संजय गुप्त। सीएए का विरोध कर रहे दलों को यह देखना चाहिए कि जिन लोगों को नागरिकता दी गई है, उनकी खुश का कोई ठिकाना नहीं है। नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए पर अमल करते हुए तीन सौ से अधिक लोगों को भारत की नागरिकता दे दी गई। जिस समय इस कानून पर संसद ने मुहर लगाई थी, उस समय कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों ने यह दुष्प्रचार किया था कि यदि इस कानून पर अमल हुआ तो देश के मुसलमानों की नागरिकता छीन ली जाएगी। इस दुष्प्रचार के चलते दिल्ली सहित देश के अनेक हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन हुए।

दिल्ली में तो शाहीनबाग इलाके में व्यस्त सड़क को बाधित कर महीनों तक धरना दिया गया। इसके कारण ही दिल्ली में भीषण दंगे हुए। इन दंगों में 50 से अधिक लोग मारे गए। इन दंगों के कारण देश को असहज स्थिति का सामना करना पड़ा, क्योंकि उस समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भारत के दौरे पर थे। संभवत: सीएए के खिलाफ हिंसक विरोध और उपद्रव के चलते ही सरकार ने उस पर अमल कुछ समय के लिए टाल दिया। अंतत: दो महीने पहले इस कानून के नियम अधिसूचित कर अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से प्रताड़ित होकर भारत आए लोगों को नागरिकता देने का रास्ता साफ किया गया। अब जब इन तीन देशों में प्रताड़ित हुए अल्पसंख्यकों को नागरिकता देना प्रारंभ कर दिया गया है, तब विरोधी दलों को इस पर विचार करना चाहिए कि इस कानून का विरोध करके उन्हें हासिल क्या हुआ?

सीएए में संशोधन इसलिए किया गया था, ताकि इन तीनों देशों में धार्मिक कारणों से प्रताड़ित हो रहे और किसी तरह जान बचाकर भारत आए हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनों, ईसाइयों और पारसियों को भारत की नागरिकता दी जा सके। एक समय ऐसे लोगों को नागरिकता प्रदान करने की मांग खुद कांग्रेस के नेताओं ने संसद में की थी, लेकिन जब मोदी सरकार ने इसकी व्यवस्था की तो संकीर्ण राजनीतिक कारणों से कांग्रेस और अन्य दल उसके विरोध में खड़े हो गए। इन दलों को देखना चाहिए कि जिन लोगों को नागरिकता दी गई है, उनकी खुश का कोई ठिकाना नहीं है।

देश का कोई भी दल इससे अनजान नहीं कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को किस तरह प्रताड़ित किया जाता है। इस प्रताड़ना के चलते ही इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की आबादी लगातार कम होती चली जा रही है। इससे परिचित होने के बावजूद विपक्षी दलों ने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर समाज में जानबूझकर भ्रांति फैलाने की कोशिश की। इसके लिए उन्होंने यह दलील दी कि जब एनआरसी यानी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर लाया जाएगा तो उसमें ऐसी व्यवस्था की जाएगी, जिससे भारत के मुसलमानों की नागरिकता रद होने का खतरा पैदा हो जाएगा। हालांकि भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में एनआरसी पर कुछ नहीं कहा है, लेकिन वह समय की मांग है। यह पता चलना ही चाहिए कि देश में कितने लोग अवैध रूप से रह रहे हैं अथवा नागरिकता विहीन हैं। भावी सरकार को एनआरसी पर काम करना चाहिए और ऐसा करते समय इसका ध्यान रखना चाहिए कि सीएए की तरह उसके खिलाफ दुष्प्रचार न होने पाए।

विपक्षी दल यह देखने से इन्कार कर रहे हैं कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश में रह रहे जो अल्पसंख्यक प्रताड़ना के बाद किसी प्रकार भारत आ गए, वे तो वहां के बहुसंख्यकों के रवैये के कारण ही अपना देश छोड़कर आए। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बांग्लादेश से तमाम मुसलमानों ने किसी प्रताड़ना के कारण नहीं, बल्कि बेहतर जीवन की आस में भारत में घुसपैठ की है। उनकी घुसपैठ के चलते पश्चिम बंगाल और असम समेत पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों का सामाजिक तानाबाना बदल गया है। बांग्लादेश से आए घुसपैठियों ने तो अनुचित तरीके से मतदाता पहचान पत्र समेत अन्य पहचान पत्र हासिल कर लिए हैं। कुछ दल इन घुसपैठियों को अपने वोट बैंक की तरह देखते हैं। इसी कारण वे सीएए का विरोध करने में लगे हुए हैं।

जब भारत का विभाजन हुआ, तब पाकिस्तान में हिंदुओं एवं अन्य अल्पसंख्यकों की आबादी 25 प्रतिशत से अधिक थी। जब बांग्लादेश पाकिस्तान से टूटकर अलग हुआ तो हिंदुओं की एक बड़ी आबादी बांग्लादेश में रह रही थी। आज पाकिस्तान में मुश्किल से डेढ़-दो प्रतिशत हिंदू बचे हैं और बांग्लादेश में सात-आठ प्रतिशत। पाकिस्तान और बांग्लादेश यह बता सकने की स्थिति में नहीं कि शेष हिंदू कहां गए? स्पष्ट है कि या तो उनका जबरन मतांतरण कराया गया या फिर वे प्रताड़ना के चलते पलायन को विवश हुए। पाकिस्तान और बांग्लादेश में जो स्थिति हिंदुओं की है, वही अन्य अल्पसंख्यकों की भी। अफगानिस्तान का तो और भी बुरा हाल है। अब वहां मुश्किल से एक दो दर्जन ही हिंदू-सिख बचे हैं। इन तीनों देशों के जो अल्पसंख्यक 2014 के पहले भारत आ गए थे, उन्हें ही सीएए के तहत नागरिकता दी जा रही है।

समझना कठिन है कि इसमें गलत क्या है? इन शरणार्थियों को नागरिकता देकर भारत अपने नैतिक दायित्व को ही पूरा कर रहा है। यह एक ऐसी मानवीय पहल है, जिसकी सराहना की जानी चाहिए, लेकिन दुर्भाग्य से कुछ दल अभी भी विरोध कर रहे हैं। उनकी मांग है कि इन तीनों देशों के बहुसंख्यकों यानी मुसलमानों को भी नागरिकता देने की व्यवस्था की जाए। नि:संदेह एक समय भारत सबको शरण देता था, लेकिन आज वह चाहकर भी ऐसा नहीं कर सकता। भारत सबके लिए शरणस्थली नहीं बन सकता, क्योंकि वह विश्व की सर्वाधिक आबादी वाला देश बन चुका है और उसके संसाधनों पर बोझ बढ़ता जा रहा है। म्यांमार से जो रोहिंग्या अवैध तरीके से भारत आए, वे जहां भी रह रहे हैं, वहां कानून एवं व्यवस्था के लिए समस्या बन रहे हैं। भारत अपने सामाजिक तानेबाने के छिन्न-भिन्न होने का खतरा मोल नहीं ले सकता और तब तो बिल्कुल भी नहीं, जब एक साजिश के तहत घुसपैठ कराई जा रही है।

इससे बुरी बात और कोई नहीं कि लोकसभा चुनाव के मौके पर विभिन्न दलों ने अपने जो घोषणा पत्र जारी किए, उनमें से कई ने और विशेष रूप से वामपंथी दलों और तृणमूल कांग्रेस ने नागरिकता संशोधन कानून खत्म करने का वादा किया है। इन दलों के दबाव में आकर कांग्रेस भी यह कह रही है कि वह भी सत्ता में आई तो इस कानून को खत्म करेगी। यह सस्ती राजनीति ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश से जान बचाकर भारत आए और शरणार्थी के रूप में रह रहे लोगों के साथ की जाने वाली निर्दयता भी है।

[लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]