जीवन और कर्मशीलता एक-दूसरे के पूरक हैं। कर्म से हमारे जीवन को पहचान और प्रतिष्ठा मिलती है। हालांकि हमारी वास्तविक सफलता, पहचान और प्रतिष्ठा में नहीं, बल्कि अपने काम से मिलने वाले सुख में है। जिस निष्ठा और लगन से हम अपना काम करते हैं, उसी के अनुरूप हमें सुख प्राप्त होता है। इसमें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या हैं। जरूरी नहीं कि करोड़ों का कारोबार करने वाले व्यवसायी को कारोबार से सुख भी प्राप्त हो रहा हो या फिर दैनिक मजदूरी करने वाले मजदूर को अपने कार्य से सुख न प्राप्त हो रहा हो। सुख की रुपये-पैसे से कोई तुलना नहीं की जा सकती, बल्कि काम के प्रति हमारी रुचि और लगन से हमें खुशी मिलती है। हमारा कार्य ही सुख का एक बड़ा माध्यम है और अपने काम से मिलने वाला सुख हमारी उपलब्धि है। कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता, बल्कि कर्म तो कर्म होता है। कर्म का महत्व उसके पीछे छिपे हुए अभिप्राय से होता है। जो कर्म लक्ष्य के साथ जुड़ जाता है, वह योग बन जाता है।
कर्मशीलता केवल एक उपकरण है। यह हमें अपना काम कुशलतापूर्वक करने की काबलियत देती है, लेकिन यह हमें यह नहीं बताती है कि करना क्या है। कई बार यह स्पष्ट होता है कि क्या करने की जरूरत है, लेकिन कई बार यह बिल्कुल स्पष्ट नहीं होता। अगर आप यह नहीं जानते हैं कि क्या करने की जरूरत है तो आपका पहला कदम यही पता लगाना होगा कि आपको आखिर करना क्या है? जब आप अपनी कार्य-विधि तय करके उसे प्राप्त करने की योजना बना लेते हैं तब उसे पाने में कर्मशीलता का आपका गुण आपकी मदद करता है। जो व्यक्ति अपने कार्यक्षेत्र में ईमानदारी और लगन से मेहनत करता है, वह अपने जीवन में कभी असफल नहीं होता। ऐसे व्यक्ति अपने प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य को अपने जीवन का एक लक्ष्य जरूर तय करना चाहिए और इसकी प्राप्ति तक उसे संघर्ष करते रहना चाहिए। उनका प्रेरणा सूत्र यही है कि उठो, तब तक मत रुको, जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए। इसी तरह महात्मा गांधी का कथन है कि कुछ भी न करने से बेहतर है कुछ करना। कर्मशीलता का सार भी यही है कि काम करते रहना।
[ आचार्य विनोद कुमार ओझा ]