हृदयनारायण दीक्षित। संसदीय चुनाव में पांचवें चरण का मतदान है। लोकतंत्र में मतदान का अधिकार नागरिकों को अवसर देता है कि सरकार कैसी हो और उन पर कौन शासन करे? यह सत्ता के दावेदारों की विचारधारा, रीति, नीति और दृष्टिकोण को भी जांचने और इच्छानुसार मतदान का अवसर भी होता है। मतदान केवल अधिकार नहीं, उत्तरदायित्व भी है। मतदान से नागरिकों की राजनीतिक इच्छा प्रकट होती है। मतदाताओं के पक्ष को समझा जाता है। चुनाव में मतदाता के सामने भिन्न-भिन्न विचार वाले दल आश्वासन देते हैं। मतदाता उपलब्ध विचारों और वादों में अपने सपनों वाली सरकार बनाने के लिए वोट देते हैं। मताधिकार मूल्यवान है।

चुनाव राष्ट्रीय विमर्श का अवसर होते हैं। बहस और विमर्श, वाद-विवाद और संवाद भारत की प्राचीन परंपरा है। संप्रति पूरा देश सभा या संसद जैसा है। यहां प्रत्येक मतदाता अपनी इच्छा वाले देश और समाज के लिए सजग है। राष्ट्रीय चिंता के सभी विषयों पर राष्ट्रीय विमर्श की आवश्यकता है, लेकिन वर्तमान चुनाव में बुनियादी सवालों पर राष्ट्रीय विमर्श का अभाव है। राष्ट्र सर्वोपरिता, राष्ट्रीय एकता और अखंडता, संविधान के प्रति निष्ठा एवं भारत की विश्व प्रतिष्ठा जैसे विषय आधारभूत हैं। यह विषय किसी न किसी रूप में हमेशा राष्ट्रीय विमर्श में रहते हैं, लेकिन वर्तमान चुनाव में पृष्ठभूमि में चले गए हैं।

हम भारत के लोग संस्कृति के कारण दुनिया के प्राचीनतम राष्ट्र हैं। यहां विविधता और बहुलता सतह पर है, लेकिन इन सबको एक सूत्र में बांधे रखने वाली सांस्कृतिक एकता चुनावी विमर्श में नहीं है। राष्ट्र से भिन्न कोई भी अस्मिता अलगाववाद की प्रेरक होती है। राजनीतिक दल एक दूसरे पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगाया करते हैं, मगर सांप्रदायिकता की परिभाषा नदारद है। चुनावी विमर्श में सांप्रदायिकता के निराकार और साकार खतरे पर विमर्श होना चाहिए था।

सेक्युलर विदेशी विचार है। राजनीति में बहुधा इसका दुरुपयोग होता है। व्यावहारिक अर्थ में यह अल्पसंख्यकवाद का पर्याय है। छद्म सेक्युलरवाद भी विमर्श में नहीं है। राष्ट्र के समग्र विकास में प्रशासनिक सेवाओं की मुख्य भूमिका है। प्रशासनिक अमला सरकारी नीतियों का क्रियान्वयन करता है। प्रशासनिक सुधारों पर अनेक आयोग बन चुके हैं, लेकिन प्रशासन की गुणवत्ता प्रश्नवाचक रहती है। इसी तरह अर्थनीति सबसे महत्वपूर्ण विषय है। यह राष्ट्रीय समृद्धि की संवाहक होती है। महाभारत में नारद ने युधिष्ठिर से पूछा, ‘क्या आप अर्थ चिंतन करते हैं-चिंतयसि अर्थम्?’ अर्थनीति पर सतत राष्ट्रीय विमर्श अनिवार्य है।

राष्ट्र का आत्मविश्वास होता है राष्ट्रीय विमर्श। भूमंडलीय ताप में वृद्धि अंतरराष्ट्रीय समस्या है तो भारत भी उससे अछूता नहीं रह सकता। इसके बावजूद भूमंडलीय ताप चुनावी विमर्श से बाहर है। जल और जीवन पर्यायवाची हैं। जल प्रदूषण स्वास्थ्य का बड़ा शत्रु है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 400 से अधिक जिलों का जल गंभीर रूप से प्रदूषित हो चुका है। भूजल में शीशा, आर्सेनिक, फ्लोराइड और क्रोमियम जैसे जानलेवा रसायन पाए गए हैं। हर साल लगभग ढाई करोड़ लोग जल प्रदूषण जनित बीमारियों के शिकार होते हैं। बच्चे दिव्यांग होते हैं। औद्योगिक इकाइयों का विषैला पानी और कचरा भूगर्भ जल में मिलते हैं। बोतलबंद पानी और भी खतरनाक है। जल में उपस्थित रसायन बोतल की प्लास्टिक से रासायनिक क्रिया करते हैं और जल दूषित हो जाता है। वायु प्रदूषण से भारत भी पीड़ित है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी धूल भरी वायु लोगों के श्वसन तंत्र पर आक्रामक रहती है। ऐसे चिंताजनक मुद्दे भी चुनावी विमर्श में नहीं हैं।

कृषि भारत की आजीविका है और किसानों के लिए व्यवसाय भी है। ऋषि और कृषि भारतीय श्रम साधना के शीर्ष पर रहे हैं। चिकित्सा महत्वपूर्ण विषय है। जन स्वास्थ्य और आनंद साथ-साथ रहते हैं। राष्ट्रीय पौरुष का संबंध जनस्वास्थ्य से है। स्वस्थ जीवन के लिए उत्तम परिस्थितियां पाना मौलिक अधिकार है। बीमार लोग राष्ट्रीय उत्पादन में भागीदार नहीं हो सकते। उत्पादन की दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति राष्ट्र का सक्रिय मानव संसाधन है। अन्य योजनाएं टाली जा सकती हैं, लेकिन चिकित्सा और स्वास्थ्य नहीं। निजी अस्पताल अपेक्षाकृत महंगे हैं। राष्ट्रीय संवेदना का अभाव है। गरीबों को पांच लाख तक की चिकित्सा उपलब्ध कराने में ‘आयुष्मान भारत’ योजना की प्रशंसा होती है। इस दिशा में काफी काम हुआ है, लेकिन जन स्वास्थ्य और कृषि भी राष्ट्रीय विमर्श में नहीं हैं।

प्रतियोगी परीक्षाओं में असफल होने पर युवाओं में आत्महत्या की प्रवृत्ति दिखाई पड़ी है। यह राष्ट्रीय चिंता का विषय है। ऐसे विषय सरकार के अलावा सामाजिक उत्तरदायित्व से संबंधित हैं। भारतीय इतिहास का विरूपण पिछले 10-15 वर्षों से चर्चा का विषय है। इस इतिहास में वास्तविक तथ्य नहीं हैं। दुर्भाग्य से यह चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। समान नागरिक संहिता संविधान का नीति निदेशक तत्व है। पिछले कई वर्षों से यह राष्ट्रीय चर्चा का विषय है, लेकिन चुनावी विमर्श का मुद्दा नहीं है।

सारा काम सरकारें ही नहीं कर सकतीं। सामाजिक दायित्वबोध भी जरूरी है।

सड़क, पानी और बिजली आदि के सवालों पर अनेक गांवों में मतदान के बहिष्कार के समाचार भी सुनाई दिए हैं। इसलिए महत्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श जरूरी है। संवैधानिक लोकतंत्र में अनेक संस्थाएं हैं। भारतीय लोकतंत्र अति प्राचीन है। जब भारत में लोकतंत्र फल-फूल रहा था तब प्लेटो जैसे विद्वान लोकतांत्रिक मूल्यों पर चिंतन कर रहे थे। प्लेटो ने लिखा है कि जनतंत्र समान और असमान को समान भाव से एक तरह की समानता प्रदान करता है।’ प्लेटो के अनुसार जनतंत्र में अव्यवस्था है। भारतीय लोकतंत्र के लिए भी अव्यवस्था की बात कही जा सकती है। इसके लिए भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर राष्ट्रीय विमर्श जरूरी है। संविधान निर्माताओं ने उद्देशिका में ही सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त की है। व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प व्यक्त किया है। चुनाव इन सब पर चर्चा और विमर्श का महत्वपूर्ण अवसर है।

(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)