछ असंगत सी लग सकती है। यहां मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि जब कर्तव्यों की उपेक्षा जीवन के लिए घातक सिद्ध होने लगे तो फिर मौके और दस्तूर की परवाह नहीं की जानी चाहिए। बीते दिनों मुंबई में एक होर्डिंग गिरने से जुड़ी भयावह त्रासदी में 16 लोग असमय काल कवलित हो गए तो सैकड़ों लोग घायल हुए। यह प्रकरण इसका उदाहरण है कि जिन गलतियों को प्रायः हम मामूली समझकर अनदेखा कर देते हैं, उनके कितने विध्वंसक परिणाम सामने आ सकते हैं।

हमारे नगर निगमों की सबसे बदतर कार्यप्रणाली को चिह्नित करने की बारी आए तो इसे लेकर अजीब दुविधा होती है। क्या वे कचरा प्रबंधन या ड्रेनेज के मोर्चे पर सबसे अधिक नाकारा हैं अथवा बेसहारा या पालतू जानवरों के नियमन को लेकर सबसे अधिक नाकाम, सड़क पर गड्ढे भरने में लाचार अथवा अतिक्रमण पर अंकुश लगाने में असहाय या फिर झुग्गी बस्तियों के विस्तार पर विराम लगाने में अक्षम या सामान्य स्वच्छता को लेकर लापरवाह? इसमें कोई भी विकल्प चुना जा सकता है, क्योंकि हर मोर्चा एक दूसरे के मुकाबले और बदतर आंका जा सकता है। इसी क्रम में होर्डिंग-बिलबोर्ड्स जैसे आउटडोर विज्ञापनों के लचर प्रबंधन को भी जोड़ा जा सकता है। यह घोर उपेक्षा एवं जानबूझकर की जाने वाली लापरवाही का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

स्थापित व्यवस्था यही है कि नगर निगम आउटडोर विज्ञापनों के लिए निविदाओं के माध्यम से अनुबंध करते हैं। इस व्यवसाय में निगम से अनुबंध हासिल करने वाले ठेकेदार विज्ञापनदाताओं से तो मोटी रकम वसूलते हैं, लेकिन नगर निगम को उसके अनुपात में मामूली राशि अदा करते हैं। जो भी लोग इस व्यवसाय में संलग्न हैं, उनके लिए उचित प्रतिफल के अधिकार को कोई नकार नहीं सकता।

एक समाज के रूप में हम इतने परिपक्व तो हो ही गए हैं कि निजी लाभ को तिरस्कार के रूप में देखने के बजाय इसे सराहना योग्य मानते हैं। हालांकि, इसके साथ ही सरकारी खजाने में अधिक योगदान की संभावनाओं को भी तलाशा जाना चाहिए। इसलिए प्रयास इसी दिशा में होने चाहिए कि निजी लाभ और राज्य की आय के बीच उचित संतुलन साधा जा सके। अद्यतन डाटा का अभाव भी ऐसे उद्यमों की अस्पष्ट एवं बेतरतीब प्रकृति को रेखांकित करता है।

प्राधिकरणों के पास शहर में मौजूद कुल साइट्स का बमुश्किल ही कोई सारगर्भित रिकार्ड होता है। प्रत्येक होर्डिंग, बिलबोर्ड का उसकी लोकेशन, आयाम-आकार-प्रकार और अन्य प्रासंगिक बिंदुओं के साथ व्यापक रिकार्ड रखना आखिर कितना कठिन है? वास्तविकता यही है कि निगम द्वारा आधिकारिक रूप से स्वीकृत होर्डिंग्स की संख्या से कई गुना अधिक होर्डिंग्स अवैध रूप से लगे रहते हैं। इससे राजस्व की स्वाभाविक क्षति तो होती ही है, वहीं अनधिकृत लोग इस व्यवसाय में प्रवेश कर जाते हैं।

मुंबई होर्डिंग हादसे ने इस ओर ध्यान आकर्षण करने के साथ ही आवश्यक आक्रोश भी उत्पन्न किया है। नि:संदेह यह इस तरह की सबसे भयावह दुर्घटना है, किंतु यह पहली ऐसी त्रासदी नहीं। तेज हवाओं और तूफानों में होर्डिंग्स का उड़ जाना साल भर चलता ही रहता है। प्राधिकरणों द्वारा सुरक्षा मानकों का शायद ही कभी गंभीरता से जायजा लिया जाता है। जबकि उपयुक्त आकार, ढांचे की मजबूती और ऐसी तकनीकी कसौटियां पहले से निर्धारित होनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि तेज हवाओं में ढांचा उड़ न जाए। ऐसा प्रतीत होता है कि सुरक्षा से जुड़े मानक या तो नदारद हैं या फिर प्रभावी रूप से लागू ही नहीं हैं।

यह तो एक सर्वविदित तथ्य है कि एक्सप्रेसवे पर होर्डिंग्स लगाने की अनुमति नहीं है। चूंकि उनके चलते चालकों का ध्यान भंग होना घातक सिद्ध हो सकता है, लिहाजा इस पर प्रतिबंध है। उदाहरण के लिए दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेसवे इस नियम की उपेक्षा का प्रतीक है। इसमें किसकी गलती है? उस ठेकेदार की, जिसने ढांचा खड़ा किया या जमीन के मालिक की, जिसने अपनी जमीन दी या फिर विज्ञापनदाता की? वस्तुतः, यह सामूहिक जिम्मेदारी का मामला है। इस क्रम में कार्रवाई का दायित्व भी राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण से लेकर स्थानीय पुलिस और प्रशासन समेत विभिन्न इकाइयों का है।

वास्तविकता यह है कि जहां एक ओर परस्पर दोषारोपण की स्थित बनती है, वहीं जिन इकाइयों पर नियमों का अनुपालन कराने की जिम्मेदारी है, इसमें उनकी विफलता भी समग्रता में झलकती है। ऐसा लगता है कि कुख्यात रेत खनन माफिया की तरह एक होर्डिंग माफिया भी उभरता दिख रहा है। कानून को ताक पर रखते हुए वे तंत्र को भ्रष्ट बनाते हैं, विज्ञापन माध्यम को बदनाम करते हैं, सरकारी खजाने को क्षति पहुंचाते हैं और लोगों की सुरक्षा को खतरे में डालते हैं। इस आलेख का आशय आउटडोर विज्ञापन जैसे प्रभावी माध्यम का विरोध करना कतई नहीं है। असल में इस माध्यम के असंगठित-अनियमित स्वरूप, व्यापक भ्रष्टाचार और सुरक्षा मानकों की अवहेलना सालने वाली है। इसके अतिरिक्त, दोषियों में कानून के भय का अभाव और अधिकारियों के साथ साठगांठ दुखदायी हो गई है। इसकी स्वाभाविक परिणति नागरिकों में गहराते असुरक्षाबोध के रूप में प्रकट होती है।

स्मरण रहे कि केवल समृद्धि ही विकास के लिए पर्याप्त आधार नहीं है। यह केवल एक सराहनीय आरंभिक बिंदु है। जीवन की गुणवत्ता और मानव विकास सूचकांक आवश्यक कसौटियां हैं। अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। अस्वाभाविक मृत्यु और जिस जनहानि से बचा जा सके, उसे हरसंभव प्रकार से न्यूनतम किया जाए। यह सही है कि यहां चर्चा नगर निगम से जुड़ी कुछ प्रमुख जिम्मेदारियों की हो रही है। यह भी सत्य है कि नगर निकाय राज्य सरकारों के अधीन काम करते हैं। किंतु यदि शासन के ये दो स्तंभ तमाम चुनौतियों का समाधान निकालने में विफल साबित हो रहे हैं तब फिर सर्वोच्च विधायी संस्था एवं चिंतनशील इकाई के रूप में संसद को ही पहल कर कोई राह दिखानी होगी।

आज हमारा दिल मुंबई के असहाय पीड़ितों के लिए द्रवित है, लेकिन कुछ समय बाद हम उनके शोक एवं पीड़ा को विस्मृत कर देंगे। यही मानव स्वभाव है, किंतु हमारे जेहन में यह हमेशा कैद रहना चाहिए। शोक संतप्त परिवारों को स्थितियों से सामंजस्य बिठाने में पता नहीं कितना समय लगेगा? क्या समय के साथ इतनी भीषण त्रासदियों से भी उबर पाना संभव होता है? मैं आशा तो यही करता हूं।